Sunday 29 May 2016

विराटपर्व---दुर्योधन की पराजय, कौरवसेना का मोहित होना और कुरुदेश को लौटना

दुर्योधन की पराजय, कौरवसेना का मोहित होना और कुरुदेश को लौटना
जब भीष्मजी संग्राम का मुहाना छोड़कर रण से बाहर हो गये,  उस समय दुर्योधन अपने रथ की पताका फहराता तथा गरजता हुआ हाथ में धनुष ले धनंजय के ऊपर चढ़ आया। उसने कान तक धनुष खींचकर अर्जुन के ललाट में बाण मारा; वह बाण ललाट में धँस गया और उसे गरम-गरम रक्त की धारा बहने लगी। इससे अर्जुन का क्रोध बढ़ गया और वह विषाग्नि के समान तीखे बाणों से दुर्योधन को बींधने लगा। इस प्रकार अर्जुन दुर्योधन को और दुर्योधन अर्जुन को बींधते हुए आपस में युद्ध करने लगे। तत्पश्चात् अर्जुन ने एक बाण मारकर दुर्योधन की छाती छेद दी और उसे घायल कर दिया। फिर उन्होंने कौरवों के मुख्य-मुख्य योद्धाओं को मार भगाया। योद्धाओं को भागते देख दुर्योधन ने भी अपना रथ पीछे लौटाया और युद्ध से भागने लगा। अर्जुन ने देखा दुर्योधन का शरीर घायल हो गया है और वह मुँह से रक्त वमन करता हुआ बड़ी तेजी के साथ भागा जा रहा है; तब उसने युद्ध की इच्छा से अपनी भुजाएँ ठोंककर दुर्योधन को ललकारते हुए कहा---'धृतराष्ट्रनन्दन ! युद्ध में पीठ दिखाकर क्यों भागा जा रहा है, अरे ! इससे तेरी विशाल कीर्ति नष्ट हो रही है। तेरे विजय के बाजे पहले जैसे बजते थे, वैसे अब नहीं बज रहे हैं ! तूने जिसे राज्य से उतार दिया है, उन्हीं धर्मराज युधिष्ठिर का आज्ञाकारी यह मध्यम पाण्डव अर्जुन युद्ध के लिये खड़ा है, जरा पीछे फिरकर मुँह तो दिखा। राजा के कर्तव्य का तो स्मरण कर। वीर पुरुष दुर्योधन ! अब आगे-पीछे तेरा कोई रक्षक नहीं दिखायी देता, इसलिये भाग जा और इस पाण्डव के हाथ से अपने प्यारे प्राणों को बचा ले।' इस प्रकार युद्ध में महात्मा अर्जुन के ललकारने पर अंकुश की चोट खाये हुए मस्त गजराज के समान दुर्योधन लौट पड़ा। अपने क्षत-विक्षत शरीर को किसी तरह संभालकर उसे पुनः युद्ध में आते देख कर्ण उत्तर ओर से उसकी रक्षा करता हुआ अर्जुन के मुकाबले में आ गया। पश्चिम से उसकी रक्षा करने के लिये भीष्मजी धनुष चढ़ाये लौट आये। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विविंशति और दुःशासन अपने बड़े-बड़े धनुष लिये शीघ्र ही आये। दिव्य अस्त्र धारण किये हुए उन योद्धाओं ने अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया और जैसे  बादल पहाड़ के ऊपर सब ओर से पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे उसपर बाणों की वर्षा करने लगे। अर्जुन ने अपने शस्त्र छोड़कर शत्रुओं के अस्त्रों का निवारण कर दिया और कौरवों को लक्ष्य करके सम्मोहन नामक अस्त्र प्रकट किया, जिसका निवारण होना कठिन था। इसके बाद उसने भयंकर आवाज करनेवाले अपने शंख को दोनो हाथों से थामकर उच्च स्वर से बजाया। उसकी गम्भीर ध्वनि से दिशा-विदिशा, भूलोक तथा आकाश गूँज उठे। अर्जुन के बजाते हुए उस शंख की आवाज सुनकर कौरव वीर बेहोश हो गये, उनके हाथों से धनुष और बाण गिर पड़े तथा वे सभी परम शान्त---निष्चेष्ट हो गये। उन्हें अचेत हुए देख अर्जुन को उत्तरा की बात का स्मरण हो आया; अतः उसने उत्तर से कहा---'राजकुमार ! जबतक इन कौरवों को होश नहीं होता, तबतक ही तुम सेना के बीच से निकल जाओ और द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के श्वेत, कर्ण के पीले तथा अश्त्थामा एवं दुर्योधन