Monday 11 July 2016

उद्योगपर्व---उपप्ल्व्य में संजय और युधिष्ठिर का संवाद

उपप्ल्व्य में संजय और युधिष्ठिर का संवाद
राजा धृतराष्ट्र के वचन सुनकर संजय पाण्डवों से मिलने के लिये उपप्ल्व्य में गया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने पहले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर को प्रणाम किया, इसके बाद प्रसन्न होकर कहा, 'राजन् ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज अपने सहायकों के साथ आप सकुशल दिखायी दे रहे हैं। अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने आपकी कुशल पूछी है। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव तो कुशलपूर्वक हैं न ? सत्यव्रत का आचरण करनेवाली वीरपत्नी राजकुमारी द्रौपदी तो प्रसन्न हैं न ?  राजा युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुम्हारा स्वागत है, तुमसे मिलकर आज हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। हम अपने भाइयों के साथ यहाँ कुशलपूर्वक हैं। हमारे पितामह भीष्मजी की कुशल कहो, क्या उनका हमलोगों पर पूर्ववत् स्नेहभाव है ? अपने पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र तथा महाराज बाह्लिक तो कुशल से हैं न ? सोमदत्त, भूरिश्रवा, राजा शल्य, पुत्र सहित द्रोणाचार्य और कृपाचार्य---ये प्रधान धनुर्धर भी स्वस्थ हैं न ? राजा युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुम्हारा स्वागत है, तुमसे मिलकर आज बड़ी प्रसन्नता हुई। हम अपने भाइयों के साथ यहाँ कुशलपूर्वक हैं। हमारे पितामह भीष्मजी की कुशल कहो, क्या उनका हमलोगों पर पूर्ववत् स्नेहभाव है ? अपने पुत्रोंसहित राजा धृतराष्ट्र तथा महाराज बाह्लीक तो कुशल से हैं न ? सोमदत्त, भूरिश्रवा, राजा शल्य, पुत्रसहित द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य---ये प्रधान धनुर्धर भी स्वस्थ हैं न ? भरतवंश की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों, माताओं तथा बहुओं को तो कोई कष्ट नहीं है ? रसोई बनानेवाली स्त्रियाँ, दासियाँ, पुत्र, भानजे, बहिनें और धेवते निष्कपट भाव से रहते हैं न ? राजा दुर्योधन पहले की ही भाँति ब्राह्मणों के साथ यथोचित वर्ताव किया या नहीं ? मैने उन्हें जो वृति दी थी, उसको छीनता तो नहीं है ? क्या कभी सब कौरव इकट्ठे होकर धृतराष्ट्र और दुर्योधन को मुझे राज्यभाग देने के लिये कहते हैं ?  राज्य में लुटेरों के दल को देखकर कभी उन्हें अर्जुन की याद आती है ? क्योंकि अर्जुन एक ही साथ इकसठ बाण चला सकता है। भीमसेन भी जब गदा हाथ में लेता है तो उसे देखकर शत्रुसमूह काँप उठता है। ऐसे पराक्रमी भीम का भी वे कभी स्मरण करते हैं ? महाबली एवं अतुल पराक्रमी नकुल-सहदेव को वे भूल तो नहीं गये हैं ? मंदबुद्धि दुर्योधन आदि जब खोटे विचार से घोषयात्रा के लिये वन में गये और युद्ध में पराजित हो शत्रुओं की कैद में आ पड़े, उस समय भीमसेन और अर्जुन ने ही उनकी रक्षा की थी---यह बात उन्हें याद आती है या नहीं ? संजय ! यदि हमलोग दुर्योधन को सर्वथा पराजित न कर सके तो केवल एक बार उसकी भलाई कर देने से उसको वश में करना कठिन ही जान पड़ता है।