संजय के प्रति भगवान्
श्रीकृष्ण के वचन
भगवान् श्रीकृष्ण ने
कहा----संजय ! जिस प्रकार मैंपाण्डवों को विनाश से बचाना चाहता हूँ, उसी प्रकार अनेकों
पुत्र से युक्त राजा धृतराष्ट्र के अभ्युदय की शुभ कामना करता हूँ। मेरी एकमात्र इच्छा यही है कि दोनों पक्ष शान्त रहें।
राजा युधिष्ठिर को भी शान्ति ही प्रिय है, यह बात सुनता हूँ और पाण्डवों के समक्ष इसे
स्वीकार भी करता हूँ। परन्तु संजय ! शान्ति का होना कठिन ही जान पड़ता है;
जब धृतराष्ट्र अपने पुत्रों सहित लोभवश इनका राज्य भी हड़प लेना चाहता है, तो कलह कैसे
नहीं बढ़ेगा ? तुम यह जानते हो कि मुझसे या युधिष्ठिर से धर्म का लोप नहीं हो सकता,
तो भी उत्साह के साथ अपने धर्म का पालन करनेवाले युधिष्ठिर के धर्मलोप की शंका तुम्हे
क्यों हुई ? ये तो पहले से ही शास्त्रिय विधि क अनुसार कुटुम्ब में रह रहे हैं; अपने
राज्यभाग को प्राप्त करने का जो ये प्रयास करते
हैं, इसे तुम धर्म का लोप क्यों बता रहे हो ? इस प्रकार के गार्हस्थ्य जीवन का विधान तो है ही; इसे छोड़कर वनवासी
होने का विचार नहीं होना चाहिये। इस प्रकार के गार्हस्थ्य जीवन का विधान तो है ही, इसे छोड़कर वनवासी होने का विचार
तो तपस्वियों में होना चाहिये। कोई तो गृहस्थधर्म में रहकर कर्मयोग के द्वारा पारलौकिक
सिद्धि का होना मानते हैं, कुछ लोग कर्म को त्यागकर ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि का प्रतिपादन
करते हैं, परन्तु खाये-पिये बिना किसी की भी भूख नहीं मिट सकती। इसी से ब्रह्मदेवता
ज्ञानी के लिये भी गृहस्थों के घर का भिक्षा का विधान है; ज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्म
अच्छिन्न हो जाता है, बन्धनकारक नहीं होता। संजय ! तुम तो संपूर्ण लोकों का धर्म जानते
हो, फिर भी कौरवों के लिये तुम क्यों हठ कर रहे हो ? राजा युधिष्ठिर शास्त्रों का सदा स्वाध्याय करते हैं,
अश्वमेध और राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान भी इन्होंने किया है। इसके सिवा धनुष, कवच, हाथी,
घोड़े, रथ और शस्त्र आदि से भी भली-भाँति सम्पन्न हैं। पाण्डव स्वधर्मानुसार कर्तव्य
का पालन करते रहे और क्षत्रिय युद्धकर्म में प्रवृत होकर यदि दैववश मृत्यु को भी प्राप्त
हो जायँ तो इनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जायगी। यदि तुम सबकुछ छोड़कर शान्ति धारण करने
को ही धर्म मानते हो तो यह बताओ कि युद्ध करने से राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक पालन होता
है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से ? इस विषय में तुम्हारा कथन सुनना चाहता हूँ। पाण्डवों का जो राज्यभाग
धर्म के साथ उन्हें प्राप्त होना चाहिये, उसे धृतराष्ट्र सहसा हड़प लेना चाहता है। उसके
पुत्र समस्त कौरव भी उसी का साथ दे रहे हैं। कोई भी प्राचीन राजधर्म की ओर दृष्टि नहीं
डालता। लुटेरा छिपे रहकर धन चुरा ले जाय अथवा सामने आकर बलपूर्वक डाका डाले---दोनो
ही दशा में वह निंदा का पात्र है। संजय ! तुम्ही बताओ, दुर्योधन और उन चोर डाकुओं में
क्या अन्तर है ? दुर्योधन तो क्रोध के वशीभूत हो रहा है; उसने जो छल से राज्य का अपहरण
किया है, उसे लोभ के कारण धन मानता है और राज्य को हथियाना चाहता है। किन्तु पाण्डवों
का राज्य तो धरोधर के रूप में रखा गया था, उसे कौरवलोग कैसे पा सकते हैं ? दुर्योधन
ने जिन्हे युद्ध के लिये एकत्रित किया है, वे मूर्ख राजालोग घमंड के कारण मौत के फंदे
में आ फँसे हैं। संजय ! भरी सभा में कौरवों ने जो वर्ताव किया था, उस महान् पापकर्म
पर भी दृष्टि डालो। द्रौपदी जब सभा में लायी गयी, उस समय यदि बालक से बूढ़े तक सभी कौरव
दुःशासन को रोक देते तो मेरा प्रिय कार्य होता। सभा में बहुत से राजा एकत्रित थे, परन्तु
दीनतावश किसी से भी उस अन्याय का विरोध नहीं किया जा सका। केवल विदुरजी ने अपना धर्म
समझकर मूर्ख दु्योधन को मना किया था। संजय ! वास्तव में धर्म को बिना समझे ही तुम इस
सभा में पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को ही धर्म का उपदेश करना चाहते हो ? द्रौपदी ने उस
सभा में जाकर बड़ा दुष्कर कार्य किया, जो कि उसने अपने पतियों को संकट से बचा लिया।
उसे वहाँ कितना अपमान सहना पड़ा ! सभा में वह अपने श्वसुरों के सामने खड़ी थी तो भी उसे
लक्ष्य करके सूतपुत्र कर्ण ने कहा---'याज्ञसेनी ! तेरे लिये अब दूसरी गति नहीं है,
दासी बनकर दुर्योधन के महल में चली जा। तेरे पति तो दावों में हार चुके हैं; अब किसी
दूसरे पति को वर ले।' जब पाण्डव वन में जाने के लिये काला मृगचर्म धारण कर रहे थे,
उस समय दुःशासन ने यह कितनी कड़वी बात कही---'ये सब के सब नपुंसक अब नष्ट हो गये, चिरकाल
के लिये नरक के गर्त में गिर गये।' संजय ! कहाँतक कहें, जूए के समय जितने निंदित वचन
कहे गये थे, वे सब तुम्हे ज्ञात हैं; तो भी इस बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिये मैं
स्वयं हस्तिनापुर चलना चाहता हूँ। यदि पाण्डवों का स्वार्थ नष्ट किये बिना ही कौरवों
के साथ संधि कराने में सफल हो सका तो मैं अपने इस कार्य को बहुत ही पुनीत और अभ्युदयकारी
समझूँगा और कौरव भी मौत के फंदे से छूट जायेंगे। कौरव लताओं के समान हैं और पाण्डव
वृक्ष की शाखा के समान। इन शाखाओं का सहारा लिये बिना लताएँ बढ़ नहीं सकतीं। पाण्डव
धृतराष्ट्र की सेवा के लिये भी तैयार हैं और युद्ध के लिये भी। अब राजा को ज अच्छा
लगे, उसे स्वीकार करें। पाण्डव धर्म का आचरण करनेवाले हैं; यद्यपि ये शक्तिशाली योद्धा
हैं तो भी सन्धि करने को उद्यत हैं। तुम ये सब बातें धृतराष्ट्र को अच्छी तरह समझा
देना।
No comments:
Post a Comment