Saturday 5 December 2015

वनपर्व---कार्तिकेय के जन्म और देवसेनापतित्व ग्रहण करने का वृतांत

कार्तिकेय के जन्म और देवसेनापतित्व ग्रहण करने का वृतांत
युधिष्ठिर ने पूछा---स्वामि कार्तिकेयजी  का  जन्म  किस  प्रकार  हुआ था और वे अग्नि के पुत्र  किस  प्रकार  हुए, यह सब प्रसंग मुझे  यथावत् सुनाइये। मार्कण्डेयजी ने कहा---पूर्वकाल में देवता और असुर आपस में संग्राम ठानते रहते थे। उनमें सदा ही घोर रूपवाले असुरों की देवताओं पर विजय होती थी। जब इन्द्र ने बार-बार अपनी सेना को नष्ट होते देता तो वे मानस पर्वत पर जाकर एक श्रेष्ठ सेनापति प्राप्त करने के लिेये विचार करने लगे। इतने में उनके कानों में एक स्त्री के आर्तनाद का शब्द पड़ा। वह बार-बार चिल्लाती थी---'अरे ! तू डर मत, अब तेरे लिये भय की कोई बात नहीं है।' फिर उसके बाद पहुँचकर देखा कि उसके सामने हाथ में गदा लिये केशी दैत्य खड़ा है। तब उस कन्या का हाथ पकड़कर इन्द्र ने कहा, 'रे नीच करनेवाले ! तू किस प्रकार इस प्रकार इस कन्या का हरण करना चाहता है ? याद रख, मैं वज्रधर इन्द् हूँ। अब तू इसका पिण्ड छोड़ दे; इसे तो मैं वरण कर चुका हूँ। ऐसा करने पर ही तू जीता-जागता अपनी पुरी में लौट सकता है। ऐसा कहकर केशी ने इन्द्र पर अपनी गदा छोड़ी। किन्तु इन्द्र ने अपने वज्र द्वारा बीच में ही काट डाला। फिर केशी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर इन्द्र पर एक पहाड़ की चट्टान फेंकी। अपनी ओर आते देख इन्द्र ने उसे भी टुकड़े-टुकड़े करके पृथ्वी पर गिरा दिया। गिरते समय उससे केशी को ही चोट लगी। उस चोट से घबराकर वह उस कन्या को छोड़कर भागा। केशी के भाग जाने पर इन्द्र ने उस कन्या से पूछा, 'सुमुखि ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? और यहाँ तुम्हारा क्या काम है ? कन्या ने कहा---'इन्द्र ! मैं प्रजापति की पुत्री हूँ,मेरा नाम देवसेना है। दैत्यसेना मेरी बहन है, उसे यह केशी पहले ले जा चुकी है। हम दोनो बहिनें प्रजापति की आज्ञा लेकर साथ-साथ खेलने के लिये मानस पर्वत पर आया करती थीं और यह केशी दैत्य नित्य-प्रति हमें अपने साथ चलने के लिये कहा करता था; किन्तु दैत्यसेना का तो इस पर प्रेम था, मैं इसे नहीं चाहती थी। इसलिये उसे तो यह ले गया, मैं आपके बल पराक्रम से बच गयी। अब तुम जिस दुर्जय वीर को निश्चित करोगे, उसी को मैं अपना पति बनाना चाहती हूँ।' इन्द्र ने कहा, 'मेरी माता दक्षपुत्री अदिति है, इसलिये तू मेरी मौसेरी बहिन होती है। अच्छा, बता तेरे पति का कैसा बल होना चाहिये।' कन्या बोली 'जो देवता, दानव, यक्ष, किन्नर, नाग, राक्षस और दुष्ट दैत्यों को जीतनेवाला, महान् पराक्रमी और अत्यन्त बलवान् हो तथा जो तुम्हारे साथ मिलकर भी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर सके, वह ब्रह्मनिष्ठ और कीर्ति की वृद्धि करनेवाला पुरुष ही मेरा पति होना चाहिये। मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! उस कन्या की बात सुनकर इन्द्र को बड़ा खेद हुआ और उन्होंने सोचा कि जैसा यह कहती है वैसा तो कोई वर इसके लिये दिखाई नहीं देता। फिर वे उसे साथ ले ब्रह्मलोक में पितामह ब्रह्माजी के पास गये और उनसे कहा, 'भगवन् ! आप इस कन्या के लिये कोई सद्गुणी और शूरवीर पति बताइये।' ब्रह्माजी ने कहा, 'इसके लिये जिस प्रकार तुमने विचार किया