Friday 24 June 2016

उद्योग-पर्व ---शल्य का सत्कार तथा दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनो को वचन देना

शल्य का सत्कार तथा दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनो को वचन देना
दूतों के मुख से पाण्डवों का संदेश सुनकर राजा शल्य भारी सेना और अपने महारथी पुत्रों के सहित पाण्डवों की सहायता के लिये चले। उनके पास इतनी बड़ी सेना थी कि उसका पड़ाव दो कोस के बीच में पड़ता था। वे एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे तथा उनकी सेना के स्वामी थे तथा उनकी सेना के सैकड़ों-हजारों वीर संचालक थे। इस विशाल सेना के सहित वे बीच-बीच में विश्राम करते धीरे-धीरे पाण्डवों के पास चले। दुर्योधन ने जब महारथी शल्य को पाण्डवों की सहायता के लिये आते सुना तो उसने स्वयं जाकर उनके सत्कार का प्रबंध किया। उने सत्कार के लिये उसने शिल्पियों द्वारा रास्ते के रमणीय प्रदेशों में सुन्दर-सुन्दर रत्नजटित सभाभवन बनवा दिये और उनमें तरह-तरह की क्रीड़ाओं की सामग्रियाँ रख दीं। जब शल्य उन सभाओं में पहुँचते तो दुर्यधन के मंत्री उनका देवताओं के समान सत्कार करते। एक के बाद वे दूसरी सभा में पहुँचे, वह भी देवभवन के समान कान्तिमयी थी। वहाँ उन्होंने अनेकों अलौकिक विषयों का सेवन किया। तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर सेवकों से पूछा, 'इन सभाओं को युधिष्ठिर के किन आदमियों ने तैयार किया है ? उन्हें मेरे सामने लाओ, उन्हें तो कुछ इनाम मिलना चाहिये। मैं उन्हें पारितोषिक दूँगा। युधिष्ठिर को भी इस बात में मेरा समर्थन करना चाहिये।' सेवकों ने चकित होकर यह सब समाचार दुर्योधन को सुनाया। दुर्योधन ने भी जब देखा कि इस समय शल्य अत्यन्त प्रसन्न हैं और अपने प्राण देने को भी तैयार हैं तो वह उनके सामने आ गया। मद्रराज ने दुर्योधन को देखकर और यह सारा प्रयत्न उसी का जानकर उसे प्रसन्नता से गले लगा लिया और कहा कि 'तुम्हारी जो इच्छा हो, वह माँग लो।' दुर्योधन ने कहा, 'महानुभाव ! आपका वाक्य सत्य हो। मेरी इच्छा है कि आप मेरी सम्पूर्ण सेना के नायक हों।' शल्य ने कहा, 'अच्छा, मैने तुम्हारी बात स्वीकार की। बताओ, तुम्हारा और क्या काम करूँ ?' तब दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि 'मेरा तो आपने सब काम पूरा कर दिया।' इसके पश्चात् शल्य ने कहा---दुर्योधन ! तुम अपनी राजधानी को जाओ, मुझे अभी युधिष्ठिर से मिलना है। उनसे मिलकर मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगा।' दुर्योधन ने कहा, 'राजन् ! युधिष्ठिर से मिलकर शीघ्र ही आवें, हम तो अब आपके ही अधीन हैं; हमारे वरदान की बात याद रखें।' फिर शल्य और युधिष्ठिर परस्पर गले मिले। दुर्योधन शल्य की आज्ञा लेकर अपने नगर में चला आया और शल्य दुर्योधन की यह सब बात सुनाने के लिये युधिष्ठिर के पास आये। विराटनगर के उपपल्व्य प्रदेश में पहुँचकर वे पाण्डवों की छावनी में आये। वहाँ उन्होंने सभी पाण्डवों को देखा और उनके दिये हुए अर्ध्य-पाद्यादि को ग्रहण किया। फिर मद्रराज ने कुशल प्रश्न के पश्चात् युधिष्ठिर का आलिंगन किया तथा भीम, अर्जुन और अपनेभांजे नकुल और सहदेव को हृदय से लगाकर जब वे अपने आसन पर बैठ गये तो उन्होंने राजा युधिष्ठिर से कहा, 'कुरुश्रेष्ठ ! तुम कुशल से तो हो ? यह बड़े प्रसन्नता की बात है कि तुम वनवास के बन्धन से छूट गये। तुमने द्रौपदी और भाइयों के सहित निर्जन वन में रहकर सचमुच बड़ा दुष्कर कार्य किया है। उससे भी कठिन अज्ञातवास को भी तुमने अच्छा निभा दिया। सच है, राजच्युत होने पर तो दुःख ही भोगना पड़ता है; फिर सुख कहाँ ? राजन् ! क्षमा, दम, सत्य, अहिंसा और अद्भुत सद्गति---ये तुममें स्वभावतः विद्यमान हैं। तुम बड़े ही मृदुलस्वभाव, उदार, दानी और धर्मनिष्ठ हो। तुम्हें इस महान दुःख से मुक्त हुआ देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है।'  इसके बाद राजा शल्य ने जिस प्रकार दुर्योधन के साथ उनका समागम हुआ था, वह सब और उनकी सेवा-सुश्रूषा तथा अपने वर देने की बात भी दुर्योधन को सुना दी। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा, 'महाराज ! आपने प्रसन्न होकर दुर्योधन को सहायता देने का वचन दे दिया, यह बहुत अच्छा किया। किन्तु एक काम मैं भी आपसे कराना चाहता हूँ। राजन् ! आप युद्ध में साक्षात् श्रीकृष्ण के समान पराक्रमी हैं। जिस समय कर्ण और अर्जुन रथों पर चढ़कर आपस में युद्ध करेंगे, उस समय आपको कर्ण का सारथि बनना होगा---इसमें संदेह नहीं है। यदि आप मेरा भला चाहते हैं तो उस समय अर्जुन की रक्षा करें और मेरी विजय के लिये कर्ण का उत्साह भंग करते रहें।' शल्य ने कहा--युधिष्ठिर ! सुनो, तुम्हारा मंगल हो। मैं संग्रामभूमि में कर्ण का सारथि अवश्य बनूँगा, क्योंकि वह मुझे सर्वदा श्रीकृष्ण के समान ही समझता है। उस समय मैं अवश्य उससे टेढ़े और अप्रिय वचन कहूँगा। इससे उसका गर्व और तेज नष्ट हो जायगा और फिर उसको मारना सहज हो जायगा। राजन् ! तुमने और द्रौपदी ने जूए के समय बड़ा दुःख सहन किया था। सूतपुत्र कर्ण ने तुम्हे बड़े कटु वचन सुनाये थे। सो तुम इसके लिये अपने चित्त में क्षोभ मत करो। दुःख तो बड़े-बड़े महापुरुषों को भी उठाने पड़ते हैं। देखो इन्द्राणी के सहित इन्द्र को भी महान् दुःख उठाना पड़ा था।

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