के नीले वस्त्र लेकर लौट आओ। मैं समझता हूँ, पितामह भीष्मजी सचेत हैं, क्योंकि वे इस सम्मोहनास्त्र को निवारण करना जानते हैं। इसलिये उनके घोड़ों को अपनी बायीं ओर छोड़कर जाना; क्योंकि जो होश में है, उससे इसी प्रकार सावधान होकर चलना चाहिये।' अर्जुन के ऐसा कहने पर विराटकुमार उत्तर घोड़ों की बागडोर छोड़कर रथ से कूद पड़ा और महारथियों के वस्त्र ले पुनः शीघ्र ही उसपर आ बैठा। तदनन्तर वह रथ हाँककर अर्जुन को युद्ध के घेरे से बाहर ले चला। इस प्रकार अर्जुन को जाते देख भीष्मजी उसे बाणों से मारने लगे। तब अर्जुन ने भी उनके घोड़ों को मारकर उन्हें भी दस बाणों से बींध दिया; इसके बाद सारथि के भी प्राण ले लिये। फिर उन्हें युद्धभूमि में छोड़कर वह रथियों के समूह से बाहर आ गया। उस समय बादलों से प्रकट हुए सूर्य की भाँति उसकी शोभा हुई। उसके बाद सभी कौरव वीर धीरे-धीरे होश में आ गये। दुर्योधन ने जब देखा कि अर्जुन युद्ध के घेरे से बाहर होकर अकेले खड़ा है, तो वह भीष्मजी से घबरहट के साथ बोला---'पितामह ! यह आपके हाथ से कैसे बच गया ? अब भी इसका मान-मर्दन कीजिये, जिससे छूटने न पावे।' भीष्म ने हँसकर कहा---'कुरुराज ! जब तू अपने विचित्र बाणों और धनुष को त्यागकर यहाँ अचेत पड़ा हुआ था, उस समय तेरी बुद्धि कहाँ थी, पराक्रम कहाँ चला गया था ? अर्जुन कभी निर्दयता का व्यवहार नहीं कर सकता, उसका मन कभी पापाचार में प्रवृत नहीं होता; वह त्रिलोकी के राज्य के लिये भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकता। यही कारण है कि उसने इस युद्ध में भी हम सब लोगों के प्राण नहीं लिये। अब तू शीघ्र ही कुरुदेश को लौट चल, अर्जुन भी गौओं को जीतकर लौट जायगा। मोहवश अब अपने स्वार्थ का भी नाश न कर; सबको अपने लिये हितकर कार्य ही करना चाहिये।' पितामह के हितकारी वचन सुनकर दुर्योधन को अब इस युद्ध में किसी लाभ की आशा न रही। वह भीतर-ही-भीतर अत्यन्त अमर्ष का भार लिये लम्बी साँसें भरता हुआ चुप हो गया। अन्य योद्धाओं को भी भीष्म का कथन हितकर प्रतीत हुआ। युद्ध करने से तो अर्जुन रूपी अग्नि उत्तरोत्तर प्रज्जवलित होती जाती थी, इसलिये दुर्योधन की रक्षा करते हुए सबने लौट जाने की राय पसंद की। कौरव वीरों को लौटते देख अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपने पितामह शान्तनुनन्दन भीष्म और आचार्य द्रोण के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया तथा अश्त्थामा, कृपाचार्य और अन्यान्य माननीय कुरुवंशियों को बाणों की विचित्र रीति से नमस्कार किया। फिर एक बाण मारकर दुर्योधन के रत्नजटित मुकुट को काट डाला। इस प्रकार माननीय वीरों का सत्कार कर उसने गाण्डीव धनुष की टंकार से जगत् को गुंजायमान कर दिया। इसके बाद सहसा देवदत्त नामक शंख बजाया, जिसे सुनकर शत्रुओं का दिल दहल गया। उस समय अपने रथ की सुवर्णमालामण्डित ध्वजा से समस्त शत्रुओं का तिरस्कार करके अर्जुन विजयोल्लास से सुशोभित हो रहा था। जब कौरव चले गये तो अर्जुन ने प्रसन्न होकर उत्तर से कहा---'राजकुमार ! अब घोड़ों को लौटाओ; तुम्हारी गौओं को हमने जीत लिया और शत्रु भाग गये; इसलिये अब आनन्दपूर्वक अपने नगर की ओर चलो।' कौरवों का अर्जुन के साथ होनेवाला यह अद्भुत युद्ध देखकर देवतालोग बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये।

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