Saturday 18 June 2016

उद्योग-पर्व--विराटनगर में पाण्डवपक्ष के नेताओं का परामर्श, सैन्यसंग्रह का उद्योग तथा राजा द्रुपद का धृतराष्ट्र के पास दूत भेजना

उद्योग-पर्व
विराटनगर में पाण्डवपक्ष के नेताओं का परामर्श, सैन्यसंग्रह का उद्योग तथा राजा द्रुपद का धृतराष्ट्र के पास दूत भेजना
नारायणं नम्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजय प्राप्तिपूर्वक अन्तःकरण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रन्थ का पाठ करना चाहिये।
कुरुप्रवीर पाण्डवगण अभिमन्यु का विवाह करके अपने सुहृद यादवों के सहित बड़े प्रसन्न हुए और ऱात्रि में विश्राम करके दूसरे दिन सवेरे ही विराट की सभामें पहुँच गये। सबसे पहले समस्त राजाओं के माननीय और वृद्ध विराट एवं द्रुपद आसनों पर बैठे। फिर पिता वसुदेवजी के सहित बलराम और श्रीकृष्ण विराजमान हुए। सात्यकि और बलरामजी तो पांचालराज द्रुपद के पास बैठे तथा श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर राजा विराट के समीप विराजमान हुए। इनके पश्चात् द्रुपदराज के सब पुत्र, भीमसेन, अर्जुन, नुल, सहदेव, प्रद्युम्न, साम्ब, विराटपुत्रों के सहित अभिमन्यु और द्रौपदी के सब कुमार---ये सभी सुवर्णजटित मनोहर सिंहासनों पर जा बैठा। जब सब लोग आ गये तो पुरुषश्रेष्ठ आपस में मिलकर तरह-तरह की बातचीत करने लगे। फिर श्रीकृष्ण की सम्मति जानने के लिये एक मुहूर्त तक उनकी ओर देखते हुए आसनों पर बैठे रहे। तब श्रीकृष्ण ने कहा, 'सुबलपुत्र शकुनि ने जिस प्रकार कपटध्यूत में हराकर महाराज युधिष्ठिर का राज्य छीन लिया और उन्हें वनवास के नियम में बाँध दिया था, वह सब तो आपलोगों को मालूम ही है। पण्डवलोग उस समय भी अपना राज्य लेने में समर्थ थे; परन्तु वे सत्यनिष्ठ थे, इसलिये उन्होंने तेरह वर्ष तक उस कठोर नियम का पालन किया।अब आपलोग ऐसा उपाय सोचें, जो कौरवों और पाण्डवों के लिये धर्माकूल और कीर्तिकर हो; क्योंकि अधर्म के द्वारा तो धर्मराज युधिष्ठिर देवताओं का राज्य भी नहीं लेना चाहेंगे। हाँ, धर्म और अर्थ से युक्त हो तो इन्हें एक गाँव का आधिपत्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रों के कारण इन्हें असह्यकष्ट भोगने पड़े हैं, तथापि अपने सुहृदों के सहित ये सर्वदा उनका मंगल ही चाहते रहे हैं। अब ये पुरुषप्रवर अपना वही राज्य चाहते हैं, जिसे इन्होंने अपने बाहुबल से राजाओं को परास्त करके प्राप्त किया था। यह बात भी आपलोगों से छिपी नहीं है कि जब ये बालक थे तभी से ये क्रूरस्वभाव कौरव इनके पीछे पड़े हुए हैं और इनका राज्य हड़पने के लिये तरह-तरह के षडयंत्र रचते रहे हैं। अब उनके बड़े-बड़े लोभ, राजा युधिष्ठिर की धर्मज्ञता और इनके पारस्परिक संबंध का विचार करके आप सब मिलकर और अलग-अलग कोई बात तय करें। ये लोग तो सा सत्य पर डटे रहे हैं और इन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का भी ठीक-ठीक पालन किया है। इसलिे यदि अब धृतराष्ट्र के पुत्र