Wednesday 6 July 2016

उद्योगपर्व---द्रुपद के पुरोहित के साथ भीष्म और धृतराष्ट्र की बातचीत

द्रुपद के पुरोहित के साथ भीष्म और धृतराष्ट्र की बातचीत
तदनन्तर वह द्रुपद का पुरोहित धृतराष्ट्र के पास पहुँचा। धृतराष्ट्र, भीष्म और विदुर ने उसका बड़ा सत्कार किया। पुरोहित ने पहले अपने पक्ष का कुशल समाचार कह सुनाया, पीछे उनकी कुशल पूछी। इसके बाद उसने समस्त सेनापतियों के बीच इस प्रकार कहा---'यह बात प्रसिद्ध है कि धृतराष्ट्र और पाण्डु दोनो एक ही पिता के पुत्र हैं; अतः पिता के धन पर दोनो का समान अधिकार है। परन्तु धृतराष्ट्र के पुत्रों को तो उनक पैतृक धन प्राप्त हुआ और पाण्डु के पुत्रों को नहीं मिला---इसका क्या कारण है ? कौरवों ने अनेकों बार कई उपाय करके पाण्डवों के प्राण लेने का उद्योग किया; परन्तु उनकी आयु शेष थी, इसलिये उन्हें यमलोक न भेज सके। इतने कष्ट सहने बाद भी महात्मा पाण्डवों ने अपने बल से राज्य बढ़ाया; किन्तु क्षुद्र विचार रखनेवालों धृतराष्ट्र पुत्रों ने शकुनि के साथ मिलकर छल से वह सारा राज्य छीन लिया। राजा धृतराष्ट्र ने भी इस कर्म का अनुमोदन किया और पाण्डव तेरह वर्ष तक वन में रहने को विवश किये गये। इन सब अपराधों को भूलकर वे अब भी कौरवों के साथ समझौता ही करना चाहते हैं। अतः पाण्डवों और दुर्योधन के वर्ताव पर ध्यान देकर मित्र तथा हितैषियों का यह कर्तव्य है कि वे दुर्योधन को समझावें। पाण्डव वीर हैं तो भी वे कौरवों के साथ युद्ध करना नहीं चाहते।उनकी तो यही इच्छा है कि 'संग्राम में नरसंहार किये बिना ही हमें हमारा भाग मिल जाय।' दुर्योधन जिस लाभ को सामने रखकर युद्ध करना चाहता है, वह सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि पाण्डव कम बलवान् नहीं हैं। युधिष्ठिर के पास भी सात अक्षौहिणी सेना एकत्रित हो गयी है और वह युद्ध के लिये उत्सुक होकर उनकी आज्ञा का बाट जोहती है। इसके सिवा पुरुषसिंह सात्यकि, भीमसेन, नकुल, सहदेव---ये अकेले ही हजारों सेना के बराबर है। एक ओर से ग्यारह अक्षौहिणी सेना आवे और दूसरी ओर अकेला अर्जुन हो तो अर्जुन ही उससे बढ़कर सिद्ध होगा। ऐसे ही महाबाहु श्रीकृष्ण भी हैं। पाण्डवों की सेना की प्रबलता, अर्जुन का पराक्रम और श्रीकृष्ण की बुद्धिमत्ता देखकर भी कौन मनुष्य उने युद्ध करने को तैयार होता ? अतः धर्म और समय का विचार करके आपलोग पाण्डवों को जो देने योग्य भाग्य है, उसे शीघ्र प्रदान करें। अवसर आपके हाथ से चला न जाय, इसका ध्यान रखना चाहिये।' पुरोहित के वचन सुनकर महाबुद्धिमान भीष्मजी ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और यह समयोचित वचन कहा---'ब्रह्मन् ! बड़े सौभाग्य की बात है कि सभी पाण्डव भगवान् श्रीकृष्ण के साथ कुशलपूर्वक हैं। यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि उन्हें राजाओं की सहायता प्राप्त है; साथ ही यह भी आनन्द का विषय है कि वे धर्म में तत्पर हैं। वे पाँचों भाई पाण्डव युद्ध का विचार त्यागकर अपने बन्धुओं से सन्धि करना चाहते हैं, यह तो और भी आनन्द की बात है। वास्तव में किरीटधारी अर्जुन बलवान्, अस्त्रविद्या में निपुण और महारथी है; भला, युद्ध में उसका मुकाबला कौन कर सकता है ? साक्षात् इन्द्र में भी इतनी ताकत नहीं है; फिर दूसरे धनुर्धारियों की तो बात ही क्या है ?  मेरा तो विश्वास है कि वह तीनों लोकों में एकमात्र समर्थ वीर है।' जब भीष्मजी इस प्रकार कह रहे थे, उस समय कर्ण क्रोध में भर गया और धृष्टतापूर्वक उनी बात काटकर कहने लगा---'ब्रह्मन् ! अर्जुन के पराक्रम की बात किसी से छिपी नहीं है। फिर बारम्बा उसे कहने से क्या लाभ ? पहले की बात है। शकुनि ने दुर्योधन के लिये जूए में युधिष्ठिर को हराया था, उस समय वे एक शर्त मानकर वन में गये थे। उस शर्त को पूरा किे बिना ही वे मत्स्य तथा पांचाल देशवालों के भरोसे मूर्ख की भाँति पैतृक सम्पत्ति लेना चाहते हैं।परन्तु दुर्योधन उनके डर से राज्य का चौथाई भाग भी नहीं दे सकते। यदि वे अपने बाप-दादों का राज्य लेना चाहते हैं तो प्रतिज्ञा के अनुसार नियत समय तक पुनः वन में रहें। यदि धर्म छोड़कर लड़ने पर ही उतारू हैं तो इन कौरव वीरों के पास आने पर वे मेरे वचनों को भी भली-भाँति याद करेंगे।' भीष्मजी बोले---राधापुत्र ! मुँह से कहने की क्या आवश्यकता है; एक बार अर्जुन के उस पराक्रम को तो याद कर लो, जब विराटनगर के संग्राम में उसने अकेले ही छः महारथियों को जीत लिया था। तुम्हारा पराक्रम तो उसी समय देखा गया, जबकि अनेकों बार उसके सामने जाकर तुम्हें परास्त होना पड़ा। यदि हमलोग इस ब्राह्मण के कथनानुसार कार्य नहीं करेंगे, तो अवश्य ही युद्ध में पाण्डवों के हाथ से हमें धूल फाँकनी पड़ेगी। भीष्म के ये वचन सुनकर धृतराष्ट्र ने उनका सम्मान किया और उन्हें प्रसन्न करते हुए कर्ण को डाँटकर कहा---'भीष्मजी ने जो कहा है इसी में हमारा और पाण्डवों का हित है। इसी से जगत् का भी कल्याण है। मैं सबके साथ सलाह करके संजय को पाण्डवों के पास भेजूँगा। अब आप शीघ्र ही लौट जाइये।' ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने पुरोहित का सत्कार किया और उन्हें पाण्डवों के पास भेज दिया।

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