Monday 13 June 2016

विराटपर्व---उत्तर का अपने नगर में प्रवेश, स्वागत तथा विराट के द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार एवं क्षमा प्रार्थना

उत्तर का अपने नगर में प्रवेश, स्वागत तथा विराट के द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार एवं क्षमा प्रार्थना
इस प्रकार उत्तम दृष्टि रखनेवाला अर्जुन संग्राम में करवों को जीतकर विराट का वह महान् गोधन लौटाकर ले आया। जब धृतराष्ट्र के पुत्र इधर-उधर सब दिशाओं में भाग गये, उसी समयबहुत से कौरवों के सैनिक, जो घने जंगल में छिपे हुए थे, निकलकर डरते-डरते अर्जुन के पास आये। वे भूखे-प्यासे और थके माँदे थे; परदेश में होने के कारण उनकी विकलता और भी बढ़ गयी थी। उन्होंने प्रणाम करके अर्जुन से कहा---'कुन्तीनन्दन ! हमलोग आपके किस आज्ञा का पालन करें ?' अर्जुन ने कहा---तुमलोगों का कल्याण हो। डरो मत, अपने देश को लौट जाओ। मैं संकट में पड़े हुए को नहीं मारना चाहता। इस बात के लिये तुमलोगों को पूरा विश्वास दिलाता हूँ। वह अभयदानयुक्त वाणी सुनकर वहाँ आये हुए सभी योद्धाओं ने आयु, कीर्ति तथा यश देनेवाले आशीर्वादों से अर्जुन को प्रसन्न किया। उसके बाद अर्जुन ने उत्तर को हृदय से लगाकर कहा---'तात ! यह तो तुम्हे मालूम ही हो गया है कि तुम्हारे पिता के पास पाण्डव निवास करते हैं; परन्तु अपने नगर में प्रवेश करके तुम पाण्डवों की प्रशंसा न करना, नहीं तो तुम्हारे पिता डरकर प्राण त्याग देंगे।'  उत्तर बोला---'सव्यसाचिन् ! जबतक आप इस बात को प्रकाशित करने के लिये स्वयं मुझसे नहीं कहेंगे, तबतक पिताजी के निकट आपके विषय में कुछ भी नहीं कहूँगा।' तदनन्तर, अर्जुन पुनः श्मशानभूमि में आया और उसी शमीवृक्ष के पास आकर खड़ा हुआ। उसी समय उसके रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ अग्नि के समान तेजस्वी विशालकाय वानर भूतों के साथ ही आकाश में उड़ गया। इसी प्रकार जो माया थी, वह भी विलीन हो गयी। फिर रथ पर सिंह के चिह्नवाली राजा विराट की ध्वजा चढ़ा दी गयी और अर्जुन के सब शस्त्र , गाण्डीव धनुष तथा तरकस पुनः शमीवृक्ष में बाँध दिये गये। तत्पश्चात् महात्मा अर्जुन सारथि बनकर बैठा और उत्तर रथी बनकर आनन्दपूर्वक नगर की ओर चला। अर्जुन ने पुनः चोटी गूँथक धारण कर ली और बृहनल्ला वेष में होकर घोड़ों की बागडोर संभाली। रास्ते में जाकर उसने उत्तर से कहा---'राजकुमार ! अब इन ग्वालों को आज्ञा दो कि शीघ्र ही नगर में जाकर प्रिय समाचार सुनावें और तुम्हारी विजय की घोषणा करें।'  अर्जुन की बात मानकर उत्तर ने तुरत ही दूतों को आज्ञा दी---'तुमलोग नगर में पहुँचकर खबर दो कि शत्रु हारकर भाग गये, अपनी विजय हुई और गौएँ जीतकर वापस लायी गयीं है।' सेनापति राजा विराट ने भी दक्षिण दिशा से गौओं को जीतकर चारों पाण्डवों को साथ लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ नगरमें प्रवेश किया। उसने संग्राम में त्रिगर्तों पर विजय पायी थी। जिस समय अपनी सब गौएँ साथ लेकर पाण्डवों सहित वहाँ पदार्पण किया, उस समय उनकी विजयश्री से  अपूर्व शोभा हो रही थी। राजसभा में पहुँचकर उसने सिंहासन को सुशोभित किया; उसे देखकर सुहृद-संबंधियों को