अन्याय करेंगे तो उन्हें मार डालेंगे। किन्तु अभी तक हमें दुर्योधन के ठीक-ठीक दुर्योधन के विचार का भी पता नहीं है कि वह क्या करना चाहता है और दूसरी ओर का विचार जाने बिना आप किसी कर्तव्य का निश्चय भी कैसे कर सकते हैं ? इसलिये उनलोगों को समझाने और महाराज युधिष्ठिर को आधा राज्य दिलाने के लिये इधर से कोई धर्मात्मा, पवित्रचित्त, कुलीन, सावधान और सामर्थ्यवान् पुरुष दूत बनकर जाना चाहिये। राजन् ! श्रीकृष्ण का भाषण धर्मार्थयुक्त, मधुर और पक्षपात-शून्य था। बलरामजी ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और फिर इस प्रकार कहना आरंभ किया, 'आपने श्रीकृष्ण का धर्म और अर्थ के अनुकूल भाषण सुना। वह जैसा धर्मराज के लिये हितकर है, वैसा ही कुरुराज दुर्योधन के लिये भी है। वीर कुन्तीपुत्र आधा राज्य कौरवों के लिये छोड़कर शेष आधे के लिये ही प्रयत्न करना चाहते हैं। अतः यदि दुर्योधन यदि आधा राज्य दे दे तो वह बड़े आनन्द में रह सकता है। अतः यदि दुर्योधन का विचार जानने और उसे युधिष्ठिर का संदेश सुनाने के लिये कोई दूत भेजा जाय और इस प्रकार कौरवों -पाण्डवों का निबटारा हो जाय तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। वहाँ जो दूत जाय, उसे जिस समय सभा में कुरुश्रेष्ठ भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोण, अश्त्थामा, विदुर, कृपाचार्य, शकुनि, कर्ण तथा शस्त्र और शास्त्रों में पारंगत दूसरे धृतराष्ट्रपुत्र उपस्थित हों और जब सब बयोवृद्ध एवं विद्याविद्ध पुरवासी भी यहाँ आ जायँ, तब उनहें प्रणाम करके राजा युधिष्ठिर का कार्य सिद्ध करनेवाला वचन कहना चाहिये। उन्होंने सबल होकर ही इनका धन छीना था। युधिष्ठिर की जूए में आसक्ति थी और अपने प्रिय दूत का आश्रय लेने पर ही उन्होंने इनका राज्य हरण किया था। यदि शकुनि ने इन्हें जूए में हरा दिया तो इसमे उनका कोई अपराध नहीं कहा जा सकता। बलरामजी का यह बात सुनकर सात्यकि एकसाथ तड़ककर खड़ा हो गया और उनके भाषण की बहुत निंदा करते हुए इस प्रकार कहने लगा, 'पुरुष का जैसा चित्त होता है, वैसी ही वह बात भी कहता है। आपका भी जैसा हृदय है, वैसी ही बात कह रहे हैं। संसार में शूरवीर भी होते हैं और कायर भी। लोगों में ये दोनो पक्ष पूरी तरह से देखे जाते हैं। यह ठीक है कि धर्मराज जूआ खेलना नहीं जानते थे और शकुनि इस क्रिया में पारंगत था। किंतु इनकी उसमें श्रद्धा नहीं थी। ऐसी स्थिति में यदि उसने इन्हें जूए के लिये निमंत्रित करके जीत लिया तो उसकी इस जीत को धर्मानुकूल कैसे कह सकते हैं ? अजी ! कौरवों ने तो इन्हें बुलाकर कपटपूर्वक हराया था; फिर उनका भला कैसे हो सकता है ?  