त्रिशिरा और वृत्रासुर के वध का वृतांत तथा इन्द्र का
तिरस्कृत होकर जल में छिप जाना
युधिष्ठिर ने पूछा---राजन्
! इन्द्र और इन्द्राणी को किस प्रकार अत्यन्त घोर दुःख उठाना पड़ा था, यह जानने की मुझे
इच्छा है। शल्य ने कहा---भरतश्रेष्ठ ! सुनो, मैं तुम्हें यह प्राीन इतिहास सुनाता हूँ।
देवश्रेष्ठ त्वष्ठा नाम के एक प्रजापति थे। इन्द्र से द्वेष हो जाने के कारण उन्होंने
एक तीन सिरवाला पुत्र उत्पन्न किया। वह बालक अपने एक मुख से वेदपाठ करता था, दूसरे
से सुधापान करता था और तीसरे से मानो सब दिशाओं को निगल जायगा, इस प्रकार देखता था।
वह बड़ा ही तपस्वी, मृदु, जितेन्द्रिय तथा धर्म और तप में तत्पर था। उसका तप बड़ा ही
तीव्र और दुष्कर था। उस अतुलित तेजस्वी बालक का तपोबल और सत्य देखकर देवराज इन्द्र
को बड़ा खेद हुआ। उन्होंने सोचा कि 'यह इस तपस्या के प्रभाव से इन्द्र न हो जाय। अतः
यह किस प्रकार इस भीषण तपस्या को छोड़कर भोगों में आसक्त हो ?' इसी प्रकार बहुत सोच-विचारकर
उन्होंने उन्हें फँसाने के लिये अप्सराओं को आज्ञा दी। इन्द्र की आज्ञा पाकर अप्सराएँ
त्रिशिरा के पास आयीं और उसे तरह-तरह के भावों से लुभाने लगीं। किन्तु त्रिशिरा अपनी
इन्द्रियों को वश में करके पूर्वसमुद्र ( प्रशान्त महासागर ) के समान अविचल रहे। अन्त
में बहुत प्रयत्न करके अप्सराएँ इन्द्र के पास लौट गयीं और उनसे हाथ जोड़कर कहने लगीं,
'महाराज ! त्रिशिरा बड़ा ही दुर्घर्ष है, उसे धैर्य से डिगाना संभव नहीं है। अब और कुछ
करना चाहें, वह करें। इन्द्र ने अप्सराओं को तो सत्कारपूर्वक विदा कर दिया और स्वयं
यह विचार किया कि 'आज मैं उसपर वज्र छोड़ूँगा, जिससे वह तुरत ही नष्ट हो जायगा।' ऐसा
निश्चय करके उन्होंने क्रोध में भरकर त्रिशिरा पर अपने भीषण वज्र का प्रहार किया। उसके
लगते ही वह विशाल पर्वतशिखर के मान मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। इससे इन्द्र निर्भय और
प्रसन्न होकर स्वर्गलोक को चले गये। प्रजापति त्वष्टा को जब मालूम हुआ कि इन्द्र ने
मेरे पुत्र को मार डाला है तो उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं और उन्होंने कहा, 'मेरा
पुत्र सदा ही क्षमाशील और शम-दमसम्पन्न था। वह तपस्या कर रहा था। इन्द्र ने उसे बिना
किसी अपराध के ही मार डाला है। इसलिये अब मैं इन्द्र का नाश करने के लिये वृत्रासुर
को उत्पन्न करूँगा। लोग मेरे पराक्रम और तपोबल को देखें।' ऐसा विचारकर महान् यशस्वी
और तपस्वी त्वष्टा ने क्रुद्ध होकर जल का आचमन किया और अग्नि में आहुति दे वृत्रासुर
को उत्पन्न कर उससे कहा, 'इन्द्रशत्रो ! मेरे तप के प्रभाव से तुम बढ़ जाओ।' बस, सूर्य
और अग्नि के समान तेजस्वी वृत्रासुर उसी सम बढ़कर आकाश को छूने लगा और बोला, ' कहिये
मैं क्या करूँ ?' त्वष्टा ने कहा, 'इन्द्र को मार डालो।'तब वह स्वर्ग में गया। वहाँ
इन्द्र और वृत्र का भीषण संग्राम हुआ। अन्त में वीरवर वृत्रासुर ने देवराज इन्द्र को
पकड़कर निगल गया। तब देवताओं ने
वृत्र का नाश करने के लिये जंभाई की रचना की और ज्योंही वृत्र ने जंभाई ली कि देवराज
अंग सिकोड़कर उसके खुले हुए मुख से बाहर निकल आये। इन्द्र को बाहर आया देखकर देवता बड़े
प्रसन्न हुए। इसके पश्चात् फिर इन्द्र और वृत्र का युद्ध होने लगा। तब त्वष्टा का तेज
और बल पाकर वीर वृत्रासुर संग्राम में अत्यन्त प्रबल हो गया और इन्द्र मैदान छोड़कर
भाग गये। इन्द्र के भाग जाने से देवताओं को बड़ा ही खेद हुआ और वे त्वष्टा के तेज से
घबराकर इन्द्र और मुनियों के साथ सलाह करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। इन्द्र ने
कहा, 'देवताओं ! वृत्र ने तो इस सारे संसार को घेर लिया है। मेरे पास ऐसा कोई शस्त्र
नहीं है, जो इसका नाश कर सके। अतः मेरा तो ऐसा विचार है कि हमलोग मिलकर हमलोग विष्णुभगवान्
के धाम को चलें और उनसे सलाह करके इस दुष्ट के नाश का उपाय मालूम करें।' इन्द्र के
