इन्द्र की बतायी हुई
युक्ति से नहुष का पतन तथा इन्द्र का पुनः देवराज पर प्रतिष्ठित होना
युधिष्ठिर ! इन्द्र के चले जाने से इन्द्राणी पर फिर शोक के बादल मंडराने लगे। वह
अत्यन्त दुःखी होकर 'हा इन्द्र ! ऐसा कहकर विलाप करने लगी और कहने लगी, 'यदि मैने दान
किया हो, हवन किया हो और गुरुजनों को अपनी सेवा से संतुष्ट रखा हो तथा मुझमें सत्य
हो तो मेरा पातिव्रत्य अविचल रहे, मैं कभी किसी अन्य पुरुष की ओर न देखूँ। मैं उत्तरायण
की अधिष्ठात्री रात्रिदेवी को प्रणाम करती हूँ। वे मेरा मनोरथ सफल करें।' फिर उसे एकाग्रचित्त
होकर रात्रिदेवी उपश्रुति की उपासना की और यह प्रार्थना की कि 'जहाँ पर देवराज हों,
वह स्थान मुझे दिखाइये।' इन्द्राणी की यह प्रार्थना सुनकर उपश्रुति देवी मूर्तिमति
होकर प्रकट हो गयीं। उन्हें देखकर इन्द्राणी को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनका पूजन
करके कहा, 'देवी ! आप कौन हैं ? आपका परिचय पाने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।' उपश्रुति
ने कहा, 'देवी ! मैं उपश्रुति हूँ। तुम्हारे सत्य के प्रभाव से ही मैं तुम्हे दर्शन
देने के लिये आयी हूँ। तुम पतिव्रता और यम-नियम से मुक्त हो, मं तुम्हे देवराज इन्द्र
के पास ले चलूँगी। तुम जल्दी से मेरे पीछे-पीछे चली आओ, तुम्हे देवराज के दर्शन हो
जायेंगे।' फिर उपश्रुति के चलने पर इन्द्राणी उने पीछे हो ली तथा देवताओं के वन, अनेकों पर्वत तथा हिमालय को लाँघकर एक दिव्य सरोवर पर पहुँची। उस सरोवर मे
एक अति सुन्दर विशाल कमलिनी थी। उसे एक ऊँची नालवाले गौरवर्ण महाकमल ने घेर रखा था।
उपश्रुति ने उस कमल के नाल को फाड़कर उसमें इन्द्राणी के सहित प्रवेश किया और वहाँ एक
तन्तु में इन्द्र को छिपे हुए पाया। तब इन्द्राणी ने पूर्वकर्मों का उल्लेख करते हुए
इन्द्र की स्तुति की। इसपर इन्द्र ने कहा, 'देवी ! तुम यहाँ कैसे आयी हो और तुम्हे
मेरा पता कैसे लगा ?' तब इन्द्राणी ने उन्हें नहुष की बातें सुनायी और अपने साथ चलकर
उसका नाश करने की प्रार्थना की।' इन्द्राणी के इस प्रकार कहने पर इन्द्र ने कहा, 'देवी
! इस समय नहुष का बल बढ़ा हुआ है, ऋषियों ने हव्य कव्य देकर उसे बहुत बढ़ा दिया है। इसलिये
यह पराक्रम करने का समय नहीं है। मैं तुम्हे एक यु्क्ति बताता हूँ, इसके अनुसार काम
करो। तुम एकांत में जाकर नहुष से कहो कि 'तुम ऋषियों से अपनी पालकी उठवाकर मेरे पास
आओ तो मैं प्रसन्न होकर तुम्हारे अधीन हो जाऊँगी।"' देवराज के ऐसा कहने पर शची
'जो आज्ञा' ऐसा कहकर नहुष के पास गयी। उसे देखकर नहुष ने मुस्कराकर कहा, 'कल्याणी
! तुम खूब आयीं। कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम विश्वास करो, मैं सत्य की
शपथ करके कहता हूँ कि मैं तुम्हारी बात अवश्य मानूँगा।' इन्द्राणी ने कहा, 'जगत्पते
! मैने आपसे जो अवधि माँगी है, मैं उसके बीतने के प्रतीक्षा में हूँ। परन्तु मेरे मन
में एक बात है, आप उसपर विचार कर लें। यदि आप मेरी यह प्रेमभरी बात पूरी कर देंगे तो
मैं अवश्य आपके अधीन हो जाऊँगी। राजन् ! मेरी इच्छा है कि ऋषिलोग आपस में मिलकर आपको
पालकी में बैठाकर मेरे पास लावें।' नहुष ने कहा---'सुन्दरी ! तुमने तो मेरे लिये यह
बड़ी ही अनूठी सवारी बतायी है, ऐेसे वाहन पर तो कोई नहीं चढ़ा होगा। यह मुझे बहुत पसंद
आया है। मुझे तो तुम अपने अधीन ही समझो। अब सप्तर्षि और ब्रह्मर्षि मेरी पालकी लेकर
चलेंगे।' ऐसा कहकर राजा नहुष ने इन्द्राणी को विदा कर दिया और अत्यन्त कामासक्त होने
के कारण ऋषियों से पालकी उठवाने लगा। इधर शची ने बृहस्पति के पास जाकर कहा, 'नहुष ने
मुझे जो अवधि दी थी वह थोड़ी ही शेष रह गयी है। अब आप शीघ्र ही शक्र की खोज कराइये।
मैं आपकी भक्त हूँ, आप मेरे ऊपर कृपा करें।' तब बृहस्पतिजी ने कहा, 'ठीक है, तुम दुष्टचित्त
नहुष से किसी प्रकार भय मत मानो। वह नराधम महर्षियों से अपनी पालकी उठवाता है ! इसे
धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं है ! इसलिये अब इसे गया ही समझो। ह बहुत दिन इस स्थान में
नहीं टिक सकता। तुम तनिक भी मत डरो, भगवान् तुम्हारा मंगल करेंगे।' इसके पश्चात् महा
तेजस्वी बृहस्पतिजी ने अग्नि प्रज्जवलित करके शास्त्रानुसार उत्तम हवि से हवन किया
और अग्निदेव से इन्द्र की खोज करने के लिये कहा। उनकी आज्ञा पाकर अग्निदेव ने ताल-तलैया,
सरोवर और समुद्र में इन्द्र की खोज की। ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते वे उस सरोवर पर पहुँच गये, जहाँ
इन्द्र छिपे हुए थे। वहाँ उन्हें देवराज एक कमल नाल के तंतु में छिपे दिखायी दिये।
तब उन्होंने बृहस्पतिदेव को सूचना दी कि इन्द्र अणुमात्र रूप धारण करकें एक कमलनाल
के तंतु में छिपे हुए हैं। यह सुनकर बृहस्पतिजी देवर्षियों और गन्धर्वों के सहित उस
सरोवर के तट पर आये और इन्द्र के प्राचीन कर्मों का उल्लेख करते हुए उनकी स्तुति करने
लगे। इससे धीरे-धीरे इन्द्र का तेज बढ़ने लगा और वे अपना पूर्वरूप धारण करके शक्तिसम्पन्न
हो गये। उन्होंने बृहस्पतिजी से कहा, 'कहिये, अब आपका कौन कार्य शेष है ? महादैत्य
विश्वरूप तो मारा ही गया और विशालकाय वृत्रासुर का भी अन्त हो गया।' बृहस्पितिजी ने
कहा, 'देवराज ! नहुष नाम का एक मानव राजा देवता और ऋषियों के तेज से बढ़कर उनका अधिपति
हो गया है। वह हमें बहुत ही तंग करता है। तुम उसका नाश करो।' राजन् ! जिस समय बृहस्पतिजी
इन्द्र से ऐसा कह रहे थे, उसी समय वहाँ कुबेर, यम, चन्द्रमा और वरुण भी आ गये और सब
देवता देवराज इन्द्र से मिलकर नहुष के नाश का उपाय सोचने लगे। इतने में ही वहाँ परम
तेजस्वी अगस्त्यजी दिखायी दिये। उन्होंने इन्द्र का अभिनन्दन करके कहा, 'बड़ी प्रसन्नता
की बात है कि विश्वरूप और वृत्रासुर का वध हो जाने से आपका अभ्युदय हो रहा है। आज नहुष
भी देवाज पद से भ्रष्ट हो गया। इससे भी मुझे बड़ी प्रसन्नता है।' तब इन्द्र ने अगस्त्य
मुनि का स्वागत-सत्कार किया और जब वे आसन पर विराजमान हो गये तो उनसे पूछा, 'भगवन्
! मैं यह जानना चाहता हूँ कि पापबुद्धि नहुष का पतन किस प्रकार हुआ ? अगस्त्यजी ने
कहा, देवराज ! दुष्टचित्त नहुष जिस प्रकार स्वर्ग से गिरा है, वह प्रसंग मैं सुनाता
हूँ; सुनिये। महाभाग देवर्षि और ब्रह्मर्षि पापात्मा नहुष की पालकी उठाये चल रहे थे।
उस समय ऋषियों के साथ उसका विवाद होने लगा और अधर्म बुद्धि बिगड़ जाने के कारण उसने
मेरे मस्तक पर लात मारी। इससे उसकी तेज और कान्ति नष्ट हो गयी। तब मैने उससे कहा,
'राजन् ! तुम प्राचीन महर्षियों के चलाये और आचरण किये हुए कर्म पर दोषारोपण करते हो,
तुमने ब्रह्मा के समान तेजस्वी ऋषियों से अपनी पालकी उठवायी है और मेरे सिर पर लात
मारी है; इसलिये तुम पुण्यहीन होकर पृथ्वी पर गिरो।' अब तुम दस हजार वर्षों तक अजगर
का रूप धारण करे भटकोगे और इस अवधि के समाप्त होने पर फिर स्वर्ग प्राप्त करोगे।' इस
प्रकार मेेरे शाप से वह दुष्ट इन्द्रपद से च्युत हो गया है, अब आप स्वर्गलो में चलकर
सब लोकों का पालन कीजिये।' तब देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर अग्निदेव, बृहस्पिति,
यम, वरुण, कुबेर, समस्त देवगण तथा गन्धर्व और अप्सराओं के सहित देवलोक को चले गये।
वहाँ इन्द्राणी से मिलकर वे अत्यन्त आनन्दपूर्वक सब लोकों का पालन करने लगे। इसी समय
वहाँ भगवान् अंगिरा पधारे। उन्होंने अथर्ववेद के मंत्रों से देवराज का पूजन किया। इससे
इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें यह वर दिया कि 'आपने अथर्ववेद का गान किया है, इसलिये
इस वेद में आप अथर्वांगिरा नाम से विख्यात होंगे और यज्ञ का भाग भी प्राप्त करेंगे।'
इस प्रकार अथर्वांगिरा ऋषि का सत्कार कर उन्हें इन्द्र ने विदा किया। फिर वे समस्त
देवता और तपोधन ऋषियों का सत्कार कर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे।
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