Tuesday 19 July 2016

उद्योगपर्व---संजय की विदाई, युधिष्ठिर का संदेश

संजय की विदाई, युधिष्ठिर का संदेश
संजय ने कहा---पाण्डुनन्दन ! आपका कल्याण हो। अब मैं जाता हूँ और इसके लिये आपकी आज्ञा चाहता हूँ। मैने मानसिक आवेश के कारण वाणी से जो कुछ कह दिया, इससे आपको कष्ट तो नहीं हुआ ?  युधिष्ठिर बोले---'संजय ! जाओ, तुम्हारा कल्याण हो। तुम तो कभी हमें कष्ट देने की बात सोचते भी नहीं। समस्त कौरव तथा हम पाण्डवलोग जानते हैं कि तुम्हारा हृदय शुद्ध है और तुम किसी के पक्षपाती न होकर मध्यस्थ हो। तुम विश्वसनीय हो, तुम्हारी बातें कल्याणकारी होती है। तुम शीलवान् और संतोषी हो, इसलिये तुम मुझे प्रिय लगते हो। तुम्हारी बुद्धि कभी मोहित नहीं होती; कटुवचन कहने पर भी तुम्हें क्रोध नहीं होता। संजय ! तुम हमारे प्रिय हो और विदुर के समान दूत बनकर आये हो तथा अर्जुन के प्रिय सखा हो। वहाँ जाकर स्वाध्यायशील ब्राह्मणों, सन्यासियों तथा वनवासियों तपस्वियों से और बड़े-बूढ़े लोगों से मेरा प्रणाम कहना। बाकी जो लोग हों, उनसे कुशल समाचार कहना। संजय ! दुर्योधन को तुम यह बात सुना देना---'तुम्हारे हृदय को जो यह कामना पीड़ा देती रहती है कि मैं कौरवों का निष्कंटक राज्य करूँ, सो इसकी सि्धि का कोई उपाय नहीं है। म ऐसे नहीं हैं, जो चुपचाप तुम्हारा यह प्रिय कार्य होने दें। भारत वीर ! या तो तुम इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) का राज्य मुझे दे दो अथवा युद्ध करो।'  संजय !  सज्जन-असज्जन, बालक-बृद्ध, निर्बल तथा बलवान्---सब विधाता के वश में हैं। मेरे सैनिक-बल की जिज्ञासा करने पर तुम सबको मेरी ठीक स्थिति बता देना। फिर राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके मेरी ओर से कुशल पूछना। इसी प्रकार भीष्मपितामह को भी मेरा नाम ले, प्रणाम करना और उनसे कहना---'पितामह ! यह शान्तनु का वंश एक बार डूब चुका था, आप ही ने इसका पुनःउद्धार किया है। अब आप अपनी बुद्धि से विचारकर ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे आपके सभी पौत्र परस्पर प्रेमपूर्वक जीवन धारण कर सके।' इसी प्रका मंत्री विदुरजी से भी कहना---'सौम्य ! आप युद्ध न होने की ही सलाह दें; क्योंकि आप तो सदा युधिष्ठिर का हित चाहनेवाले हैं।' इसे बाद दुर्योधन से भी बार-बार अनुनय-विनय करके कहना---'तुम कौरवों के नाश का कारण न बनो। पाण्डव अत्यन्त बलवान होने पर भी पहले बड़े-बड़े क्लेश सह चुके हैं, यह बात सभी कौरव जानते हैं। तुम्हारी अनुमति से दुःशासन ने जो द्रौपदी का केश पकड़कर जो तिरस्कार किया, इस अपराध का भी हमनें कोई खयाल नहीं किया। किन्तु अब हम अपना उचित भाग लेंगे। तुम दूसों के धन से अपनी लोभयुक्त बुद्धि हटा लो। ऐसा कने से ही शान्ति होगी और परस्पर प्रेम भी बना रहेगा। हम आन्ति चाहते हैं, तुम हमलोगों को राज्य का एक ही हिस्सा दे दो। सुयोधन ! अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और पाँचवाँ कोई भी एक गाँव दे दो, जिससे हमलोगों के युद्ध की समाप्ति हो जाय। हम पाँच भाइयों को पाँच गाँव ही दे दो, जिससे शान्ति बनी रहे।' संजय ! मैं शान्ति रखने में ही समर्थ हूँ और युद्ध करने में भी। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र का भी मुझे पूर्ण ज्ञान है। मैं समयानुसार कोमल भी हो सकता हूँ और कठोर भी।  

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