इस प्रकार कहने पर सब देवता और ऋषिगण शरणागतवत्सल भगवान् विष्णु की शरण में गये और
उनसे कहने लगे, 'पूर्वकाल में आपने अपने तीन डगों से तीनों लोकों को नाप लिया था। आप
समस्त देवताओं के स्वामी हैं। यह सारा संसार आपमें व्याप्त है। आप देवेश्वर हैं। सब
लोक आपको नमस्कार करते हैं। इस समय यह सारा जगत् वृत्रासुर से व्याप्त है; अतः हे असुरनिकंदन
! आप इन्द्र तथा संपूर्ण देवताओं को आश्रय दीजिये।' विष्णुभगवान् ने कहा, 'मुझे तुमोगों
का हित अवश्य करना है; इसलिये मैं ऐसा उपाय बताता हूँ, जिससे इसका अन्त हो जायगा। तुम
सब देवता, ऋषि और गन्धर्व विश्वरूपधारी वृत्रासुर के पास जाओ और उसके प्रति सामनीति
का प्रयोग करो। इससे तुम उसे जीत लोगे। देवताओं ! इस प्रकार मेरे और इन्द्र के प्रभाव
से तुम्हारी जीत होगी। मैं अदृश्यरूप से देवराज के आयुध वज्र में प्रवेश करूँगा।' विष्णुभगवान्
के ऐसा कहने पर सब देवता एवं ऋषि इन्द्र को आगे करके वृत्रासुर के पास चले और उससे
बोले, 'दुर्जय वीर ! यह सारा जगत् तुम्हारे तेज से व्याप्त है तो भी तुम इन्द्र को
जीत नहीं सके हो। तुम दोनो को लड़ते हुए बहुत समय बीत गया है; इससे देवता, असुर और मनुष्य---सभी
प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है। अतः अब सदा के लिये तुम इन्द्र से मित्रता कर लो।' महर्षि
की यह बात सुनकर परम तेजस्वी वृत ने कहा, 'आप तपस्वी लोग अवश्य ही मेरे माननीय हैं।
किन्तु जो बात मैं कहता हूँ वह यदि पूरी की जायगी, तो आपलोग जैसा कह रहे हैं, वह सब
मैं करने को तैयार हूँ। मुझे इन्द्र या देवतालोग किसी भी सूखे या गीली वस्तु से, पत्थर
या लकड़ी से, शस्त्र या अस्त्र से, अथवा दिन में या रात में न मार सके ---इस शर्त पर मैं सदा के लिये इन्द्र के साथ सन्धि
करना स्वीकार कर सकता हूँ।' तब ऋषियों ने उससे कहा, 'ठीक है, ऐसा ही होगा।' इस प्रकार
सन्धि हो जाने से वृत्रासुर बड़ा प्रसन्न हुआ। देवराज भी मन में प्रसन्न हए, किन्तु
वे सदा वृत्रासुर को मारने का अवसर ढ़ूँढ़ते रहते थे। एक दिन इन्द्र ने सायंकाल में वृत्रासुर
को समुद्र के तट पर विचरते देखा। उस समय वे वृत्र के दिये हुए वर पर विार करने लगे---'यह
सायंकाल है, इस समय न दिन है न रात; और मुझे अपने शत्रु वृत्र का वध अवश्य करना है।
यदि आज मैं इस महान् असुर को धोखे से नहीं मारता हूँ तो मेरा हित नहीं हो सकता।' ऐसा
विचारकर इन्द्र ने ज्यों ही विष्णुभगवान् का स्मरण किया कि उन्हें समुद्र पर पर्वत
के समान फेन उठता दिखायी दिया। वे सोचने लगे---'यह न सूखा है न गीला, और न कोई शस्त्र
ही है। अतःमैं इसे यदि वृत्रासुर पर फेंकूँ तो वह एक क्षण में ही नष्ट हो जायगा।' यह
सोचकर उन्होंने तुरंत ही अपने वज्र के सहित वह फेन वृत्रासुरपर फेन में प्रवेश करके
उसी समय वृत्रासुर को मार डाला। वृत्र के मरते ही सारी प्रजा प्रसन्न हो गयी तथा देवता,
गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग और ऋषि---ये सब इन्द्र की स्तुति करने लगे। इन्द्र ने देवताओं
के लिये भय का कारण बने हुए महाबली वृत्रासुर का वध तो किया, किन्तु पहले त्रिशिरा
को मारने से लगी हुई ब्रह्महत्या के कारण और अब असत्य व्यवहार के कारण तिरस्कृत होने
से मन-ही-मन बहुत दुःखी रहने लगे। इन पापों के कारण वे संज्ञाशून्य और अचेतन-से हो
गये तथा संपूर्ण लोकों की सीमा पर जाकर जल में छिपकर रहने लगे।जब देवराज ब्रह्महत्या
से पीड़ित होकर स्वर्ग छोड़कर ले गये तो सारी पृथ्वी वृक्षों के मारे जाने और वनों के
सूख जाने पर ऊजड़ सी हो गयीं। नदियों की धाराएँ टूट गयीं और सरोवर जलहीन हो गये। अनावृष्टि
के कारण सभी जीवों में खलबली मच गयी तथा देवता और महर्षियों को भी बड़ा त्रास होने लगा।
कोई राजा न रहने से सारा जगत् उपद्रवों से पीड़ित रहने लगा। तब देवताओं को भी भय हुआ
कि अब हमारा राजा कौन हो; क्योंकि देवताओं में से किसी का भी मन राज् का भार संभालने
के लिये होता नहीं था।
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