बड़ा हर्ष हुआ। सब लोग पाण्डवों के साथ मिलकर राजा की सेवा करने लगे। इसके बाद राजा विराट ने पूछा---'कुमार उत्तर कहाँ गया है ?' इसे उत्तर में रनिवास में रहनेवाली स्त्रियों और कन्याओं ने निवेदन किया---'महाराज ! आपके युद्ध में चले जाने पर कौरव यहाँ आये और गौओं को हरकर ले जाने लगे। तब कुमार उत्तर क्रोध में भर गया और अत्यन्त साहस के कारण अकेले ही उन्हे जीतने चल दिया। साथ में सारथि के रूप में बृहनल्ला है। कौरवों की सेना में भीष्म, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणाचार्य और अश्त्थामा---ये छः महारथी आये हैं।' विराट ने जब सुना कि 'मेरा पुत्र अकेले बृहनल्ला को सारथि बनाकर केवल एक रथ साथ में ले कौरवों से यु्द्ध करने गया है' तो उसे बड़ा दुःख हुआ और अपने रधान मंत्रियों से बोला---'मेरे जो योद्धा त्रिगर्तों के साथ युद्ध में घायल न हुए हों, वे बहुत सी सेना साथ लेकर उत्तर की रक्षा के लिये जायँ।' सेना को जाने की आज्ञा देकर उसने पुनः मंत्रियों से कहा---'पहले शीघ्र इस बात का पता लगाओ कि कुमार जीवित है या नहीं। जिसका सारथि एक हिजड़ा है, उसके अबतक जीवित रहने की संभावना ही नहीं है।' राजा विराट को दुःखी देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने हँसकर कहा---'राजन् ! यदि बृहनल्ला सारथि है तो विश्वास कीजिये, आपका पुत्र समस्त राजाओं, कौरवों तथा देवता,  असुर, सिद्ध और यक्षों को भी युद्ध में जीता जा सकता है।' इतने में उत्तर के भेजे हुए दूत विराटनगर में आ पहुँचे और उन्होंने उत्तरकुमार की विजय का समाचार सुनाया। उसे सुनकर मंत्री ने राजा के पास आकर कहा---'महाराज ! उत्तर ने सब गौओं को जीत लिया, कौरव हार गये और कुमार अपने सारथि के साथ कुशलपूर्वक आ रहे हैं।' युधिष्ठिर बोले---'यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गौएँ जीतकर वापस लायी गयीं और कौरव हारकर भाग गये। किन्तु इसमें आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है; जिसका सारथि बृहनल्ला हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है।' पुत्र की विजय का समाचार सुनकर राजा विराट के हर्ष का ठिकाना न रहा। उनके शरीर में रोमांच हो आया। दूतों को इनाम देकर उन्होंने मंत्रियों को आज्ञा दी कि 'सड़कों के किनारे विजय पताका फहरानी चाहिये। फूलों तथा नाना प्रकार की सामग्रियों से देवताओं की पूजा होनी चाहिये। सब कुमार और प्रधान-प्रधान योद्धा गाजे-बाजे के साथ मेरे पुत्र की अगवानी में जायँ। तथा एक आदमी हाथी पर बैठकर घंटा बजाते हुए सारे नगर में मेरी विजय का समाचार सुनावे। राजा की इस आज्ञा को सुनकर समस्त नगरनिवासी, सौभाग्यशाली तरुणी स्त्रियाँ तथा सूत-मागध आदि मांगलिक वस्तुएँ हाथ में ले गाजे-बाजे के साथ विराटकुमार उत्तर को लेने के लिये आगे गये। इन सबको भेजने के पश्चात् राजा विराट बड़े प्रसन्न होकर बोले---'सैरन्ध्री ! जा, पासे ले आ; कंकजी ! अब जूआ आरम्भ करना चाहिये।' यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा---'मैने सुना है, अत्यन्त हर्ष से भरे हुए चालाक खिलाड़ी के साथ जूआ नहीं खेलना चाहिये। आप भी आज आनन्दमग्न हो रहे हैं, अतः आपके साथ खेलने का