Sunday 15 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन से युद्ध करने के विषय में कौरव महारथियों में विवाद

अर्जुन से युद्ध करने के विषय में कौरव महारथियों में विवाद
इस भीषण शब्द को सुनकर कौरव सेना में द्रोणाचार्य ने कहा--- वह मेघगर्जन के समान जो रथ की भीषण घरघराहट सुनाई दे रही है, जिससे पृथ्वी भी कम्प होने लगा है---इससे जान पड़ता है कि अर्जुन के सिवा कोई और नहीं है। देखो, हमारे शस्त्रों की कान्ति फीकी पड़ गयी है, घोड़े भी प्रसन्न नहीं जान पड़ते और अग्निहोत्रों की अग्नियाँ भी प्रकाशहीन सी हो रही हैं ; इससे जान पड़ता है कि कोई अच्छा परिणाम नहीं होगा। योद्धाओं के मुख निस्तेज और मन उदास दिखायी देते हैं। अतः हम गौओं को हस्तिनापुर भेजकर व्यूहरचना करके खड़े हो जायँ। अब राजा दुर्योधन ने भीष्म, द्रोण और महारथी कृपाचार्य से कहा---मैने और कर्ण ने आचार्य से यह बात कई बार कही है और फिर भी कहता हूँ, पाण्डवों से हमारी यह बात ठहरी थी कि जूए में हारने के बाद उन्हें बारह वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा तथा एक वर्ष तक किसी नगर या वन में अज्ञातवास करना पड़ेगा। अभी इनका तेरहवाँ वर्ष पूरा नहीं हुआ है, और यदि उसके पूरे होने के पहले ही अर्जुन हमारे सामने आ गया है तो पाण्डवों को बारह वर्ष तक फिर से वन मं रहना पड़ेगा। इस बात का निर्णय पितामह भीष्म कर सकते हैं। इसके सिवा एक बात यह भी है कि इस रथ में बैठकर चाहे मत्स्यराज विराट आया हो, चाहे अर्जुन, हमें तो सबसे लड़ना ही है। ऐसी ही हमारी प्रतिज्ञा भी है। फिर ये भीष्म, द्रोण, कृप, विकर्ण और अश्त्थामा आदि महारथी इस प्रकार निरुत्साह होकर क्यों बैठे हैं ? इस समय सभी महारथी घबराये से दिखायी देते हैं। किंतु युद्ध के सिवा और कोई बात हमारे लिये हितकर नहीं है, इसलिये आप सब अपने मन को उत्साहित रखें। यदि देवराज इन्द्र और स्वयं यमराज भी संग्राम करके हमसेोधन छीन ले तो ऐसा कौन है जो हस्तिनापुर लौटकर जाना चाहेगा ? दुर्योधन की यह बात सुनकर कर्ण ने कहा---आपलोग आचार्य द्रोण को सेना के पीछे रखकर युद्ध की नीति का विधान करें। देखिये न, अर्जुन को आते देखकर ये उसकी प्रशंसा करने लगे हैं। इससे हमारी सेना पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? इसलिये ऐसी नीति से काम लेना चाहिये, जिससे हमारी सेना में फूट न पड़े। जिस समय ये अर्जुन के घोड़ों की हिनहिनाहट सुनेंगे, उसी समय इनके घबराने से सारी सेना अव्यवस्थित हो जायगी। इस समय हम विदेश में हैं और बड़े भारी जंगल में पड़े हुए हैं; इसलिये ऐसी नीति का आश्रय लेना चाहिये, जिससे हमारी सेना घबराहट में न पड़े। आचार्य तो दयालु, बुद्धिमान और हिंसा से विरुद्ध विचारवाले हुआ करते हैं। जब कोई बड़ा संकट आ पड़े तो किसी प्रकार की सलाह नहीं लेनी चाहिये। पण्डितों की शोभा तो मनोरम महलों में, सभाओं में और बगीचों में चित्र-विचित्र कथाएँ सुनने में ही है। अथवा बलिवैश्वदेवादि द्वारा अन्न का संस्कार करने में तथा कीटादि गिर जाने से उसके दूषित हो जाने पर भी पण्डितों की सम्मति काम दे सकती है। अतः शत्रु की प्रशंसा करनेवाले इन पण्डित लोगों को पीछे की ओर रखकर ऐसी नीति का आश्रय लो, जिससे शत्रु का नाश हो। सब गौओं को बीच में खड़ी कर