पाण्डवों का गन्धर्वों से युद्ध करके दुर्योधनादि को छुड़ाना
युधिष्ठिर की बातें
सुनकर भीम आदि सभी पाण्डवों केमुख हर्ष से खिल गये और वे युद्ध के लिये उत्साहित होकर
खड़े हो गये। फिर
उन्होंने अभेद्य कवच और तरह-तरह के दिव्य आयुध धारण किये और गन्धर्वों पर धावा बोल
दिया। जब विजयोन्मत्त गन्धर्वों ने देखा कि लोकपालों
के समान चारों पाण्डव रथों पर चढ़कर रणभूमि में आये हैं तो वे लौट पड़े और व्यूहरचना
करके उनके सामने खड़े हो गये। तब अर्जुन ने गन्धर्वों
को समझाते हुए कहा, 'तुम मेरे भाई राजा दुर्योधन को छोड़ दो।' इसपर गन्धर्वों ने कहा,
'हमें आज्ञा देनेवाला तो गन्धर्वराज चित्रसेन के सिवा और कोई नहीं है; एक वे ही हमें
जैसी आज्ञा देते हैं, वैसा हम करते हैं।' गन्धर्वों के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उनसे
फिर कहा, 'परायी स्त्रियों को पकड़ना और मनुष्यों के साथ युद्ध करना---ऐसा निन्दनीय
काम गन्धर्वराज को शोभा नहीं देता। तुमलोग धर्मराज
युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर इन महापराक्रमी धृतराष्ट्रपुत्रों को छोड़ दो। यदि तुम शान्ति
से इन्हें नहीं छोड़ोगे तो मैं स्वयं ही पराक्रम द्वारा इनको छुड़ा लूँगा। ' ऐसा कहने पर भी जब गन्धर्वों ने अर्जुन की बात उड़ा
दी तो वे उनके ऊपर पैने-पैने वाण बरसाने लगे तथा गन्धर्वों ने भी उनपर वाण की झरी लगा
दी। अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़कर हजारों गन्धर्वों को यमराज के पास भेज दिया। महाबली
भीम ने भी तीखे-तीखे तीरों से सैकड़ों गन्धर्वों का अन्त कर दिया। माद्रीपुत्र नकुल
और सहदेव ने भी संग्रामभूमि में कदम बढ़ाकर अनेक शत्रुओं को घेर-घेरकर मार डाला। महारथी पाण्डवलोग जब गन्धर्वों को
इस प्रकार जब दिव्य अस्त्रों से मारने लगे तो वे धृतराष्ट्र के पुत्रों को लेकर आकाश
में उड़कर जाने लगे। कुन्तीकुमार अर्जुन ने उन्हें
आकाश की ओर उड़ते देख वाणों का एक ऐसा विस्तृत जाल छा दिया कि जिसने चारों ओर से उनकी
गति रोक दी। उस जाल में वो उसी प्रकार बन्द हो गये, जैसे पिंजड़े में पक्षी। अतः वे
अत्यन्त कुपित होकर अर्जुन पर गदा, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने
लगे। तब महावीर अर्जुन ने उनपर स्थुणाकर्ण, इन्द्रजाल, सौर, आग्नेय तथा सौम्य आदि दिव्य
अस्त्र चलाये। इनकी मार से वे अत्यन्त पीड़ित होने लगे। ऊपर जाने से तो उन्हें वाणों
का जाल रोक रहा था और इधर-उधर जाते तो अर्जुन के वाणों से बींधने लगते। जब चित्रसेन
ने देखा कि गन्धर्व अर्जुन के वाणों से अत्यन्त त्रस्त हो रहे हैं तो वह गदा लेकर उनकी
ओर दौड़ा। किन्तु अर्जुन ने अपने वाणों द्वारा उस लोहे की गदा के सात टुकड़े कर दिये।
तब वह माया से अदृश्य रहकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। इससे अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ और वे दिव्यास्त्रों
से अभिमंत्रित आकाशचारी आयुधों से युद्ध करने लगे तथा अन्तर्धान रहने पर भी उसके शब्द
का अनुसरण करके शब्दबेधी बाणों से उसे बींधने लगे। अर्जुन के उन अस्त्र-शस्त्रों से
चित्रसेन तिलमला उठा और उसने अपने को प्रकट करके कहा, 'अर्जुन ! देखो, युद्ध में तुम्हारे
सामने आया हुआ मैं तुम्हारा सखा चित्रसेन हूँ।' अर्जुन ने जब अपने सखा को युद्ध से
जर्जरित देखा तो उन्होंने अपने दिव्यास्त्रों को लौटा लिया। यह देखकर सब पाण्डव बड़े
