संजय की धृतराष्ट्र
से भेंट
तदनन्तर राजा युधिष्ठिर
की आज्ञा ले संजय वहाँ से चल दिया। हस्तिनापुर में पहुँचकर वह शीघ्र ही अंतःपुर में
गया और द्वारपाल से बोला---'प्रहरी ! तुम राजा धृतराष्ट्र को मेरे आने की सूचना दे
दो, मुझे उनसे अत्यन्त आवश्यक काम है।' द्वारपाल ने जाकर कहा---'राजन् ! प्रणाम ! संजय
आपसे मिलने के लिेए द्वार पर आये खड़े हैं, पाण्डवों के पास से उनका आना हुआ है; कहिये,
उनके लिये क्या आज्ञा है ?' धृतराष्ट्र ने कहा---संजय को स्वागतपूर्वक भीतर ले आओ; मुझे तो कभी भी उनसे मिलने
में रुकावट नहीं है, फिर वह दरवाजे पर क्यों खड़ा है ? तत्पश्चात् राजा की आज्ञा पाकर
संजय ने उनके महल में प्रवेश किया और सेंहासन पर बैठे हुए राजा के पास जा हाथ जोड़कर
कहा---'राजन् ! मैं संजय आपको प्रणाम करता हूँ। पाण्डवों से मिलकर यहाँ आया हूँ। पाण्डुनन्दन
राजा युधिष्ठिर ने आपको प्रणाम कहा है और कुशल पूछी है। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के
साथ आपके पुत्रों का समाचार पूछा है---आप अपने पुत्र, नाती, मित्र, मंत्री तथा आश्रितों
के साथ आनन्दपूर्वक हैं न ?' धृतराष्ट्र ने कहा--- तात संजय ! धर्मराज अपने मंत्री, पुत्र और भाइयों के साथ कुशल
से तो हैं ? संजय बोला---राजन् ! युधिष्ठिर अपने मंत्रियों के साथ कुशलपूर्वक हैं।
वे अपना राज्यभाग लेना चाहते हैं। वे विशुद्ध भाव से धर्म और अर्थ का सेवन करनेवाले,
मनस्वी,विद्वान् तथा शीलवान् हैं। किन्तु तुम जरा अपने कर्मों की ओर तो दृष्टि डालो। धर्म और अर्थ से युक्त जो श्रेष्ठ पुरुषों का व्यवहार
है, उससे बिलकुल विपरीत तुम्हारा वर्ताव है। इसके कारण इस लोक में तो तुम्हारी निन्दा
हो चुकी, यह पाप परलोक में भी तुम्हारा पिण्ड नहीं छोड़ेगा। तुम अपने पुत्रों के वश
में होकर पाण्डवों के बिना ही सारा राज्य अपने अधीन कर लेना चाहते हो। राजन् ! तुम्हारे
द्वारा पृथ्वी पर बड़ा अधर्म फैलेगा; यह कर्म तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है। बुद्धिहीन,
दुराचारी कुल में उत्पन्न, क्रूर, दीर्घकाल तक वैर रखनेवाले, क्षत्रविद्या में अनिपुण,
पराक्रमहीन और अशिष्ट पुरुषों पर आपत्तियाँ टूट पड़ती हैं। जो सदाचारी कुल में उत्पन्न,
बलवान्, यशस्वी, विद्वान् और जितेन्द्रिय है, वह प्रारब्ध के अनुसार संपत्ति प्राप्त
करता है। तुम्हारे ये मन्त्रीलोग सदा कर्मों में लगे रहकर नित्य एकत्रित हो बैठक किया
करते हैं; इन्होंने पाण्डवों को राज्य न देने का जो प्रबल निश्चय कर लिया है, यह कौरवों
के नाश का ही कारण है। यदि अपने पाप के कारण कौरवों का असमय ही विनाश होनेवाला होगा
तो इसका सारा अपराध युधिष्ठिर तुम्हारे ही सिर पर रखकर इनका विनाश भी करना चाहेंगे।
राजन् ! इस जगत् में प्रिय-अप्रिय, सुख-दुख, निंदा-प्रशंसा---ये मनुष्य को प्राप्त
होते ही रहते हैं। परन्तु निंदा उसी की होती है, जो अपराध करता है तथा प्रशंसा भी उसी
की की जाती है, जिसका व्यवहार बहुत उत्तम होता है। भरतवंश में विरोध फैलाने के कारण
मैं तुम्हारी ही निंदा करता हूँ। इस विरोध के कारण निश्चय ही प्रजाजनों का सत्यानाश
होगा। सारे संसार में इस प्रकार पुत्र के अधीन होते तो मैने तुमको ही देखा है। तुमने
ऐसे लोगों का संग्रह किया है जो विश्वास के योग्य नहीं है; तथा अपने विश्वासपात्रों
को दण्ड दिया गया है। इस दुर्बलता के कारण अब तुम पृथ्वी की रक्षा करने में भी समर्थ
नहीं हो सकते। इस समय रथ के वेग से बहुत हिलने-डुलने के कारण मैं थक गया हूँ; यदि आज्ञा
दो तो बिछौने पर सोने के लिये जाऊँ। प्रातःकाल जब सभी कौरव सभा में एकत्र होंगे, उस
समय अज्ञातशत्रु के वचन सुनना। धृतराष्ट्र ने
कहा---सूतपुत्र ! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम घर पर जाकर शयन करो। सबेरे सभा में ही तुम्हारे
कहे हुए युधिष्ठिर के संदेश को सारे कौरव सुनेंगे।
No comments:
Post a Comment