Monday 13 June 2016

विराटपर्व---अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह

अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह
अर्जुन की बात सुनकर राजा विराट ने कहा---'पाण्डवश्रेष्ठ ! मैं स्वयं तुम्हें अपनी कन्या दे रहा हूँ, फिर तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में क्यों नहीं स्वीकार  करते ?' अर्जुन ने कहा---'राजन् ! मैं बहुत काल तक आपके रनिवास में रहा हूँ और आपकी कन्या को एकान्त में तथा सबके सामने पुत्रीभाव से ही देखता आया हूँ। उसने भी मझपर पिता की भाँति ही विश्वास किया है। मैं नाचता था और संगीत का जानकार भी हूँ; इसलिये वह मुझसे प्रेम तो बहुत करती है, परन्तु सदा मुझे गुरु ही मानती आयी है। वह वयस्क हो गयी है और उसे साथ एक वर्ष तक मुझ रहना पड़ा है। इस कारण तुम्हे या किसी और को हमपर कोई अनुचित संदेह न हो, इसलिये मैं उसे अपनी पुत्रवधू के रूप में ही वरण करता हूँ।  ऐसा करके ही मैं शुद्ध, जितेन्द्रिय तथा सबको वश में करनेवाला हो सकूँगा और इससे आपकी कन्या का चरित्र भी शुद्ध समझा जायगा। मैं निन्दा और मिथ्या कलंक से डरता हूँ, इसलिये उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में ही ग्रहण करूँगा।मेरा पुत्र भी देवकुमार के समान है, वह भगवान् श्रीकृष्ण का भानजा है। वे उसपर बहुत प्रेम रखत हैं। उसका नाम है अभिमन्यु। वह सब प्रकार की अस्त्रविद्या में निपुण है और तुम्हारी कन्या के पति होने के सर्वथा योग्य है।' विराट ने कहा---पार्थ ! तुम कौरवों में श्रेष्ठ और कुन्ती के पुत्र हो। तुम्हे धर्माधर्म का इतना विचार होना उचित ही है। तुम सदा धर्म में तत्पर रहनेवाले और ज्ञानी हो। अब इसके बाद का जो कुछ कर्तव्य हो, उसे पूर्ण करो। जब अर्जुन मेरा संबंधी हो रहा है, तो मेरी कौन सी कामना अपूर्ण रह गयी ? विराट के ऐसा कहने पर अवसर देखकर राजा युधिष्ठिर ने भी इन दोनो क बातों का अनुमोदन किया। फिर विराट और युधिष्ठिर ने अपने-अपने मित्रों के यहाँ तथा भगवान् श्रीकृष्ण के पास दूत भेजा। अब तेरहवाँ वर्ष बीत चुका था, इसलिये पाण्डव विराट के उपलव्य नामक स्थान में रहने लगे। अभिमन्यु, श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य दाशार्हवंशियों को बुलवाया गया। काशीराज और शैव्य---ये एक-एक अक्षौहिणी सेना लेकर युधिष्ठिर के यहाँ प्रसन्नतापूर्वक पधारे। राजा द्रुपद भी एक अक्षौहिणी सेना के साथ आये। उनके साथ शिखण्डी और धृष्टधुम्न भी थे। इनके सिवा और भी बहुत-से नरेश अक्षौहिणी सेना के साथ पधारे। राजा विराट ने यथोचित सत्कार किया और सबको उत्म स्थानों पर ठहराया। भगवान् श्रीकृष्ण, बलदेव, कृतवर्मा, सात्यकि अक्रूर और साम्ब आदि क्षत्रिय अभिमन्यु और सुभद्रा को साथ लेकर आये। जिन्होंने द्वारका में एक वर्ष तक वास किया था। वे इन्द्रसेन आदि सारथि भी रथोंसहित वहाँ आ गये। भगवान् श्रीकृष्ण के साथ दस हजार हाथी, दस हजार घोड़े, एक अरब रथ और एक निखर्व ( दस निखर्व ) पैदल सेना थी। वृष्णि, अन्धक और भोजवंश के भी बलवान् राजकुमार आये। श्रीकृष्ण ने निमंत्रण में बहुत सी दासियाँ, नाना प्रकार के रत्न बहुत-वस्त्र युधिष्ठिर को भेंट किये। राजा विराट के घर शंख, भेरी और गोमुख आदि भाँति-भाँति के बाजे बजने लगे। अन्तःपुर की सुन्दर स्त्रियाँ नाना प्रकार के आभूषण और वस्त्रों से सज-धजकर कानों में मणिमय कुण्डल पहने रानी सुदेष्णा को आगे करके महारानी द्रौपदी के यहाँ चली।  वे राजकुमारी उत्तरा का सुन्दर श्रृंगार करके उसे सब ओर से घेरे हुए चल रही थीं। द्रौपदी के पास पहुँचकर उसके रूप, सम्पत्ति और शोभा के सामने सब फीकी पड़ गयीं। अर्जुन ने सुभद्रानन्दन अभिमन्यु के लिये सुन्दरी विराटकुमारी को स्वीकार किया। उस समय वहाँ इन्द्र के समन वेषभूषा धारण किये राजा युधिष्ठिर भी खड़े थे। उन्होंने भी उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में अंगीकार किया। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह हुआ। विवाहकाल में विराट ने प्रज्जलित अग्नि में विधिवत् हवन करके सभी को सत्कार किया औ दहेज में वरपक्ष को वायु के समान वेगवाले सात हजार घोड़े, दो सौ हाथी तथा बहुत सा धन दिया। साथ ही राजपाट,सेना और खजाने सहित अपने को भी सेना में समर्पण किया। विवाह सम्पन्न हो जाने पर युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से भेंट में मिले हुए धनों में से बहुत कुछ दान में दिया। हजारों गौएँ, रत्न, वस्त्र, भूषण, वाहन, बिछौने तथा खाने-पीने की उत्तम वस्तुएँ अर्पण कीं। उस महोत्सव के समय हजारों-लाखों हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा हुआ मत्स्य-नरेश का वह नगर बहुत ही शोभायमान हो रहा था।

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