साहस नहीं होता। भला, आप जूआ क्यों खेलते हैं ? इसमें तो बहुत से दोष हैं। जहाँ तक सम्भव हो, इसका त्याग ही कर देना उचित है। आपने युधिष्ठिर को देखा होगा, अथवा उनका नाम तो सुना ही होगा; वे अपना विशाल साम्राज्य तथा भाइयों को भी जूए में हार गये थे। इसीलिये मैं जूए को पसंद नहीं करता। तो भी आपकी विशेष इच्छा हो तो खेलेंगे ही।' जूआ का खेल आरम्भ हो गया। खेलते-खेलते विराट ने कहा--- 'देखो, आज मेरे बेटे ने उन प्रसिद्ध कौरवों पर विजय पायी है।' युधिष्ठिर ने कहा---'बृहनल्ला जिसका सारथि हो वह भला, युद्ध क्यों नहीं जीतेगा ?' यह उत्तर सुनते ही राजा कोप में भरकर बोले---'अधम ब्राह्मण ! तू मेरे बेटे की प्रशंसा एक हिजड़े के साथ कर रहा है ? मित्र होने के कारण मैं तेरे इस अपराध को क्षमा करता हूँ; किन्तु यदि जीवित रहना चाहता है, तो फिर कभी ऐसी बात न कहना।' राजा युधिष्ठिर ने कहा---'राजन् ! जहाँ द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्त्थामा, कर्ण, कृपाचार्य और दुर्योधन आदि महारथी युद्ध करने को आये हों, वहाँ बृहनल्ला के सिवा दूसरा कौन है जो उनका मुकाबला कर सके। जिसके समान किसी मनुष्य का बाहुबल न हुआ है न आगे होने की आशा है, जो देवता, असुर और मनुष्यों पर भी विजय पा चुका है, ऐसे वीर को सहायक पाकर उत्तर क्यों न विजयी होगा ?' विराट ने कहा---'अनेकों बार मना किया, किन्तु तेरी जुबान बंद न हुई ! सच है, यदि कोई दण्ड  देनेवाला न रहे तो मनुष्य धर्म का आचरण नहीं कर सकता !' यह कहते-कहते राजा कोप से अधीर हो गया और पासा उठकर उसने युधिष्ठिर के मुँह पर दे मारा। फिर डाँटते हुए कहा---'अब फिर कभी ऐसा न करना।' पासा जोर से लगा। युधिष्ठिर की नाक से रक्त निकलने लगा। उसकी बूँद पृथ्वी पर पड़ने के पहले ही युधिष्ठिर ने अपने दोनो हाथों से उसे रोक लिया और पास ही खड़ी हुई द्रौपदी को देखा। द्रौपदी अपने पति का अभिप्राय समझ गयी। वह जल से भरा हुआ एक सोने का कटोरा ले आयी और उसमें वह सब रक्त उसने ले लिया। तदनन्तर राजकुमार उत्तर ने नगर में बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रवेश किया। विराटनगर के स्त्री पुरुष तथा आस-पास के प्रान्त के लोग भी उसकी अगवानी में आये थे; सबने कुमार का स्वागत सत्कार किया। इसे बाद राजभवन के द्वार पहुँचकर उसने पिता के पास समाचार भेजा। द्वारपाल ने दरबार में जाकर विराट से कहा---'महाराज ! बृहनल्ला के साथ राजकुमार उत्तर ड्योढ़ी पर खड़े हैं।' इस शुभसंवाद से राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने द्वारपाल से कहा---'दोनो को शीघ्र ही भीतर लिवा लाओ, मैं उनसे मिलने को उत्सुक हूँ।' इसी समय युधिष्ठिर ने द्वारपाल के कान में धीरे से जाकर कहा---"पहले सिर्फ उत्तर को यहाँ ले आना, बृहनल्ला को नहीं; क्योंकि उसने यह प्रतीज्ञा कर रखी है कि 'जो संग्राम के सिवा कहीं अन्यत्र मेरे शरीर में घाव कर देगा या रक्त निकाल देगा, उसका प्राण ले लूँगा।' मेरे बदन में रक्त देखकर वह क्रोध में भर जायगा और उस दशा में वह विराट को उनकी सेना, सवारी तथा मंत्रियों सहित मार डालेगा।" तत्पश्चात् पहले उत्तर ने ही सभाभवन में प्रवेश किया। आते ही पिता के चरणों में