प्रसन्न हुए और फिर रथों में बैठे हुए भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और चित्रसेन आपस में
कुशल-प्रश्न करने लगे।तब महाधनुर्धर अर्जुन ने चित्रसेन से पूछा---'वीरवर ! कौरवों
का पराभव करने में तुम्हारा क्या उद्देश्य था ? तुमने स्त्रियों के सहित दुर्योधन को
क्यों कैद किया है ?' चित्रसेन ने कहा, "वीर धनंजय ! देवराज इन्द्र को स्वर्ग
में ही दुरात्मा दुर्योधन और पापी कर्ण का अभिप्राय मालूम हो गया था। ये लोग यह सोचकर
कि आजकल पाण्डवलोग वन में विपरीत परिस्थिति में रहकर अनाथों की तरह कष्ट भोग रहे हैं
और हम खूब आनन्द में हैं, तुम्हे देखने और इस दशा में यशस्विनि द्रौपदी की हँसी उड़ाने
के लिेये आये थे। इनकी ऐसी खोटी मनोवृति जानकर उन्होंने मुझसे कहा, 'जाओ' दुर्योधन
को उसके भाई और मंत्रियों सहित बाँधकर यहाँ ले आओ। किन्तु देखो, भाइयों के सहित अर्जुन
की सब प्रकार रक्षा करना; क्योंकि वह तुम्हारा प्रिय सखा और (गानविद्याका) शिष्य है।'
तब देवराज के कहने से मैं तुरन्त ही यहाँ आ गया और इस दुष्ट को बाँध भी लिया। अब मैं
देवलोक को जा रहा हूँ और इन्द्र के आज्ञानुसार इस दुरात्मा को भी ले जाऊँगा।"
अर्जुन ने कहा, 'चित्रसेन ! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो धर्मराज के आदेश से
तुम हमारे भाई दुर्योधन को छोड़ दो।' चित्रसेन ने कहा, अर्जुन ! यह पापी है और बड़ा घमण्ड
से भरा रहता है, इसे छोड़ना उचित नहीं है। इसने तो धर्मराज और कृष्णा को धोखा दिया था।
धर्मराज का यह इस समय जो कुछ करना चाहता था, उसका पता नहीं है; अच्छा, चलो उन्हें सब
बातें बता देंगे; फिर उनकी जैसी इच्छा होगी, वैसा करेंगे। फिर वे सब महाराज युधिष्ठिर
के पास गये और उसकी सब बातें उन्हें बता दी। तब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर ने गन्धर्वों
की बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और समस्त कौरवों को छुड़वा दिया। वे गन्धर्वों से कहने
लगे, 'आपलोग बलवान् और शक्तिसम्पन्न हैं; यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपने मेरे भाई-बन्धु
और मंत्रियों के सहित दुराचारी दुर्योधन का वध नहीं किया। मेरे ऊपर आपलोगों का यह बड़ा
उपकार हुआ है।' फिर बुद्धिमान महाराज युधिष्ठिर
की आज्ञा लेकर अप्सराओं के सहित चित्रसेनादि गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्नचित्त से स्वर्ग
को चले गये। देवराज इन्द्र ने दिव्य अमृत की वर्षा करके कौरवों के हाथ से मरे हुए गन्धर्वों
को जीवित कर दिया।अपने स्वजन और राजमहिषियों को मुक्त कराकर पाण्डवों को बड़ी प्रसन्नता
हुई। कौरवों ने स्त्री और कुमारों के सहित पाण्डवों का बड़ा सत्कार किया। तब भाइयों के सहित बन्धन से छूटे हुए दुर्योधन से धर्मराज युधिष्ठिर
से बड़े प्रेम से कहा, 'भैया ! ऐसा साहस फिर कभी मत करना; देखो, साहस करनेवालों को कभी
सुख नहीं मिलता। अब तुम सब भाइयों के सहित कुशलपूर्वक अपने घर जाओ। इस घटना से मन में
किसी प्रकार का खेद मत मानना।' धर्मराज के इस प्रकार आज्ञा देने पर दुर्योधन ने उन्हें
प्रणाम किया और हृदय में अत्यन्त लज्जित होकर अपने नगर की ओर चला गया। उस समय वह ऐसा
व्याकुल हो रहा था मानो उसकी इन्द्रियाँ नष्ट हो गयीं हों तथा क्षोभ के कारण उसका हृदय
फटा जाता था।
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