महाराज युधिष्ठिर वनवास की अवधि पूरी करके अब स्वतंत्र हैं और अपने पैतृक राज्य के अधिकारी हैं। ऐसी स्थिति में ये उनसे भीख माँगे---यह कैसे हो सकता है ? भीष्म, द्रोण और विदुर ने तो कौरवों को बहुतेरा समझाया है; किन्तु पाण्डवों को उनकी पैतृक सम्पत्ति देने के लिये उनका मन ही नहीं होता। अब मैं रणभूमि में अपने पैने बाणों से उन्हें सीधा कर दूँगा और महात्मा युधिष्ठिर के चरणों पर उनका सिर रगड़वाऊँगा। यदि वे इनके आगे झुकने को न तैयार हुए तो अपने मंत्रियों सहित यमराज के घर जायेंगे। भला, ऐसा कौन है जो संग्रामभूमि में गाण्डीवधारी अर्जुन, चक्रपाणि श्रीकृष्ण, दुर्धर्ष भीम, धनुर्धर नकुल, सहदेव, वीरवर विराट और द्रुपद तथा मेरा वेग सहन कर सके। धृष्टधुम्न, पाण्डवों के पाँच पुत्र, धनुर्धर अभिमन्यु तथा काल और सूर्य के समान पराक्रमी गद, प्रद्युम्न और साम्बादि के प्रहारों का सहन करने की भी कौन ताब रखता है ?  हमलोग शकुनि के सहित दुर्योधन और कर्ण को मारकर महारज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करेंगे। आततायी शत्रुओं को मारने में तो कभी कोई दोष नहीं है। शत्रुओं के आगे भीख माँगना तो अधर्म और अपयश का ही कारण होता है। अतः आपलोग सावधानी से महाराज युधिष्ठिर के हृदय की ये अभिलाषा पूरी करें कि वे धृतराष्ट्र के देने से ही अपना राज्य प्राप्त कर लें। इस प्रकार उन्हें या तो अभी राज्य मिल जाना चाहिेये, नहीं तो सारे कौरव युद्ध में मारे जाकर पृथ्वी पर शयन करेंगे। इसपर राजा द्रुपद नें कहा--- महाबाहो ! दुर्योधन शान्ति से राज्य नहीं देगा। पुत्र के मोहवश धृतराष्ट्र भी उसी का अनुवर्तन केंगे तथा भीष्म और द्रोण दीनता के कारण एवं कर्ण और शकुनि मूर्खता से उसी की सी कहेंगे। मेरी बुद्धि में भी श्री बलदेवजी का प्रस्ताव नहीं जँचा, फिर भी शान्ति की इच्छावाले पुरुष को ऐसा करना ही चाहिये। दुर्योधन के सामने मीठे वचन तो किसी प्रकार नहीं बोलने चाहिये; मेरा ऐसा विचार है कि वह दुष्ट मीठी बातों से काबू में आनेवाला नहीं है। दुष्ट-लोग मृदुभाषी को शक्तिहीन समझते हैं। वे जहाँ नर्मी देखते हैं, वहीं अपना मतलब सधा हुआ समझ लेते हैं। हम यह भी करेंगे, पर साथ ही दूसरा उद्योग भी आरंभ करें। हमें अपने मित्रों के पास दूत भेजने चाहिये, जिससे वे हमारे लिये अपनी सेना तैयार रखें। शल्य, धृष्टकेतू, जयत्सेन और केकयराज---इन सभी के पास शीघ्रगामी दूत भेजने चाहिये। दुर्योधन भी निश्चय ही सब राजाओं के पास दूत भेजेगा और वे जिसके द्वारा पहले आमंत्रित होंगे, पहले उसी को सहायता के लिये वचन दे देंगे। इसलिये राजाओं के पास पहले हमारा निमंत्रण पहुँचे---इसके लिये शीघ्रता करनी चाहिये। मैं तो समझता हूँ हमें बहुत बड़े काम का भार उठाना है। ये मेरे पुरोहितजी बड़े विद्वान हैं, इन्हें अपना संदेश देकर राजा धृतराष्ट्र के पास भेजिये। दुर्योधन, भीष्म, धृतराष्ट्र और द्रोणाचार्य---इनसे अलग-अलग जो कुछ कहलाना हो, वह इन्हें समझा दीजिये। श्रीकृष्ण बोले---महाराज द्रुपद ने बहुत ठीक बात कही है। इनकी सम्मति अतुलित तेजस्वी महाराज युधिष्ठिर के कार्य को सिद्ध करनेवाली है। हमलोग सुनीति से काम लेना चाहते हैं। अतः पहले हमें ऐसा ही करना चाहिये। जो विपरीत आचरण करता है, वह तो महामूर्ख है। आयु और शास्त्रज्ञान की दृष्टि से आप ही हम सबमें बड़े हैं, हम सब तो आपके शिष्यवत् हैं।