Saturday 5 December 2015

वनपर्व---कौशिक ब्राह्मण को माता-पिता की सेवा के उपदेश और कौशिक का जाना

कौशिक ब्राह्मण को माता-पिता की सेवा के उपदेश और कौशिक का जाना
इस प्रकार धर्मात्मा व्याध ने ब्राह्मण को अपने माता-पिता के दर्शन कराने के पश्चात् कहा, 'ब्राह्मण ! माता-पिता की सेवा ही मेरी तपस्या है, इस तप का बल देखिये। इसी के प्रभाव से मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी, जिससे मैं यह जान गया कि आप उस पतिव्रता स्त्री के कहने से यहाँ आये हैं। जिस सती ने आपको यहाँ भेजा है, वह अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से वास्तव में ये सभी बातें जानती है। अब मैं आपके हित के लिये कुछ बातें बताता हूँ। आपने वेदों का स्वाध्याय करने के लिये माता-पिता की आज्ञा लिये बिना गृहत्याग किया है, इससे उन दोनो का तिरस्कार हुआ है और यह आपके लिेये अत्यन्त अनुचित कार्य है। आपके शोक से वे दोनो बूढ़े माता-पिता अंधे हो गये हैं; जाइये, उन्हें प्रसन्न कीजिये। ऐसा करने में आपका धर्म नष्ट नहीं होगा। आप तपस्वी महात्मा और धर्मानुरागी हैं। किन्तु माता-पिता की सेवा के बिना ये सब व्यर्थ है। आप शीघ्र जाकर उन्हें प्रसन्न कीजिये। ब्राह्मण बोला---धर्मात्मन् ! यह मेरा बड़ा सौभाग्य था, जो मैं यहाँ आया और तुम्हारा सत्संग प्राप्त हुआ। तुम्हारे समान धर्म का तत्व समझनेवाले लोग इस संसार में दुर्लभ हैं।प्रथम तो हजारों मनुष्यों में कोई विरला ही ऐसा है, जो धर्म का तत्व जानता हो; पर वह भी प्रायः मिलता नहीं। आज मैं तुमपर सत्य के कारण बहुत प्रसन्न हूँ। अब मैं तुम्हारे कहने के अनुसार माता-पिता की सेवा करूँगा।जिसका अंतःकरण शुद्ध नहीं है, वह धर्म-अधर्मका निर्णय नहीं कर सकता। ब्राह्मण के पूछने पर व्याध ने बताया कि 'मैं पूर्व जन्म में ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण था; संगदोष से मेरे द्वारा कुछ ऐसा कर्म बन गया, जिससे मुझे ऋषि का शाप प्राप्त हुआ। उसी शाप से मुझे व्याध होना पड़ा है। ब्राह्मण ने कहा---शूद्र होने पर भी मैं तुम्हे ब्राह्मण ही मानता हूँ। जो ब्राह्मण होकर भी पापी, दम्भी और असन्मार्ग पर चलनेवाला है, वह शूद्र के ही समान है। इसके विपरीत जो शूद्र होकर भी शम, दम, सत्य तथा धर्म का सदा पालन करता है उसे मैं ब्राह्मण ही मानता हूँ, क्योंकि मनुष्य सदाचार से ही ब्राह्मण होता है।तुम ज्ञानवान हो, बुद्धिमान हो इसलिये कृतार्थ हो। अब मैं जाने के लिये तुम्हारी अनुमति चाहता हूँ। ब्राह्मण ने धर्मव्याध की प्रदक्षिणा की और वहाँ से चल दिया। युधिष्ठिर बोले---मुनिवर ! आपने धर्म के विषय में यह बहुत ही अद्भुत उपाख्यान सुनाया है। इससे इतना सुख मिला है कि बहुत सा समय भी एक क्षण के मान बीत गया।

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