है, यही बात मैने भी सोची है। अग्नि के द्वारा महान् पराक्रमी बालक होगा और तुम्हारे सेनाध्यक्ष का काम करेगा।' बह्माजी की बात सुनकर इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया और उस कन्या को साथ लेकर जहाँ प्रधान-प्रधान ब्रह्मर्षि और देवर्षि थे, वहाँ गये। उन दिनों वे महर्षिगण जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें देवतालोग आ-आकर अपने भाग ग्रहण करते थे, ऋषियों के आह्वान करने पर अग्निदेव भी वहाँ आये और उनकी मंत्रोच्चारणपूर्वक दी हुई बलियों को ग्रहण करके भिन्न-भिन्न देवताओं को देने लगे। उस समय ऋषिपत्नियों का रूप देखकर अग्निदेव की इन्द्रियाँ चंचल हो गयीं और वे बहुत विचार करने पर भी काम के वेग को न रोक सके। किन्तु उस कामाग्नि को शान्त करने का उन्हें कोई अवसर मिलना सम्भव नहीं था, क्योंकि ऋषिपत्नियाँ और शुद्ध हृदयवाली थीं। इसलिये अग्निदेव का हृदय बहुत संतप्त होने लगा और वे निराश होकर शरीर त्यागने के विचार से वन में चले गये। जब अग्नि की पत्नी स्वाहा को मालूम हुआ कि वे वन में चले गये हैं तो उसने विचार किया कि 'मैं ही ऋषिपत्नियों का रूप धारण कर उन्हें अपने में आसक्त करूँगी। इससे उनका मेरे ऊपर प्रेम बढ़ जायगा।'यह सोचकर स्वाहा ने पहले महर्षि अंगिरा की पत्नी रूप-गुणशीलवती शिवा का रूप धारण किया और अग्निदेव के पास जाकर कहने लगी, 'आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये। तब अग्नि ने बहुत प्रसन्न होकर उसकी बात मान ली। स्वाहा ने उनके वीर्य को अपने हाथ में लेकर उसे एक सोने के कुण्ड में रख दिया। इसी प्रकार स्वाहा ने सप्तर्षियों में से प्रत्येक की पत्नी का रूप धारण करके ऐसा ही किया। किन्तु अरुन्धती के तप और पातिव्रत्य के प्रभाव से उसका रूप धारण न कर सकी। इस प्रकार छः बार अग्नि के वीर्य को उसी सुवर्ण के कुण्ड में रखा। उससे एक ऋषिपूजित बालक उत्पन्न हुआ। उसका नाम स्कंद हुआ। उसके  छःह  सिर, बारह  कान, बारह नेत्र, बारह भुजाएँ  तथा  एक  ग्रीवा  और  एक  पेट  था। वह द्वीतीया  को अभिव्यक्त  हुआ, तृतीया को शिशु रहा और चतुर्थी को अंग-प्रत्यंग से सम्पन्न हो गया। जिस प्रकार उदित होता हुआ सूर्य अरुणवर्ण बादल में सुशोभित हो, उसी प्रकार विद्युतयुक्त अरुण मेघ से घिरा हुआ वह बालक जान पड़ता था। फिर त्रिपुरविनाशक महादेवजी ने दैत्यों का संहार करनेवाला जो विशाल और रोमांचकारी धनुष रख छोड़ा था, उसे स्कंदजी ने उठा लिया और भीषण सिंहनाद से तीनों लोकों के चराचर जीवों को संज्ञाशून्य-सा कर दिया। उनकी उस भयंकर महमेघ के समान गर्जना को सुनकर बहुत से प्राणी पृथ्वी पर गिर गये।उस समय जिन-जिन प्राणियों ने उनकी शरण ली, उन्हे उनका पार्षद कहा जाता है। उन सबको महाबाहु स्वामी कार्तिकेय ने सान्त्वना दी। फिर उन्होंने श्वेत पर्वत के ऊपर खड़े होकर हिमालय के पुत्र    कौंचपर्वत को वाणों से बिंध दिया। उसी छिद्र में होकर हंस और गृध्र पक्षी आज भी मेरुपर्वत पर जाते हैं।