Saturday 5 December 2015

वनपर्व---धर्मव्याध की अपने माता-पिता के प्रति भक्ति

धर्मव्याध की अपने माता-पिता के प्रति भक्ति
मार्कण्डेयजी कहते हैं---युधिष्ठिर ! इस प्रकार जब धर्मव्याध ने मोक्षसाधक धर्मों का वर्णन किया तो कौशिक ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर बोला, 'तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, सब न्याययुक्त है। धर्मव्याध ने कहा---अब मेरा प्रत्यक्ष धर्म भी चलकर देखिये, जिसकी बदौलत मुझे यह सिद्धि मिली है। घर के भीतर पधारिये और मेरे माता-पिता के दर्शन कीजिये। व्याध के ऐसा कहने पर ब्राह्मण ने भीतर प्रवेश किया, वहाँ उन्हें एक बहुत सुन्दर गृह दिखायी पड़ा, जिसमें चार कमरे थे, चूने की सफेदी की हुई थी। वह घर देवताओं का निवासस्थान प्रतीत होता था। वहाँ धूप और केसर आदि की मीठी सुगंध फैल रही थी। एक बहुत सुन्दर आसन पर धर्मव्याध के माता-पिता भोजन करके प्रसन्नचित्त से बैठे हुए थे।धर्मव्याध ने माता-पिता को देखते ही उनके चरणों पर सिर रख दिया। बूढ़े माता-पिता बड़े स्नेह से बोले, 'बेटा ! उठ, उठ; तू धर्म को जानता है, धर्म ही सदा तेरी रक्षा करे। हम दोनो तेरी सेवा से, तेरे शुद्ध भाव से बहुत प्रसन्न हैं। तेरी आयु बड़ी हो। तूने उत्तम गति, तप, ज्ञान और श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त की है। बेटा, हम तुम्हारे सेवाभाव से बहुत प्रसन्न हैं। परशुरामी ने जिस प्रकार अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा की थी उसी प्रकार--उससे भी बढ़कर तूने हमारी सेवा की है।' तत्पश्चात् व्याध ने अपने माता-पिता को ब्ाह्मण का परिचय दिया। उन्होंने भी ब्राह्मण का स्वागत सम्मान किया। तदनन्तर व्याध ने अपने माता-पिता की ओर देखते हुए कौशिक से कहा---' भगवन् ! ये माता-पिता ही मेरे प्रधान देवता हैं। जो कुछ देवताओं के लिये करना चाहिये , वह सब मं इन्हीं दोनो के लिये करता हूँ। इनकी सेवा में मुझे आलस्य नहीं होता। जैसे सारे संसार के लिये इन्द्र आदि तैंतीस देवता पूजनीय हैं उसी प्रकार मेरे लिये ये बूढ़े माता-पिता पूज्य हैं। मेरे प्राण भी इन्हीं की सेवा में समर्पित है। स्त्री बच्चों के साथ मैं नित्य इन्हीं की सेवा करता हूँ। स्वयं ही इन्हें नहलाता हूँ, चरण धोता हूँ और स्वयं ही भोजन परोसकर देता हूँ। मैं जानता हूँ, इन्हें क्या रुचता है ? इसीलिये इनके पसंद की चीजें लाता हूँ और जो इन्हें अच्छी नहीं लगती, वह चीज नहीं लाता। इस प्रकार आलस्य त्यागकर मैं सदा इनकी सेवा में लगा रहता हूँ।

No comments:

Post a Comment