अतः राजा धृतराष्ट्र के पास आप ही ऐसा संदेश भिजवाइये, जो पाण्डवों की कार्यसिद्धि करनेवाला हो। आप उन्हें जो संदेश भिजवायेंगे, वह हम सबको भी अवश्य मान्य होगा। यद कुरुराज धृतराष्ट्र ने न्यायपूर्वक संधि कर ली तो फिर कौरव-पाण्डवों का भीषण संहार नहीं होगा। और यदि मोहवश अभिमान के कारण दुर्योधन ने संधि करना स्वीकार न किया तो वह गाण्डीव धनुर्धर अर्जुन के कुपित होने  पर अपने सलाहकार और सगे सम्बन्धियों के सहित नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। इसके पश्चात् राजा विराट ने श्रीकृष्ण का सत्कार करके उन्हें बन्धु-बान्धवों सहित विदा किया। भगवान् के द्वारका चले जाने पर युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई और राजा विराट युद्ध की सब तैयारियाँ करने लगे। राजा विराट, द्रुपद और उनके संबंधियों ने सब राजाओं के पास पाण्डवों को सहायता देने के लिये संदेश भेजे और वे सभी नृपतिगण कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों का तथा विराट और द्रुपद का निमंत्रण पाकर बड़ी प्रसन्नता से आने लगे। पाण्डवों के यहाँ सेना इकट्ठी हो रही है---यह समाचार पाकर धृतराष्ट्र के पुत्र भी राजाओं को एकत्रित करने लगे। उस समय कौरव और पाण्डवों की सहायता के लिये आनेवाले राजाओं से सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। राजा द्रुपद ने अपने पुरोहित से कहा---पुरोहितजी ! यह बात तो आपको मालूम ही है कि कौरवों ने पाण्डवों को ठगा था---शकुनि ने कपटध्यूत के द्वारा दुर्योधन को धोखा दिया था। इसलिये अब वे स्वयं तो किसी भी प्रकार राज्य नहीं देंगे। किन्तु आप धृतराष्ट्र को धर्मयुक्त बातें सुनाकर उनके वीरों का चित्त अवश्य बदल दे सकते हैं। विदुरजी भी आपके वचनों का समर्थन करेंगे। आप भीष्म, द्रोण और कृप आदि में मतभेद पैदा कर सकेंगे। इस परकर जब उनके मंत्रियो में मतभेद हो जायगा और योद्धा लोग उनके विरुद्ध हो जायेंगे तो करवलोग तो उन्हें एकमत करने में लग जायेंगे औ पाण्डवलोग इस बीच सुभीते से सैन् संगठन और धन-संचय कर लेंगे। आप अधिक समय लगाने का प्रत्न करें क्योंकि आपके रहते हुए वे सैन्य एकत्रित करने का काम नहीं कर सकेंगे। ऐसा भी संभव है कि आपकी संगति से धृतराष्ट्र आपकी धर्मानुकूल बात मान लें। आप धर्मनिष्ठ हैं, अतः मेरा ऐसा विश्वास है कि उनके साथ धर्मानुकूल आचरण करके, कृपालु पुरुषों के आगे पाण्डवों के क्लेशों की बात कहकर और बड़े-बूढ़ों के आगे पूर्व-पुरुषों के बरते हुए कुलधर्म की चर्चा चाकर आप उनके चित्तों को बदल देंगे। अतः आप युधिष्ठिर की कार्यसिद्धि के लिये पुष्प नक्षत्र और विजय मुहूर्त में प्रस्थान करें। द्रुपद के इस परार समझाने पर उनके सदाचारसम्पन्न और अर्थनीति विशारद पुरोहित पाण्डवों का हित करने के उद्देश्य से अपने शिष्योंसहित हस्तिनापुर को चल दिये।

No comments:

Post a Comment