लो। उसके चारों ओर व्यूहरचना कर दो तथा रक्षकों को नियुक्त करके रणक्षेत्र की संभाल रखो, जहाँ से कि हम शत्रुओं से युद्ध कर सकें। मैं पहले प्रतिज्ञा कर ही चुका हूँ। उसके अनुसार आज संग्रामभूमि में अर्जुन को मारकर दुर्योधन का अक्षय ऋण चुका दूँगा। यह सुनकर कृपाचार्य ने कहा---कर्ण ! युद्ध के विषय में तुम्हारी नीति सदा ही बड़ी कड़ी रहती है। तुम न तो कार्य के स्वरूप पर ध्यान देते हो और न उसके परिणाम का विचार करते हो। विचार करने पर तो यही समझ में आता है कि हमलोग अर्जुन से लोहा लेने में समर्थ नहीं हैं। देखो, उसने अकेले ही चित्रसेन गन्धर्व के सेवकों को युद्ध करके समस्त कौरवों की रक्षा की थी तथा अकेले ही अग्निदेव को तृप्त किया था। जब किरातवेष में भगवान् शंकर उसके सामने आये तो उनसे भी उसने अकेले ही युद्ध किया था। निवातकवच और कालकेय दानवों को तो देवता भी नहीं दबा सके थे। उन्हें भी उस युद्ध में अकेले ही मारा था। अर्जुन ने तो अकेले ही अनेक राजाओं को अपने अधीन कर लिया था, तुम्ही बताओ, तुमने भी अकेले रहकर ऐसी कोई करतूत करके दिखायी है ? अर्जुन के साथ युद्ध करने की सामर्थ्य तो इन्द्र में भी नहीं है, तुम जो उसके साथ भिड़ने की बात कह रहे हो, इससे मालूम होता है तुम्हारा मस्तिष्क ठिकाने नहीं है। इसकी तुम्हे दवा करानी चाहिये। हाँ, द्रोण, दुर्योधन, भीष्म, तुम, अश्त्थामा और हम---सब मिलकर अर्जुन का सामना करेंगे; तुम अकेले ही उससे भिड़ने का साहस मत करो। इसके बाद अश्त्थामा ने कहा---अभी तो हमने गौओं को जीता भी नहीं है और न हम मत्स्यराज की सीमा पर ही पहुँचे हैं, हस्तिनापुर भी अभी बहुत दूर है, फिर तुम ऐसे बढ़-चढ़कर बातें क्यों बनाते हो ? दुर्योधन तो बड़ा ही क्रूर और निर्लज्ज है; नहीं तो जूए में राज्य जीतकर भला, किस क्षत्रिय को संतोष होगा ? अतः तुमने जिस प्रकार जूआ खेला था, इन्द्रप्रस्थ को जीता था और द्रौपदी को बलात् सभा में बुलाया था, उसी प्रकार अब अर्जुन के साथ संग्राम करना। अरे ! काल, पवन, मृत्यु और बड़वानल जब कोप करते हैं तो कुछ-न-कुछ शेष छोड़ देते हैं; किन्तु अर्जुन तो कुपित होने पर कुछ भी बाकी नहीं छोड़ता। अतः जिस प्रकार तुमन् ध्यूतसभा में शकुनि की सलाह से जूआ खेला था, उसी प्रकार तुम मामाजी की देख-रेख में अर्जुन से लड़ लो। भाई ! और कोई भी वीर युद्ध करे, मैं तो अर्जुन से लड़ूँगा नहीं। यदि गौएँ लेने के लिये मत्स्यराज विराट आया तो उससे मैं अवश्य युद्ध करूँगा। फिर भीष्मपितामह बोले---अश्त्थामा और कृपाचार्य का विचार बहुत ठीक है। कर्ण तो क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध करने पर ही तुला हुआ है। किसी भी समझदार आदमी को आचार्य द्रोण पर दोष नहीं लगाना चाहिये। और जब अर्जुन हमारे सामने आ गया है तो आपस में विरोध करने का यह अवसर तो है ही नहीं। आचार्य कृप, द्रोण और अश्त्थामा को भी इस समय क्षमा ही करना चाहिये। बुद्धिमानों ने सेना से सम्बन्ध रखनेवाले जितने दोष बताये हैं, उनमें आपस की फूट सबसे बढ़कर है। दुर्योधन ने कहा---आचार्यचरण ! इस समय क्षमा करें और शान्ति रखें। यदि इस समय गुरुदेव के चित्त में कोई अन्तर न आया, तभी हमारे आगे का काम बनना सम्भव है। तब कर्ण, भीष्म और कृपाचार्य के सहित दुर्योधन ने आचार्य द्रोण से क्षमा