कार्तिकेयजी के वाणों से बिन्ध होकर कौंचपर्वत अत्यंत आर्तनाद करता हुआ गिर पड़ा। उसके गिरने पर दूसरे पर्वत भी बड़ा चीत्कार करने लगे। उन अत्यंत आर्तपर्वतों का वह चीत्कार-शब्द सुनकर भी महाबली कार्तिकेयजी विचलित नहीं हुए। बल्कि एक शक्ति हाथ में लेकर सिंहनाद करने लगे। जब उन्होंने उस शक्ति को छोड़ा तो उसने बड़े वेग से श्वेतगिरि के एक विशाल शिखर को फोड़ डाला। उनकी मार से विदीर्ण हुआ वह श्वेतपर्वत डरकर दूसरे पहाड़ों को छोड़कर पृथ्वी सहित आकाश में उड़ गया। तब पृथ्वी भी भयभीत होकर जहाँ-तहाँ से फट गयी, किन्तु व्याकुल होकर कार्तियेयजी के पास जाने पर वह फिर बलवती हो गयी। पर्वतों ने भी उनके चरणों में सिर झुकाया और वे पृथ्वी पर आ गये। तबसे शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन लोग उनका पूजन करने लगे। इधर, जब सप्तर्षियों को उस महान् तेजस्वी पुत्र के उत्पन्न होने का समाचार मालूम हुआ तो उन्होंने अरुन्धती के सिवा और सब पत्नियों को त्याग दिया। किन्तु स्वाहा ने सप्तर्षियों से बार-बार कहा कि 'मैं अच्छी तरह जानती हूँ यह मेरा पुत्र है; आपलोग जैसा समझते हैं, वैसी बात नहीं है।' विश्वामित्रजी ने जब अग्निदेव को कामातुर देखा था तो वे भी सप्तर्षियों की इष्टि करके गुप्तरूप से उनके पीछे चले गये थे। इसलिये उन्हें सब बातों का ठीक-ठीक पता था। उन्होंने भी सप्तर्षियों से कहा कि 'इसमें आपलोगों की पत्नियों का अपराध नहीं है।' किन्तु उनसे सब बातें यथावत् सुनकर भी उन्होंने अपनी पत्नियों को त्याग ही दिया। जब देवताओं ने स्कंद के बल-पराक्रम की बातें सुनीं तो उन्होंने आपस में मिलकर इन्द्र से कहा, 'देवराज ! स्कन्द का बल असह्य है, आप उसे तुरंत मार डालिेये। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो वही देवताओं का राजा बन बैठेगा।' इन्द्र को यद्यपि अपनी विजय में संदेह था, तो भी उन्होंने ऐरावत पर चढ़कर सब देवताओं को साथ ले स्कन्द पर धावा बोल दिया। वहाँ पहुँचकर इन्द्र तथा समस्त देवताओं ने भीषण सिंहनाद किया। उस शब्द को सुनकर कार्तिकेयजी ने भी समुद्र के समान भारी गर्जना की। उस महान् शब्द से देवताओं की सेना अचेत सी हो गयी और उसमें खलबलाये हुए समुद्र के समान सनसनी फैल गयी। देवताओ को अपना वध करने के लिये आया देख अग्निकुमार कार्तिकेय ने कुपित होकर अपने मुँह से अग्नि की धधकती हुई ज्वालाएँ छोड़ीं। वे लपटें पृथ्वी पर भय से काँपती हुई देवसेना को जलाने लगीं। इससे देवताओं के मस्तक, शरीर, आयुध और वाहन जलने लगे तथा वे तितर-बितर हो जाने से छिन्न-भिन्न तारागण के समान प्रतीत होने लगे। इस प्रकार जल-भुन जाने से उन्होंने इन्द्र को छोड़कर अग्निपुत्र स्कन्द की ही शरण ली। तब उन्हें कुछ चैन मिला। देवताओं के त्याग देने पर इन्द्र ने स्कन्द पर वज्र छोड़ा। उस वज्र ने उनके दाहिने अंग पर चोट की। इससे उनके अंग में से एक और पुरुष प्रकट हुआ। वह युवावस्था का था तथा सोने का कवच, शक्ति  और दिव्य कुण्डल धारण किे था। स्कन्द के अंग में वज्र का प्रवेश होने से उत्पन्न होने से वह 'विशाख' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार प्रलयाग्नि के समान तेजस्वी एक दूसरे पुरुष को उत्पन्न हुआ देखकर इन्द्र को बड़ा भय हुआ और उन्होंने हाथ जोड़कर स्कन्द की ही शरण ली। साधु स्कन्द ने सेना के सहित इन्द्र को अभय दान दिया। तब देवता लोग अत्यन्त प्रसन्न होकर बाजे बजाने लगे। उस समय ऋषियों ने उनसे कहा---'देवश्रेष्ठ ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम संपूर्ण लोकों का मंगल करो। अभी तुम्हे उत्पन्न हुए छः रात्रियाँ ही बीती हैं; फिर भी तुमने सारे लोकों को अपने काबू में कर लिया है और फिर तुम्ही ने इन्हे