Friday 24 June 2016

उद्योग-पर्व --श्रीकृष्ण को अर्जुन और दुर्योधन का निमंत्रण तथा उने द्वारा दोनो पक्षों की सहायता

श्रीकृष्ण को अर्जुन और दुर्योधन का निमंत्रण तथा उने द्वारा दोनो पक्षों की सहायता
हस्तिनापुर की ओर पुरोहित को भेजकर फिर पाण्डवों ने जहाँ-तहाँ राजाओं के पास दूत भेजे। इसके बाद श्रीकृष्णचन्द्र को निमंत्रित करने के लिये स्वयं कुन्तीनन्दन अर्जुन द्वारका को गये। दुर्योधन को भी अपने गुप्तचरों द्वारा पाण्डवों की सब चेष्टाओं का पता चल गया। उसे जब मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण विराटनगर से द्वारका जा रहे हैं तो थोड़ी सी सेना के साथ वहाँ पहुँच गया। उसी दिन पाण्डुकुमार अर्जुन भी पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन दोनो वीरों ने श्रीकृष्ण को सोते पाया। तब दुर्योधन शयनागार में जाकर उनके सिरहाने की ओर एक उत्तम सिंहासन पर बैठ गया। उसके पीछे अर्जुन ने प्रवेश किया। वे बड़ी नम्रता से हाथ जोड़े हुए श्रीकृष्ण के चरणों की ओर खड़े रहे। जाने पर भगवान् की दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी। फिर उन्होंने उन दोनो का ही स्वागत सत्कार कर उनसे आने का कारण पूछा। तब दुर्योधन ने हँसते हुए कहा, 'पाण्डवों के साथ हमारा जो युद्ध होनेवाला है, उसमें आपको हमारी सहायता करनी होगी। आपकी तो जैसी अर्जुन से मित्रता है, वैसी ही मुझसे भी है तथा हम दोनो से एक-सा ही संबंध भी है, और आज आया भी पहले मैं ही हूँ। सत्पुरुष उसी का साथ दिया करते हैं, जो पहले आता है; अतः आप भी सत्पुरुषों के आचरण का ही अनुसरण करें। श्रीकृष्ण ने कहा---आप पहले आये हैं---इसमें तो संदेह नहीं, परन्तु मैने पहले देखा अर्जुन को है; अतः आप पहले आये हैं और अर्जुन को मैने पहले देखा है---इसलिये मैं दोनो ही की सहायता करूँगा। मेरे पास एक अरब गोप हैं, वे मेरे ही समान बलिष्ठ हैं और सभी संग्राम में जूझनेवाले हैं। उनका नाम नारायण है। एक ओर तो वे दुर्जय सैनिक रहेंगे और दूसरी ओर मैं स्वयं रहूँगा; किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न शस्त्र ही धारण करूँगा। अर्जुन ! धर्मानुसार पहले तुम्हें चुनने का अधिकार है, क्योंकि तुम छोटे हो, इसलिये दोनों में से तुम्हे जिसे लेना हो, उसे ले लो। श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उन्हीं को लेने की इच्छा प्रकट की। जब अर्जुन ने स्वेच्छा से मनुष्यरूप में अवतीर्ण शत्रुदमन श्रीनारायण को लेना स्वीकार किया तो दुर्योधन ने उनकी सारी सेना ले ली। इसके पश्चात् वह महाबली बलरामजी के पास वह महाबली बलरामजी के पास गया और उन्हें अपने आने का सारा समाचार सुनाया। तब बलदेवजी ने कहा, 'पुरुषश्रेष्ठ ! मैं श्रीकृष्ण के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता; अतः उनका यह रुख देखकर मैने निश्चय कर लिया है कि न तो मैं अर्जुन की सहायता करूँगा और न तुम्हारे साथ ही रहूँगा। बलरामजी के ऐसा कहने पर दुर्योधन ने उनका आलिंगन किया और यह समझकर कि नारायणी सेना लेकर मैने श्रीकृष्ण को ठग लिया है, उसने अपनी ही जीत पक्की समझी। इसके पश्चात् वह कृतवर्मा के पास आया। कृतवर्मा ने उसे एक अक्षौहिणी सेना दी। उस सारी सेना सहित दुर्योधन हर्ष से फूला नहीं समाया। इधर जब दुर्योधन श्रीकृष्ण के महल से चला गया तो भगवान् ने अर्जुन से पूछा, अर्जुन ! मैं तो लड़ूँगा नहीं, फिर तुमने क्या समझकर मुझे माँगा ? अर्जुन ने कहा, 'भगवन् ! मेरे मन में सदा से यह विचार रहता है कि आपको अपना सारथि बनाऊँ। इस विषय में मेरी कई रात्रियाँ निकल गयी हैं। आप इसे पूरा करने की कृपा करें।' श्रीकृष्ण ने कहा, 'अच्छा, तुम्हारी कामना पूर्ण हो, मैं तुम्हारा सारथ्य करूँगा।' यह सुनकर अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे श्रीकृष्ण तथा अन्य दशार्हवंशीय प्रधान पुरुषों के साथ राजा युधिष्ठिर के पास लौट आये।

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