करने की प्रार्थना की। इससे शान्त होकर द्रोणाचार्य ने कहा, 'शान्तनुनन्दन भीष्म ने जो बात कही है, मैं तो उसे सुनकर ही प्रसन्न हो गया था। अच्छा, अब युद्ध की नीति का विधान करो। दुर्योधन को पाण्डवों के तेरहवें वर्ष के पूरे होने में संदेह है, किन्तु ऐसा हुए बिना अर्जुन कभी हमारे सामने नहीं आता। दुर्योधन ने इस विषय में कई बार शंका की है। अतः भीष्मजी इस विषय में ठीक निर्णय करके बताने की कृपा करें। इसपर भीष्म ने कहा---कला, काष्ठा, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, नक्षत्र, ग्रह, ऋतु और संवत्सर---ये सब मिलकर एक कालचक्र बने हुए है। यह कालचक्र कलाकाष्ठादि के विभागपूर्वक घूमता रहता है। उनमें सूर्य और चन्द्रमा नक्षत्रों को लाँघ जाते हैं तो काल की कुछ वृद्धि हो जाती है। इसी से हर पाँचवे वर्ष दो महीने बढ़ जाते हैं। इसलिये मेरा ऐसा विचार है कि पाण्डवों को अब तेरह वर्ष से पाँच महीने और बारह दिन का समय अधिक हो गया है। पाण्डवों ने जो-जो प्रतिज्ञाएँ की थी, उनका ठीक-ठीक पालन किया है। इस समय इस अवधि का भी अच्छी तरह निश्चय करके ही अर्जुन हमारे सामने आया है। ये सभी बड़े महात्मा तथा धर्म और अर्थ के मर्मज्ञ हैं। भला, युधिष्ठिर जिनके नेता हैं वे धर्म के विषय में कोई चूक कैसे कर सकते हैं ? पाण्डवलोग निर्लोभ हैं, उन्होंने बड़ा दुष्कर कर्म किया है; इसलिये वे राज्य को किसी भी नीतिविरुद्ध उपाय से लेना नहीं चाहेंगे। पराक्रमपूर्वक राज्य लेने में तो वे वनवास के समय भी समर्थ थे, परन्तु धर्मपाश में बँधे होने के कारण वे क्षात्रधर्म से विचलित नहीं हुए। इसलिेये जो ऐसा कहेगा कि अर्जुन मिथ्याचारी है उसे मुँह की खानी पड़ेगी। पाण्डवलोग मौत को गले लगा लेंगे किन्तु असत्य वो कभी नहीं अपनायेंगे। साथ ही उनमें ऐसी वीरता भी है कि समय आने पर उनका जो हक होगा, उसे वे वज्रधर इन्द्र से सुरक्षित होने पर भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिये राजन् युद्धोचित अथवा धर्मोचित कोई भी काम शीघ्र ही करो, क्योंकि अब अर्जुन समीप ही आ गया है। दुर्योधन ने कहा---पितामह ! पाण्डवों को राज्य तो मैं दूँगा नहीं; अतः अब तो युद्ध के लिये तैयारी करनी हो, वही शीघ्र करो। भीष्म बोले---इस विषय में मेरा जैसा विचार है, वह सुनो। तुम तो चौथाई सेना लेकर हस्तिनापुर की ओर चले जाओ। दूसरा चौथाई भाग गौओं को लेकर चला जाय। शेष आधी सेना के साथ हम अर्जुन का मुकाबला करेंगे। अर्जुन युद्ध के लिये आ रहा है; अतः मैं द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्त्थामा और कृपाचार्य उससे यु्द्ध करेंगे। पीछे यदि राजा विराट और स्वयं इन्द्र भी आवेगा तो, जैसे तट समुद्र को रोके रहता है इसी प्रकार मैं उसे रोक लूँगा। महात्मा भीष्म की यह बात सभी को अच्छी लगी। फिर कौरवराज दुर्योधन ने वैसा ही किया। भीष्म ने पहले तो दुर्योधन और गौओं को विदा किया। उसके बाद मुख्य-मुख्य सेनानियों की व्यवस्था करके व्यूहरचना आरम्भ की। उन्होंने कहा, 'द्रोणजी ! आप तो बीच में खड़े होइये, अश्त्थामा बायीं ओर रहे, मतिमान् कृपाचार्य सेना के दाहिने पार्श्व की रक्षा करें, कर्ण कवच धारण करके सेना के आगे खड़े हों, और मैं सारी सेना के पीछे रहकर उसकी रक्षा करूँगा।

No comments:

Post a Comment