Wednesday 29 June 2016

उद्योगपर्व---नहुष की इन्द्रपदप्राप्ति, उसका इन्द्राणी पर आसक्त होना और इन्द्राणीका अवधि माँगकर अश्वमेध यज्ञद्वारा इन्द्र को शुद्ध करना

नहुष की इन्द्रपदप्राप्ति, उसका इन्द्राणी पर आसक्त होना और इन्द्राणीका अवधि माँगकर अश्वमेध यज्ञद्वारा इन्द्र को शुद्ध करना
युधिष्ठिर ! जब सब देवता और ऋषियों ने कहा कि 'इस समय राजा नहुष बड़ा प्रतापी है, उसी को देवताओं के राजपद पर अभिषिक्त करो। वह बड़ा ही यशस्वी, तेजस्वी और धार्मिक है। ' यह सलाह करके उन सबने नहुष के पास जाकर कहा कि 'आप हमारे राजा हो जाइये।' तब नहुष ने कहा, 'मैं बहुत दुर्बल हूँ। आपलोगों की रक्षा करने योग्य मुझमें शक्ति नहीं है।' ऋषि और देवताओं ने कहा, 'राजन् ! देवता, दानव, यक्ष, ऋषि, राक्षस, पितृगण, गन्धर्व और भूत---ये सब आपकी दृष्टि के सामने खड़े रहेंगे। आप इन्हें देखकर ही इनका तेज लेकर बलवान् हो जायेंगे। आप धर्म को आगे रखते हुए संपूर्ण लोकों के स्वामी बन जाइये तथा स्वर्गलोक में रहकर ब्रह्मर्षि और देवताओं की रक्षा कीजिये।' ऐसा कहकर उन्होंने स्वर्गलोक में नहुष का राज्याभिषेक कर दिया। इस प्रकार वह संपूर्ण लोकों का स्वामी हो गया। किंतु इस दुर्लभ वर और स्वर्ग के राज्य को पाकर पहले निरंतर धर्मपरायण रहने पर भी वह भोगी हो गया। वह समस्त देवोद्यानों में, नन्दनवन में तथा कैलाश और हिमालय आदि पर्वतों के शिखरों पर तरह-तरह की क्रीड़ाएँ करने लगा। इससे उसका मन दूषित हो गया।एक दिन वह क्रीड़ा कर रहा था, उसी समय उसकी दृष्टि देवराज की भार्या साध्वी इन्द्राणी पर पड़ी। उसे देखकर वह दुष्ट अपने सभासदों से कहने लगा, 'मैं देवताओं का राजा और संपूर्ण लोकों का स्वामी हूँ। फिर इन्द्र की महिषी देवी इन्द्राणी मेरी सेवा के लिये क्यों नहीं आतीं ? आज तुरंत ही शची को मेरे महल में आना चाहिये। नहुष की बात सुनकर देवी इन्द्राणी के चित्त में चोट लगी और उसने बृहस्पतिजी से कहा, 'ब्रह्मन् ! मैं आपकी शरण हूँ, आप नहुष से मेरी रक्षा करें। आपने मुझे कई बार अखण्ड सौभाग्यवती, एक की पत्नी और पतिव्रता का वचन दिया है; अतः आप अपनी वह वाणी सत्य करें। तब बृहस्पतिजी ने भय से व्याकुल इन्द्राणी से कहा, 'देवी ! मैने जो-जो कहा है वह अवश्य सत्य होगा। तुम नहुष से मत डरो। मैं सत्य कहता हूँ, तुम्हे शीघ्र ही इन्द्र से मिला दूँगा। इधर जब नहुष को मालूम हुआ कि इन्द्राणी बृहस्पतिजी की शरण में गयी है तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसे क्रोध में भरा देखकर देवता और ऋषियों ने कहा, 'देवराज ! क्रोध को त्यागिये, आप जैसे सत्पुरुष क्रोध नहीं किया करते। इन्द्राणी परस्त्री है अतः आप उसे क्षमा करें। आप अपने मन को परस्त्रीगमन-जैसे पाप से दूर रखें; आखिर आप देवराज हैं, अतः अपनी प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करें। भगवान् आपका मंगल करे। ऋषियों ने नहुष को बहुत समझाया, किन्तु कामसक्त होने के कारण उसने उनकी एक न सुनी। तब वे बृहस्पतिजी के पास गये और उनसे बोले, 'देवर्षिश्रेष्ठ !  हमने सुना है कि इन्द्राणी आपकी शरण में आयी है और आप ही के भवन में है तथा आपने उसे अभयदान दिया है। परन्तु हम देवता और ऋषिलोग आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप उसे नहुष को दे दीजिये।' देवता और ऋषियों के इस प्रकार कहने पर देवी इन्द्राणी के नेत्रों में आँसू भर आये और वह दीनतापूर्वक रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी, 'ब्रह्मण ! मैं नहुष को पतिरूप में स्वीकार करना नहीं चाहती; मैं आपकी शरण में हूँ, आप इस महान् भय से मेरी रक्षा करें।' बृहस्पतिजी ने कहा, 'इन्द्राणी ! मेरा यह निश्चय है कि मैं शरणागत का त्याग नहीं कर सकता। अनन्दिते ! तू धर्म को जाननेवाली और सत्यशीला है, इसलिये मैं तुझे नहीं त्यागूँगा।' फिर देवताओं से कहा, "मैं