संजय बोला---पाण्डुनन्दन ! आपने जो कुछ कहा है, बिलकुल ठीक है। जिनकी कुशल आपने पूछी है, वे सभी कुरुश्रेष्ठ सानंद हैं। दुर्योधन तो शत्रुओं को भी दान करता है, फिर ब्राह्मणों को दी हुई वृति कैसे छीन सकता है ? धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को आपसे द्वेष करने की आज्ञा नहीं  देते। वे तो उन्हें द्रोह करते सुनकर मन-ही-मन बहुत संतप्त होते हैं। वे जानते हैं कि 'मित्रद्रोह सब पातकों से भारी पाप है।' युद्ध की चर्चा चलने पर राजा धृतराष्ट्र वीराग्रणी अर्जुन, गदाधारी भीम तथा रणधीर नकुल-सहदेव का सदा ही स्मरण करते हैं। अजातशत्रु ! अब आप ही अपनी बुद्धि से विचार करके कोई ऐसा मार्ग निकालिये जिससे कौरव-पाण्डव तथा कौरववंशियों को सुख मिले। यहाँ जो राजा उपस्थित हैं, उन्हें बुला लीजिये। अपने मंत्रियों और पुत्रों को भी साथ रखिये। फिर आपके चाचा धृतराष्ट्र ने जो संदेश भेजा है उसे सुनिये। युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा राजा विराट मौजूद हैं, पाण्डव और संजय---सब एकत्रित हैं। अब धृतराष्ट्र का संदेश सुनाओ। संजय बोला---राजा धृतराष्ट्र युद्ध नहीं शान्ति चाहते हैं। उन्होंने बड़ी उतावली के साथ रथ तैयार कराकर मुझे यहाँ भेजा है। मैं समझता हूँ, भाई, पुत्र और कुटुम्बीजनों के साथ राा युधिष्ठिर इस बात को पसंद करेंगे। इससे पाण्डवों का हित होगा। कुन्ती के पुत्रों ! आप अपने दिव्य शरीर, नम्रता और सरलता आदि के कारण सब धर्मों एवं उत्तम गुणों से युक्त हैं। उत्तम कुल में आपलोगों का जन्म हुआ है। आप बड़े ही दयालु और दानी हैं। स्वभावतः संकोची, शीलवान् और कर्मों के परिणाम को जाननेवाले हैं। आपका हृदय सत्वगुण से परिपूर्ण है, अतः आपसे किसी खोटे कर्म का होना संभव नहीं है। यदि आपलोगों में कोई दोष होता तो वह प्रकट हो जाता; क्या सफेद वस्त्र में काला दाग छिप सकता है ? जिसके करने में सबका विनाश दिखायी दे, सब प्रकार से पाप का उदय हो और अन्त में नरक का द्वार देखना पड़े, उस युद्ध जैसे कठोर कर्म में कौन समझदार पुरुष प्रवृत हो सकता है ?  वहाँ तो जय और पराजय दोनो समान हैं। भला, कुन्ती के पुत्र अन्य अधम पुरुषों के समान ऐसा कार्य करने के लियेे कैसे तैयार हो गये जो न धर्म का साधक है न अर्थ का। यहाँ भगवान् वासुदेव हैं, सबमें वृद्ध पांचालराज द्रुपद हैं; इन सबको प्रणाम करके मैं प्रसन्न करना चाहता हूँ। हाथ जोड़कर आपलोगों की शरण में आया हूँ; मेरी प्रार्थना पर ध्यान देकर वही कार्य करें, जिससे कौरव और संजयवंश का कल्याण हो। मुझे विश्वास है कि भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन मेरी प्रार्थना ठुकरा नहीं सकते। ऐसा समझकर ही मैं सन्धि के लिये प्रस्ताव करता हूँ। संधि ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुमने ऐसी कौन सी बात सुनी है, जिससे मेरी युद्ध की इच्छा जानकर भयभीत हो रहे हो ? युद्ध करने की अपेक्षा उसे न करना ही अच्छा है। सन्धि का अवसर पाकर भी उससे कौन युद्ध करना चाहेगा ? इस बात को मैं भी समझता हूँ कि बिना युद्ध किये यदि थोड़ा भी लाभ हो तो उसे बहुत मानना चाहिये। संजय ! तुम जानते हो कि हमने वन में कितना क्लेश उठाया है। फिर भी तुम्हारे बात का खयाल करके हम कौरवों का अपराध क्षमा कर सकते हैं। कौरवों ने हमारे साथ जो वर्ताव किया और उस समय उनके साथ हमलोगों का जैसा व्यवहार था, यह भी तुमसे छिपा नहीं है। अब भी सबकुछ वैसा ही हो सकता है। तुम्हारे कथनानुसार हम शान्ति धारण कर लेंगे। किन्तु यह तभी संभव है, जब इन्द्रप्रस्थ ( दिल्ली ) में मेरा ही राज्य रहे और दुर्योधन इस बात को स्वीकार करके वहाँ का राज्य हमें वापस कर दे। संजय बोला---पाण्डुनन्दन ! आपकी प्रत्येक चेष्टा धर्म के अनुसार होती है, यह बात लोक में परसिद्ध है और देखी भी जा रही है। यद्यपि यह जीवन अनित्य है, तथापि इससे महान् सुयश की प्राप्ति हो सकती है---इस बा को सोचकर आप अपनी कीर्ति का नाश न करें।' अजातशत्रो ! यदि कौरव युद्ध किये बिना तुम्हे अपना राज्यभाग न दे सके तो मैं भी अंधक और वृष्णिवंशी राजाओं के भीख माँगकर निर्वाह कर लेना अच्छा समझता हूँ; परन्तु युद्ध करके सारा राज्य पा लेना भी अच्छा नहीं है। मनुष्य का जीवन बहुत थोड़े समय तक