द्रौपदी
का
सत्यभामा
को
उपदेश
तथा
सत्यभामा
की
विदाई
द्रौपदी ने कहा---सत्ये ! मैं पति के चित्त को अपने वश में करने का यह निर्दोष मार्ग बताती हूँ। यदि तुम इसपर चलोगी तो
स्वामी के मन को अपनी ओर खींच लोगी। स्त्री के लिये इसलोक या परलोक में पति के समान
कोई दूसरा देवता नहीं है; उसकी प्रसन्नता होने पर वह सब प्रकार के सुख पा सकती है और
असंतुष्ट होने पर अपने सब सुखों को मिट्टी में मिला देती है। सुख के द्वारा सुख कभी
नहीं मिल सकता, सुखप्राप्ति का साधन तो दुःख ही है। अतः तुम सुहृदता, प्रेम, परिचर्या,
कार्यकुशलता तथा तरह-तरह के पुष्प और चन्दनादि से श्रीकृष्ण की सेवा करो तथा जिस प्रकार
वे यह समझें कि मैं इसे प्यारा हूँ, तुम वही काम करो। जब तुम्हारे कान में पतिदेव के
आने की आवाज पड़े तो तुम आँगन में खड़ी होकर उनके स्वागत के लिये तैयार रहो और जब वे
भीतर आ जायँ तो तुरन्त ही आसन और पैर धोने के लिये जल देकर उनका सत्कार करो। यदि वे
किसी काम के लिये दासी को आज्ञा दें तो तुम स्वयं ही उठकर उनके सब काम करो। श्रीकृष्णचन्द्र
को ऐसा मालूम होना चाहिये कि तुम सब प्रकार से उन्हें ही चाहती हो। तुम्हारे पति तुमसे
कोई ऐसी बात कहें कि जिसे गुप्त रखना आवश्यक न हो तो भी तुम उसे किसी से मत कहो। पतिदेव
के जो प्रिय, स्नेही और हितैषी हों उन्हें तरह-तरह के उपायों से भोजन कराओ तथा जो उनके
शत्रु, उपेक्षनीय एवं अशुभचिंतक हों अथवा उनके प्रति कपटभाव रखते हों, उनसे सर्वदा
दूर रहो। जो अत्यन्त कुलीन, दोषरहित और सती हों, उन्हीं स्त्रियों से तुम्हारा प्रेम
होना चाहिये; क्रूर, लड़ाकी, पेटू, चोरी की आदतवाली, दुष्टा और चंचल स्वभाववाली स्त्रियों
से सर्वदा दूर रहो। इस प्रकार तुमसब तरह अपने पतिदेव की सेवा करो। इससे तुम्हारे यश
और सौभाग्य की वृद्धि होगी, अन्त में स्वर्ग मिलेगा और तुम्हारे विरोधियों का अन्त
हो जायगा। इस समय भगवान् श्रीकृष्ण मार्कण्डेय आदि मुनियों और महात्मा पाण्डवों के
साथ तरह-तरह की बातें कर रहे थे। जब वे द्वारका चलने के लिये रथ में चढ़ने लगे तो उन्होंने
सत्यभामा को बुलाया। तब सत्यभामाजी ने द्रौपदी से गले मिलकर अपने विचार के अनुसार बहुत
सी ढ़ाढ़स बँधानेवाली बातें कहीं। वे बोलीं, 'कृष्णे ! तुम चिन्ता न करो, व्याकुल मत
होओ। तुम्हारे देवतुल्य पति फिर अपना राज्य प्राप्त करेंगे। तुम्हारे समान शीलसम्पन्न
और आदरणीय महिलाएँ, अधिक दिन दुःख नहीं भोगा करतीं। मैने महापुरुषों के मुँह से सुनी
है कि तुम अवश्य ही निष्कण्टक होकर अपने पतियों के सहित इस पृथ्वी पर राज्य करोगी।
इस प्रकार बहुतसी प्रिय, सत्य, आनन्ददायिनी और मनोनुकूल बातें कहकर सत्यभामाजी ने श्रीकृष्ण
के रथ की ओर जाने का विचार किया। उन्होंने द्रौपदी की परिक्रमा की और फिर रथ पर चढ़
गयीं। श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर द्रौपदी को धीरज बँधाया फिर पाण्डवों को लौटाकर घोड़ों
को तेज कर द्वारकापुरी को चले।
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