Monday 13 June 2016

विराटपर्व---पाण्डवों की पहचान और अर्जुन के साथ उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव

पाण्डवों की पहचान और अर्जुन के साथ उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव
तदनन्तर इसके तीसरे दिन पाँचों महारथी पाण्डवों ने स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण किये और राजोचित आभूषणों से भूषित हो युधिष्ठिर को आगे करके सभाभवन में प्रवेश किया। सभा में पहुँचकर वे राजाओं के योग्य आसन पर विराजमान हो गये। इसके बाद राजकार्य देखने के लिये स्वयं राजा विराट वहाँ पधारे। अग्नि के समान तेजस्वी पाण्डवों को राजासन पर बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ। फिर थोड़ी देर तक मन-ही-मन विचार करके उसने कंक से कहा---'तुम तो पासा फेंकनेवाले हो। सभा में पासा बिछाने के लिये मैने तुम्हे नियुक्त किया था। आज इस प्रकार बन-ठन कर सिंहासन पर कैसे बैठ गये ?' राजा ने यह बात परिहास के भाव में कहा था। उसे सुनकर अर्जुन ने मुस्कराते हुए कहा---'राजन् ! तुम्हारे राजसिंहासन की तो बात ही क्या है, ये तो इन्द्र के आधे आसन पर बैठने के अधिकारी हैं। ये ब्राह्मणों के रक्षक, शास्त्रों के विद्वान्, त्यागी, यज्ञकर्ता और दृढ़ता के साथ अपने व्रत का पालन करनेवाले हैं। ये मूर्तिमान् धर्म हैं; पराक्रमी पुरुषों में श्रेष्ठ हैं---इनका नाम है धर्मराज युधिष्ठिर। विराट ने कहा---यदि ये कुरुवंशी कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर हैं, तो इनमें इनका भाई अर्जुन और महाबली भीमसेन कौन हैं ? नकुल, सहदेव और यशस्विनी द्रौपदी कौन हैं ? जबसे पाण्डवलोग जूए में हार गये, तबसे कहीं भी उनका पता नहीं लगा। अर्जुन ने कहा---राजन् ! ये जो वल्लव-नामधारी आपके रसोइया हैं, ये ही भयंकर वेग और पराक्रमवाले भीमसेन हैं। कीचक को मारनेवाले गन्धर्व भी ये ही हैं। यह नकुल है, जो आपके आपके यहाँ घोड़ों का प्रबंध कर रहा है और यह है सहदेव, जो गौओं की संभाल रखता रहा है। ये ही दोनो महारथी, मातामाद्री के पुत्र हैं। तथा यह सैरन्ध्री, जो आपके यहाँ सैरन्ध्री के रूप में रह रही है, द्रौपदी है; इसके ही लिये कीचक का विनाश किया गया है। मेरा नाम है अर्जुन ! अवश्य ही आपके कानों में भी मेरा नाम पड़ा होगा। यह सुनकर राजा विराट ने कहा---'उत्तर ! अब हमें पाण्डवों के प्रसन्न करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। तुम्हारी राय हो तो मैं अर्जुन से कुमारी उत्तरा का ब्याह कर दूँ।' उत्तर बोला---'पाण्डवलोग सर्वथा श्रेष्ठ, पूजनीय और सम्मान के योग्य है तथा इसकेलिये हमें मौका भी मिल गया है। इसलिये आप इनका सत्कार अवश्य करें।'विराट न कहा---'युद्ध में भी शत्रुओं के फंदे में पड़ गया था; उस समय भीमसेन ने ही मुझे छुड़ाया और गौओं को भी जीता है। मैने अनजान में राजा युधिष्ठिर को जो कुछ अनुचित वचन कहे हैं, उसे लिये धर्मात्मा पाण्डुनन्दन मुझे क्षमा करें। इस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करके राज विराट को बहुत संतोष हुआ और उसने पुत्र से सलाह करके अपना सारा राज-पाट और खजाना युधिष्ठिर की सेवा में सौंप दिया। फिर पाण्डवों और विशेषतः अर्जुन के दर्शन से अपने सौभाग्य की सराहना की। सबका मस्तक सूँघकर प्यार से गले लगाया। इसके बाद वह अतृप्त नेत्रों से उन्हें एकटक देखने लगा और अत्यन्त प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से बोला---'बड़े सौभाग्य की बात है जो आपलोग कुशलपूर्वक वन से लौट आये। और यह भी अच्छा हुआ कि इस कष्टदायक अज्ञातवास की अवधि कोआपने पूरा कर लिया। मेरा सर्वस्व आपका है, इसे निःसंकोच स्वीकार करें। अर्जुन मेरी पुत्री उत्तरा का पाणिग्रहण करें, वे सर्वथा उसके स्वामी होने योग्य हैं।' विराट के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन की ओर देखा। तब अर्जुन ने मत्स्यराज को इस प्रकार उत्तर दिया---'राजन् ! मैं आपकी कन्या को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ। मत्स्य और भरतवंश का यह संबंध उचित ही है।

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