रहनेवाला है; वह सदा क्षीण होनेवाला दुःखमय और चंचल है। अतः पाण्डव ! यह नरसंहार तुम्हारे यश के अनुकूल नहीं है; तुम युद्धरूपी पाप में प्रवृत मत होओ। इस जगत् में धन की तृष्णा बंधन में बाँधनेवाली है, उसमें फँसने पर धर्म में बाधा आती है। जो धर्म को अंगीकार करता है, वही ज्ञानी है। भोगों की इच्छा रखनेवाला मनुष्य अर्थसिद्धि से भ्रष्ट हो जाता है। जो ब्रह्मचर्य और धर्माचरण का त्याग करके अधर्म में प्रवृत होता है तथा जो मूर्खता के कारण परलोक पर अविश्वास करता है, वह अज्ञानी मृत्यु के पश्चात् बड़ा कष्ट भोगता है। परलोक में जाने पर भी अपने पहले के किये हुए पुण्य-पापरूपी कर्मों का नाश नहीं होता। पहले तो पाप-पुण्य ही मनुष्य के पीछे चलते हैं, फिर मनुष्य को इनके पीछे चलना पड़ता है। इस शरीर के रहते हुए ही कोई भी सत्कर्म किया जा सकता है, मरने के बाद कुछ नहीं हो सकता। आपने तो परलोक में सुख देनेवाले अनेकों पुण्यकर्म किये हैं, जिनकी सत्पुरुषों ने बड़ी प्रशंसा की है। इतने पर भी यदि आपलोगों को वह युद्धरूपी पापकर्म ही करना है, तब तो चिरराल के लिये आप वन में जाकर रहें---यही अच्छा है। वनवास में दुःख तो होगा, पर है वह धर्म। कुन्तीनन्दन ! आपकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं लगती; आपने क्रोधवश कभी पापकर्म किया हो, ऐसी बात भी नहीं है। फिर बताइये, क्या कारण है जिसे लिये आप अपने विचार के विपरीत कार्य करना चाहते हैं ? युधिष्ठिर ने कहा---संजय ! तुम्हारा यह कहना बिलकुल ठीक है कि सब प्रकार के कर्मों में धर्म ही श्रेष्ठ है। परन्तु मैं जो कार्य करने जा रहा हूँ, यह धर्म है या अधर्म--इसकी पहले खूब जाँच कर लो; फिर मेरी निन्दा करना। कहीं तो अधर्म ही धर्म का चोला पहन लेता है, कहीं पूरा-पूरा धर्म अधर्म के रूप में दिखायी देता है और कहीं धर्म का चोला पहन लेता है, कहीं पूरा पूरा धर्म अधर्म के रूप में दिखायी देता है और कहीं धर्म अपने स्वरूप में ही रहता है। विद्वान लोग अपनी बुद्धि से परीक्षा कर लेते हैं। एक वर्ण के लिये जो धर्म है, वहीं दूसरे के लिये अधर्म है। इस प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म नित्य रहनेवाले हैं, तथापि आपत्तिकाल में इनका अदल-बदल भी होता है। जो धर्म जिसके लिये मुख्य बताया गया है, वह उसके लिेये प्रमाणभूत है। दूसरों के द्वारा उसका व्यवहार तो आपत्तिकाल में ही हो सकता है। आजीविका का साधन सर्वथा नष्ट हो जाने पर जिस वृत्ति का आश्रय लेने से जीवन की रक्षा एवं सत्कर्मों का अनुष्ठान हो सके उसका आश्रय लेना चाहिये। जो आपत्तिकाल न होने पर भी उस समय के धर्म का पालन करता है तथा जो वास्तव में आपत्तिग्रस्त होकर भी तदनुसार जीविका नहीं चलाता---ये दोनो ही निंदा के पात्र हैं। संजय ! इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन है, देवताओं, प्रजापतियों तथा ब्रह्माजी के लोक में भी जो वैभव है, वे सभी मुझे प्राप्त होते हों तो मैं उन्हें अधर्म से लेना नहीं चाहूँगा। जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण हैं; ये समस्त धर्मों के ज्ञाता, कुशल और नीतिवान् हैं। बड़े-बड़े बलवान् राजाओं और भोजवंश का शासन करते हैं। यदि मैं सन्धि का परित्याग अथवा युद्ध करके अपने धर्म से भ्रष्ट हो निन्दा का पात्र बन रहा हूँ, तो ये भगवान् वासुदेव इस विषय में अपने विचार प्रकट करें; क्योंकि इन्हें दोनो पक्षों का हित साधन अभीष्ट है। ये प्रत्येक कर्म का अन्तिम परिणाम जानते हैं, विद्वान हैं; इनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है। व हमा सबसे बढ़कर प्रिय हैं, मैं इनकी बात कभी नहीं टाल सकता।

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