Tuesday 22 December 2015

वनपर्व---दुर्योधन का अनुताप और प्रायोपवेश का निश्चय

दुर्योधन का अनुताप और प्रायोपवेश का निश्चय
जब युधिष्ठिर ने दुर्योधन को विदा किया तो वह लज्जा से मुख नीचा किये हृदय में कुढ़ता हुआ चतुरंगिनी सेना के सहित वहाँ से हस्तिनापुर को चला। मार्ग में एक रमणीक स्थान पर, जहाँ जल और घास की अधिकता थी, उसने विश्राम किया। वहाँ कर्ण ने उसके पास आकर कहा, 'राजन् ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आपका जीवन बच गया। मुझे तो आपके सामने ही गन्धर्वों ने ऐसा तंग किया कि मैं उनके वाणों से पीड़ित हुई सेना को भी नहीं संभाल सका। अन्त में जब नाकमें दम आ गया तो वहाँ से भागना ही पड़ा। उस अतिमानुष युद्ध में आप रानियों और सेना सहित सकुशल लौट आये, किसी प्रकार का घाव आदि भी आपको नहीं लगा। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। इस समय भाइयों सहित आपने युद्ध में जो काम करके दिखाया है, उसे कर सकनेवाला दूसरा पुरुष संसार में दिखाई नहीं देता।' कर्ण के इस प्रकार कहनेपर दुर्योधन ने गद्गद् कण्ठ होकर कहा---राधेय ! तुम्हे असली भेद का पता नहीं है, इसी से मैं तुम्हारे कथन का बुरा नहीं मानता। तुम तो यही समझते हो कि गन्धर्वों को मैने अपने पराक्रम से हराया है। सच्ची बात तो यह है कि मेरे और मेरे भाइयों के साथ गन्धर्वों का बहुत देर तक युद्ध हुआ और उसमें दोनो ही ओर की हानि भी हुई। किन्तु जब वे माया से युद्ध करने लगे तो हम उनका सामना नहीं कर सके। अन्त में हार हमारी ही हुई और गन्धर्वों ने हमें सेवक, मंत्री, पुत्र, स्त्री, सेना और सवारियों के सहित कैद कर लिया। फिर वे हमें आकाशमार्ग से ले चले। उसी समय हमारे कुछ सैनिक और मंत्रियों ने पाण्डवों के पास जाकर कहा कि 'गन्धर्वलोग दुर्योधन तथा उनके भाइयों को पकड़कर ले जा रहे हैं, इस समय आप उन्हें छुड़ाइये।' तब धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को समझाकर हमें बन्धन से छुड़ाने के लिये आज्ञा दी। पाण्डवलोग उस स्थान पर आये और हमें हराने की शक्ति रखते हुए उन्होंने उन्हें समझाकर शान्तिपूर्वक छोड़ देने का प्रस्ताव किया। किन्तु गन्धर्व हमें छोड़ने को तैयार नहीं हुए। इसपर भीमेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव उनपर वाणों की वर्षा करने लगे। तब गन्धर्वलोग रणभूमि छोड़कर हमें घसीटते हुए आकाश में चढ़ने लगे। उस समय हमने आँख उठायी तो देखा कि सब ओर से बाणों की जाल से घिरा हुआ अर्जुन दिव्य अस्त्रों की वर्षा कर रहा है। इस प्रकार जब अर्जुन के पैने वाणों से सारी दिशाएँ रुक गयीं तो अर्जुन के मित्र चित्रसेन ने अपना रूप प्रकट कर दिया। फिर दोनो मित्र आपस में खूब मिले और दोनो ने ही कुशल प्रश्न किया। फिर वीरवर अर्जुन ने हँसते हुए उत्साहपूर्वक यह बात कही, 'वीरवर ! आप मेरे भाइयों को छोड़ दीजिेये। पाण्डवों के जीवित रहते इनका तिरस्कार नहीं होना चाहिये।' अर्जुन के इस प्रकार कहने पर गन्धर्वराज चित्रसेन ने उसे बताया कि हमलोग पाण्डवों को उनकी स्त्री के सहित इस दुर्दशा में देखने के लिये वहाँ गये थे। चित्रसेन ने जब ये शब्द कहे तो मैं लज्जा से यह सोचने लगा कि धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ।फिर पाण्डवों के सहित गन्धर्वों ने युधिष्ठिर के पास जाकर हमें कैदी के हालत में खड़ा किया और उन्हें भी हमें खोटा विचार सुनाया। इस प्रकार स्त्रियों के सामने मैं दीन और कैदी की दशा में युधिष्ठिर को भेंट किया गया। बताओ, इससे बढ़कर दुःख की और क्या बात होगी ? जिनका मैने सर्वदा निरादर किया और जिनका सदा से ही शत्रु बना रहा, उन्होंने मुझ मंदमति को बंधन से छुड़ाया और मुझे जीवनदान दिया। हे वीर ! इसकी अपेक्षा तो उस महान् संग्राम में मेरे प्राण निकल जाते तो बहुत अच्छा होता। इस प्रकार का जीना किस काम का ? यदि गन्धर्व मुझे मार डाले तो संसार में मेरा यश फैल जाता और मुझे अक्षयलोकों की प्राप्ति होती। अब मेरा जो विचार है, सुनो। मैं यहाँ अन्न-जल छोड़कर प्राण त्याग दूँगा। तुम और दुःशासनादि मेरे सब भाई हस्तिनापुर चले जाओ। अब मैं हस्तिनापुर जाकर सभी को क्या उत्तर दूँगा ? इस जीने से तो मरना ही अच्छा है। इस प्रकार दुर्योधन अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो रहा था। उसने फिर दुःशासन से कहा, 'भैया ! तुम मेरी बात सुनो। मैं तुम्हे राज्य देता हूँ। इसे स्वीकार करके तुम मेरी जगह राजा बनो और कर्ण तथा शकुनि की सलाह से इस समृद्धिशाली पृथ्वी का शासन करो।' दुर्योधन की यह बात सुनकर दुःशासन का गला दुःख से भर आया और उसने दुर्योधन के चरणों में सिर रखकर रोते हुए कहा, 'महाराज ! ऐसा कभी नहीं हो सकता; मैं आपके बिना पृथ्वी का शासन नहीं करूँगा। बस आप प्रसन्न हो जाइये।' ऐसा कहकर दुःशासन ने दोनो हाथों से अपने बड़े भाई के चरण पकड़ लिये और ढ़ाढ़ मारकर रोने लगा। दुर्योधन और दुःशासन को अत्न्त दुःखी देख कर्ण को भी बड़ी व्यथा हुई और उसने उनसे कहा, 'आप दोनो नासमझी से सामान्य पुरुषों के समान क्यों शोक करते हैं ? शोक करनेवालों का शोक तो कभी दूर नहीं हो सकता। अतः धैर्य धारण करें, इस प्रकार शोक करके शत्रुओं का हर्ष मत बढ़ाइये। पाण्डवों ने आपको गन्धर्वों के हाथ से छुड़ाया--ऐसा करके तो उन्होंने अपने कर्तव्य का ही पालन किया है। राज्य के भीतर रहनेवाले पुरुषों को सर्वदा राजा का प्रिय ही करना चाहिये। इसलिये ऐसी कोई बात हो भी गयी तो आपको संताप नहीं होना चाहिये। देखिये, आपके प्रायोपवेश के विचार को सुनकर आपके सभी भाई उदास हो गये हैं। इसलिये इस संकल्प को छोड़कर खड़े होइये और अपने भाइयों को ढ़ाढ़स बँधाइये। यदि आप मेरी बात नहीं मानेंगे मैं भी यहीं रहूँगा। आपके बिना तो मैं भी जीवित नहीं रह सकता।' तब शकुनि ने भी दुर्योधन को समझाते हुए कहा, राजन ! कर्ण ने यथार्थ बात कही है। तुम आज मूर्खता से अपने प्राण त्यागने को तैयार हुए हो। तुम उदासी छोड़ दो और पाण्डवों ने तुम्हारे साथ जो उपकार किया है, उन्हें स्मरण करके उन्हें उनका राज्य दे दो। इससे तुम यश और धर्म प्राप्त करोगे। तुम पाण्डवों के साथ भाईका-सा व्यवहार करके उन्हें अपनी जगह बैठा दो और उनका पैतृक राज्य उन्हें सौंप दो। इससे तुम्हे सुख मिलेगा। दुर्योधन को किसी के समझाने का कोई असर न हुआ। वह अपने निश्चय से नहीं डिगा और कुश और वल्कल वस्त्र धारण किये और वाणी का संयम कर उपवास के नियमों का पालन करने लगा।

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