Wednesday 6 July 2016

उद्योगपर्व---धृतराष्ट्र और संजय की बातचीत

धृतराष्ट्र और संजय की बातचीत
तदनन्तर धृतराष्ट्र ने संजय को सभा में बुलाकर कहा---'संजय ! लोग कहते हैं कि पाण्डव उपलव्य नामक स्थान में आकर रह रहे हैं। तुम भी वहाँ जाकर उनकी सुध लो। अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदरपूर्वक मिलकर कहना---'बड़े आनन्द की बात है कि आपलोग अब अपन स्थान पर आ गये हैं।' उन सब लोगों से हमारी कुशल कहना और उनकी पूछना। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे, फिर भी वह कष्ट उन्हें भोगना ही पड़ा। इतने पर भी उनका हमलोगों पर क्रोध नहीं है। वास्तव में वे बड़े निष्कपट और सज्जनों का उपकार करनेवाले हैं। संजय ! मैने पाण्डवों को कभी बेईमानी करते नहीं देखा। इन्होंने अपने पराक्रम से लक्ष्मी प्राप्त करके भी सब मेरे अधीन कर दी थी। मैं सदा इनमें दोष ढ़ूँढ़ा करता था; पर कभी कोई भी दोष न पा सका, जिससे इनकी निंदा करूँ। ये समय पड़ने पर धन देकर मित्रों की सहायता करते हैं। प्रवास में भी इनकी मित्रता में कमी नहीं आयी। ये सबका यथोचित आदर-सत्कार करते हैं। दुर्योधन और कर्ण के सिवा इनका कोई भी दूसरा शत्रु नहीं है। सुख और प्रियजनों से बिछुड़े हुए इन पाण्डवों के क्रोध को ये ही दोनो बढ़ाते हैं। मूर्ख दुर्योधन पाण्डवों के जीते जी उनका भाग अपहरण कर लेना सरल समझता  है। जिस युधिष्ठिर के पीछे अर्जुन, श्रीकृष्ण, भीमसेन, सात्यकि, नकुल सहदेव आदि वीर हैं, उनका राज्यभाग युद्ध के पहले ही दे देने में कल्याण है। गाण्डीवधारी अर्जुन अकेले ही रथ में बैठकर सारी पृथ्वी को अपने अधिकार में कर सकता है। इसी प्रकार विजयी और दुर्घर्ष वीर श्रीकृष्ण भी तीनों लोकों के स्वामी हो सकते हैं। भीम के समान गदाधारी और हाथी की सवारी करनेवाला तो कोई है ही नहीं। उसके साथ यदि वैर हुआ तो वह मेरे पुत्रों को जलाकर भष्म कर डालेगा। साक्षात् इन्द्र भी उसे युद्ध में हरा नहीं सकते। माद्रीनन्दन नकुल और सहदेव भी शुद्धचित्त और बलवान् हैं। जैसे दो बाज पक्षियों के समूह को नष्ट करें, उसी प्रकार वे दोनो भाई शत्रुओं को जीवित नहीं छोड़ सकते। पाण्डव पक्ष में जो धृष्टधुम्न नाम का एक योद्धा है, वह बड़े वेग से युद्ध करता है। मत्स्यदेश का राजा विराट भी अपने पुत्रों सहित पाण्डवो का सहायक है; सुना है वह युधिष्ठिर का बड़ा भक्त है। पाण्ड्यदेश का राजा भी बहुत से वीरों के साथ पाण्डवों की सहायता के लिये आया है। सात्यकि तो उनकी अभीष्टसिद्धि में लगा ही हुआ है। "कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा, लज्जाशील और बलवान् हैं। शत्रुभाव तो उन्होंने किसी के प्रति किया ही नहीं। किन्तु दुर्योधन ने उनके साथ भी छल किया है। मुझे तो भय है कहीं वे क्रोध करके मेरे पुत्रों को जलाकर भष्म न कर डालें। मैं राजा युधिष्ठिर के क्रोध से जितना डरता हूँ उतना भय मुझे श्रीकृष्ण, भीम अर्जुन, नकुल और सहदेव से भी नहीं है; क्योंकि युधिष्ठिर बड़े तपस्वी हैं, उन्होंने नियमानुसार ब्रह्मचर्य का पालन किया है। अतः वे अपने मन में जो भी संकल्प करेंगे, वह पूरा होकर ही रहेगा। पाण्डव श्रीकृष्ण से बहुत प्रेम रखते हैं। उन्हें अपने आत्मा के समान मानते हैं। कृषण भी बड़े विद्वान हैं और सदा पाण्डवों के हितसा में लगे रहते हैं। वे यदि सन्धि के लिये कुछ भी कहेंगे तो यधिष्ठिर मान लेंगे, वे उनकी बात नहीं टाल सकते। संजय ! तुम वहाँ मेरी ओर से पाण्डवों और श्रीकृष्ण, सात्यकि विराट एवं द्रौपदी के पाँच पुत्रों की भी कुशल पूछना। फिर राजाओं के मध्य में समयानुसार जो भी उचित हो, बातचीत करना। जिससे भरतवंशियों का हित हो, परस्पर क्रोध या मनमुटाव न बढ़े और युद्ध का कारण भी न उपस्थित होने पावे---ऐसी बात करनी चाहिये।"

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