सिर झुकाया, फिर कंक को भी प्रणाम किया। उसने देखा, 'कंकजी के नासिका से रक्त बह रहा है औरवे एकान्त में भूमि पर बैठे हुए हैं, साथ ही सैरन्ध्री उनकी सेवा में उपस्थित है।' तब उसने बड़ी उतावली के साथ अपने पिता से पूछा---'राजन् ! इन्हे किसने मार दिया ? किसने यह पाप कर डाला ?' विराट ने कहा---'मैने ही इसे मारा है, यह बड़ा कुटिल है; इसका जितना आदर किया जाता है, उतने के योग्य यह कदापि नहीं है। देखो न, जब तुम्हारे शौर्य की प्रशंसा की जाती है, उस समय यह उस हिजड़े की तारीफ करने लगता है।' उत्तर बोला---'महाराज ! आपने बहुत बुरा काम किया; इन्हें जल्दी प्रसन्न कीजिये, नहीं तो ब्राह्मण का क्रोध आपको समूल नष्ट कर देगा।' बेटे की बात सुनकर राजा विराट ने कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर से क्षमा-याचना की। राजा को क्षमा माँगते देख युधिष्ठिर बोले---'राजन् ! क्षमा का व्रत तो मैने चिरकाल से ले रखा है, मुझे क्रोध आता ही नहीं। मेरी नाक से निकला हुआ यह रक्त यदि पृथ्वी पर गिर पड़ता तो इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य के साथ ही तुम्हारा विनाश हो जाता; इसीलिये रक्त को मैने गिरने नहीं दिया था।' जब युधिष्ठिर का लोहू निकलना बन्द हो गया, तब बृहनल्ला ने भी भीतर पहुँचकर विराट और कंक को प्रणाम किया। विराट ने अर्जुन के सामने ही उत्तर की प्रशंसा शुरु की---'कैकेयीनन्दन ! तुम्हे पाकर आज मैं वास्तव में पुत्रवान् हूँ। तुम्हारे जैसा पुत्र न तो हुआ और न होने की संभावना है। बेटा ! जो एक साथ एक हजार निशाना मारने में भी कभी नहीं चूकता उस कर्ण के साथ, इस जगत्में जिनकी बराबरी करनेवाला कोई है ही नहीं उन भीष्मजी के साथ तथा कौरवों के आचार्य द्रोण, अश्त्थामा और योद्धाओं को कँपा देनेवाले कृपाचार्य के साथ तुमने कैसे मुकाबला किया ? तथा दुर्योधन के साथ भी तुम्हारा किस प्रकार युद्ध हुआ ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ।' उत्तर ने कहा---महाराज ! यह मेरी विजय नहीं है। यह सब काम एक देवकुमार ने किया है। मैं तो डरकर भागा आ रहा था, किन्तु उस देवपुत्र ने मुझे लौटाया और स्वयं ही उसने रथ पर बैठकर गौओं को जीता और कौरवों को हराया है। उसी न कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्त्थामा, कर्ण और दु्योधन---इन छः महारथियों को बाण मारकर रणभूमि से भगाया है। उसी ने उनकी सारी सेना को हराकर हँसते-हँसते उनके वस्त्र भी छीन लिये। विराट बोले---'वह महाबाहु वीर देवपुत्र कहाँ है ? मैं उसे देखना चाहता हूँ।' उत्तर ने कहा---'वह तो वहीं अन्तर्धान हो गया, कल परसों तक यहाँ प्रकट होकर दर्शन देगा।' उत्तर का यह संकेत अर्जुन के ही विषय में था, पर नपुंसक वेष में छिपे होने के कारण विराट उसे न पहचान सका। उनकी आज्ञा से बृहनल्ला ने वे सब कपड़े, जो युद्ध में लाये गये थे, राजकुमारी उत्तरा को दे दिये। उन बहुमूल्य एवं रंग-बिरंगे वस्त्रों को पाकर उत्तरा बहुत प्रसन्न हुई। इसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के प्रकट होने के विषय में उत्तर से सलाह करके उसके अनुसार कार्य किया।

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