धर्मविधि को जानता हूँ, मैने धर्मशास्त्र का श्रवण किया है और सत्य में मेरी निष्ठा है, इसलिये मैं कोई न करने योग्य काम नहीं कर सकता। आपलोग जाइये, मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा। इस विषय में ब्रहमाजी ने पूर्वकाल में कुछ वचन कहे हैं, उन्हें सुनिये---"जो भयभीत होकर शरण में आये हुए व्यक्ति को शत्रु के हाथ में दे देता है, उसका बोया हुआ बीज समय पर नहीं उगता, उसकी रक्षा की आवश्यकता होने पर भी कोई रक्षक नहीं मिलता। ऐसा दुर्बलचित्त मनुष्य जो अन्न प्राप्त करता है , वह व्यर्थ हो जाता है। उसकी चेतनाशक्ति नष्ट हो जाती है, वह स्वर्ग से गिर जाता है और देवतालोग उसके समर्पित हव्य को ग्रहण नहीं करते।' इस प्रकार ब्रह्माजी के कथनानुसार शरणागत के त्याग से होनेवाले अधर्म को जानते हुए मैं इन्द्राणी को नहुष के हाथ में नहीं दे सकता। आपलोग कोई ऐसा उपाय करें, जिससे इसका और मेरा दोनो का ही हित हो।" तब देवताओं ने इन्द्राणी से कहा---'देवी ! यह स्थावर-जंगम सारा जगत् एक तुम्हारे ही आधार से टिका हुआ है। तुम पतिव्रता एवं सत्यनिष्ठा हो। एक बार नहुष के पास चलो। तुम्हारी कामना करने से वह पापी शीघ्र ही नष्ट हो जायगा और देवराज शक्र भी अपना ऐश्वर्य प्राप्त करेंगे। अपनी कार्यसिद्धि के लिये ऐसा निश्चय करके इन्द्राणी अत्यन्त संकोचपूर्वक नहुष के पास गयी। उसे देखकर देवराज नहुष ने कहा, 'शुचिस्मिते ! मैं तीनों लोकों का स्वामी हूँ। इसलिये सुन्दरी ! तुम मुझे पतिरूप में वर लो।' नहुष के ऐसा कहने पर पतिव्रता इन्द्राणी भय से व्याकुल होकर काँपने लगी। उसने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी को नमस्कार किया और  देवराज नहुष से कहा, 'सुरेश्वर ! मैं आपसे कुछ अवधि माँगती हूँ। अभी यह मालूम नहीं है कि देवराज शक्र कहाँ गये हैं और वे फिर लौटकर आवेंगे कि नहीं। इसकी ठीक-ठीक खोज करने पर यदि उनका पता न लगा तो मैं आपकी सेवा करने लगूँगी।' नहुष ने कहा, 'सुन्दरी ! तुम जैसा कहती हो वैसा ही सही। अच्छा शक्र का पता लगा लो। किन्तु देखो, अपने इन सत्य वचनों को याद रखना।' इसके पश्चात् नहुष से विदा होकर इन्द्राणी बृहस्पतिजी के घर आयी। इन्द्राणी की  बात सुनकर अग्नि आदि देवता इकट्ठे होकर इन्द्र के विषय में विचार करने लगे। फिर वे देवाधिदेव भगवान् विष्णु से मिले और उनसे व्याकुल होकर कहा, 'देवेश्वर ! आप जगत् के स्वामी तथा हमारे आश्रय और पूर्वज हैं ! आप समस्त प्राणियों के रक्षा के लिये ही विष्णुरूप में स्थित हुए हैं। भगवन् ! आपके तेज से वृतासुर का विनाश हो जाने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या ने घेर लिया है। आप उससे छूटने का उपाय बताइये।' देवताओं की यह बात सुनकर विष्णु भगवान् ने कहा, 'इन्द्र अश्वमेध यज्ञ द्वारा मेरा ही पूजन करे, मैं उसे ब्रह्महत्या से मुक्त कर दूँगा। इससे वह सब प्रकार के भय से छूटकर फिर देवताओं का राजा हो जायगा और दुष्टबुद्धि नहुष अपने कुकर्म से नष्ट हो जायगा।' भगवान् विष्णु की वह सत्य, शुभ और अमृतमयी वाणी सुनकर देवतालोग ऋषि और उपाध्यायों के सहित उस स्थान पर गये, जहाँ भय से व्याकुल इन्द्र छिपे हुए थे। वहाँ इन्द्र की शुद्धि के लिये अश्वमेध महायज्ञ आरम्भ हुआ। उन्होंने ब्रह्महत्या को विभक्त करके उसे वक्ष, नदी, पर्वत, पृथ्वी और स्त्रियों में बाँट दिया। इससे इन्द्र निष्पाप और निःशोक हो गये। किन्तु जब वे अपना स्थान ग्रहण करने के लिये आये तो उन्होंने देखा कि नहुष देवताओं के वर के प्रभाव से दुःसह हो रहा है तथा अपनी दृष्टि से ही वह समस्त प्राणियों के तेज को नष्ट कर देता है। यह देखकर वे भय से काँप उठे और वहाँ से फिर चले गये, तथा अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते हुए सब जीवों से अदृश्य रहकर विचरने लगे।

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