अभय भी दिया है। अतः अब तुम्हीं इन्द्र बनकर तीनों लोकों को निर्भय कर दो।' स्वामी कार्तिकेय ने पूछा, 'मुनिगण ! यह इन्द्र त्रिलोकी का क्या काम करता है और किस प्रकार यह देवताओं की रक्षा करता है ?' ऋषियों ने कहा, इन्द्र समस्त प्राणियों को बल, तेज, प्रजा और सुख प्रदान करता है तथा प्रसन्न होने पर वह सब प्रकार की इच्छाएँ पूरी करता है। वह दुराचारियों का संहार करता है, सदाचारियों की रक्षा करता है तथा प्राणियों के प्रत्येक काम में उनका अनुशासन करता है। जब सूर्य नहीं रहता तो वही सूर्य हो जाता है और चन्द्रमा के अभाव में वही चन्द्रमा होकर चमकता है। इस प्रकार वही भिन्न-भिन्न कारणों से अग्नि, वायु, पृथ्वी और जल बन जाता है।ये ही सब काम इन्द्र को करने पड़ते हैं, क्योंकि इन्द्र में बड़ा बल होता है। इन्द्र आदि सभी देवताओं ने इन्द्र की पदवी स्कन्द को लेने के लिये कहा तो स्कन्द ने कहा ,'मुझे इन्द्रपद की इच्छा नहीं है।'  इन्द्र ने कहा, 'तुम्हारे कहने से मैं इन्द्र बना रहूँगा, किन्तु तुम देवसेनापति के पद पर अपना अभिषेक करा लो।' स्कन्द ने कहा, 'ठीक है; दानवों के विनाश और देवताओं की सिद्धि के लिये आप सेनापति के पद पर अपना अभिषेक प्रसन्नता से कर दीजिये। स्कन्द के इस प्रकार कहने पर इन्द्र ने समस्त देवताओं के सहित उन्हें देवताओं का सेनापति बना दिया। उस समय महर्षियों से पूजित होकर वे बड़े ही सुशोभित हुए। उनके मस्तक पर सुवर्ण का छत्र लगाया गया। इतने में ही पार्वतीजी के सहित भगवान शंकर पधारे। उन्होंने स्वयं ही विश्वकर्मा की बनायी हुई एक माला उनके गले में पहना दी। अग्निदेव ने एक मुर्ग दिया। उसकी कालाग्नि के समान लाल रंग की ध्वजा सर्वदा उनके रथ पर फहराया करती है। जो समस्त प्राणियों की चेष्टा, प्रभा शान्ति और बल है तथा देवताओं की विजय को बढ़ानेवाली है, वह शक्ति स्वयं ही उनके आगे आकर उपस्थित हो गयी। फिर उनके शरीर में जन्म के साथ उत्पन्न हुए कवच ने प्रवेश किया। वह युद्ध करने के समय स्वयं ही प्रकट हो जाता है। शक्ति, धर्म, बल, तेज, कान्ति, सत् उन्नति, ब्रह्मन्यता, असम्मोह, भक्तों की रक्षा, शत्रुओं का संहार और लोकों की रक्षा करना---ये सब गुण स्कंद में जन्मतः ही हैं। इस प्रकार सभी देवगणों ने उन्हें अपन सेनापति बना लिया। इसके पश्चात् कार्तिकेयजी के सामने सहस्त्रों देवसेनाएँ उपस्थित हुईं और कहने लगीं कि 'आप हमारे पति हैं।'तब उन्होंने उन सभी को स्वीकार किया और उनसे सम्मानित हो उन सभी को शान्त्वना दी। फिर इन्द्र  को केशी के हाथ से छुटायी हुई देवसेना का स्मरण हो आया और वे सोचने लगे, इसमें संदेह नहीं कि 'इन्हे ही ब्रह्माजी ने देवसेना का पति नियत किया है।' अतः वे वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर उसे स्कन्द के पास आये और उनसे कहा, 'देवश्रेष्ठ ! ब्रह्माजी ने आपके जन्म से पहले ही इसे आपकी पत्नी निश्चित किया है, इसलिये आप विधिवत् मंत्रोच्चारणपूर्वक इसका पाणिग्रहण कीजिये। ' तब स्कन्द ने विधिपूर्वक उसका पाणिग्रहण किया। उस समय मंत्रवेत्ता वृहस्पतिजी ने मंत्रोच्चारण और हवनादि किया। इस प्रार देवसेना कार्तिकेयजी की पटरानी होकर प्रसिद्ध हुई। उसी को षष्ठी, लक्ष्मी, आशा, सुखप्रदा, सिनीवाली, कुहू, सद्वृति और अपराजिता भी कहते हैं।

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