Monday 16 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन का दुर्योधन के सामने आना, विकर्ण और कर्ण को पराजित करना तथा उत्तर को कौरव वीरों का परिचय देना

अर्जुन का दुर्योधन के सामने आना, विकर्ण और कर्ण को पराजित करना तथा उत्तर को कौरव वीरों का परिचय देना
इस प्रकार जब कौरव सेना की व्यूह-रचना हो गयी तो तो तुरंत ही अर्जुन अपने रथ की घरघराहट से आकाश को गुंजायमान करते आ गये। यह सब देखकर द्रोणाचार्य ने कहा, 'वीरों ! देखो, दूर से ही वह अर्जुन की ध्वजा का अग्रभाग दीख रहा है। यह उसी के रथ की घरघराहट है और उसकी ध्वजा पर बैठा हुआ वानर ही किलकारी मार रहा है।  इस समय रथ पर बैठा हुआ यह महारथी अर्जुन ही वज्र के समान कठोर टंकार करनेवाले गाण्डीव धनुष को खींच रहा है। देखो, एक साथ ही ये दो बाण मेरे पैरों पर आकर गिरे हैं और दो मेरे कानों का स्पर्श करे हुए दूर निकल गये हैं। इस समय वह अनेकों अतिमानुष कर्म करके वनवास से लौटा है, इसलिये इनके द्वारा वह मुझे प्रणाम करता है और मुझसे कुशल समाचार पूछता है ।अपने बन्धु-बान्धवों के अत्यन्त प्रिय अर्जुन को आज हमने बहुत दिनों पर देखा है।' इधर अर्जुन ने कहा---सारथे ! तुम रथ को कौरवसेना से इतनी दूरी पर ले चलो  जितनी दूर कि एक बाण जाता है। वहाँ से मैं देखूँगा कि कुरुकुलाधम दुर्योधन कहाँ है। इसके बाद अर्जुन ने सारी सेना पर दृष्टि डालकर देखा, किन्तु उन्हें दुर्योधन कहीं दिखायी नहीं दिया। तब वे कहने लगे, मुझे दुर्योधन तो यहाँ दिखायी नहीं देता। मालूमम  होता है कि दक्षिणी मार्ग से गौएँ लेकर अपने प्राण बचाने के लिये हस्तिनापुर की ओर भाग गया है। अच्छा, इस रथसेना को तो छोड़ दो; उस ओर चलो जिस ओर दुर्योधन गया है।' अर्जुन की आज्ञा पाकर उत्तर ने उसी ओर रथ हाँक दिया, जिधर दुर्योधन गया था।दुर्योधन के पास पहुँचकर अर्जुन अपना नाम सुनाकर उसकी सेना पर टिड्डियों के समान बाण बरसाने लगे। उनके छोड़े हुए बाणों से ढ़क जाने के कारण पृथ्वी और आकाश दिखायी देने बन्द हो गये। अर्जुन के शख की ध्वनि,रथ के पहिों की  घरघराहट , गाण्डीव की टंकार और उनकी ध्वजा में रहनेवाले दिव्य प्राणियों के शब्द पृथ्वी काँप उठी तथा गौएँ पूँछ उठाकर रँभाती हुई सब ओर से लौटकर दक्षिण की ओर भागने लगी। अर्जुन धनुर्धारियों में श्रेष्ठ था, उसने शत्रुसेना को बड़े वेग से दबाकर गौओं को जीत लिया। इसके बाद युद्ध की इच्छा से वह दुर्योधन की की ओर चला। कौरव वीरों ने देखा गौएँ तो तीव्र गति से विराटनगर की ओर भाग गयीं और अर्जुन सफल होकर दुर्योधन की ओर बढ़ा आ रहा है, तो वे बड़ी शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचे। कौरवसेना को देखकर अर्जुन ने उत्तर से कहा---राजपुत्र ! आजकल दुर्योधन का सहारा पाकर कर्ण बड़ा अभिमानी हो गया है, वह मुझसे युद्ध करना चाहता है, अतः पहले उसी के पास हमें ले चलो।' उत्तर ने अर्जुन का रथ युद्धभूमि के मध्यभाग में ले जाकर खड़ा किया। इतने में चित्रसेन, संग्रामजित्, शत्रुसह और जय आदि महारथी वीर उसके मुकाबले में आ डटे। युद्ध छिड़ गया। अर्जुन ने इनके रथों को उसी प्रकार भष्म कर दिया, जैसे आग वन को जला डालती है। अब यह भयानक संग्राम हो रहा था, उसी समय कुरुवंश के श्रेष्ठ योद्धा विकर्ण रथ पर बैठकर अर्जुन के ऊपर चढ़ आया। आते ही वह विपाठ नामक बाणों की वर्षा करने लगा। अर्जुन ने उसका धनुष काटकर रथ की ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। विकर्ण तो भाग गया, किन्तु 'शत्रुन्तप' नामक राजा सामने आकर अर्जुन के हाथ से मारा गया। फिर तो जैसे प्रचण्ड आँधी के वेग से बड़े-बड़े जंगलों के वृक्ष हिल उठते हैं, उसी प्रकार अर्जुन की मार खाकर कौरव सेना के वीर काँपने लगे। कितने ही आहत हो प्राण त्यागकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इस युद्ध में इन्द्रके सान पराक्रमी वीर भी अर्जुन के द्वारा परास्त हुए। वह शत्रुओं का संहार करता हुआ युद्धभूमि  में विचर रहा था, इतने में कर्ण के भाई संग्रामजित् से उसकी मुठभेड़ हो गयी।  अर्जुन ने उसके रथ में जुते हुए लाल-लाल घोड़ों को मारकर एक ही बाण से उसका सिर काट लिया। भाई के मारे जाने पर कर्ण अपने पराक्रम के जोश में आकर अर्जुन की ओर दौड़ा और बारह बाण मारकर उसने अर्जुन को बिंध डाला, उसके घोड़ों को छेद दिया और राजकुमार उत्तर के भी हाथ में चोट पहुँचायी। यह देख अर्जुन भी, जैसे गरुड़ नाग की ओर दौड़े उसी प्रकार, कर्ण पर टूट पड़ा। ये दोनो वीर संपूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ, महाबली और सब शत्रुओं का प्रहार सहनेवाले थे। इनका युद्ध देखने के लिये सभी कौरव वीर ज्यों-के-त्यों खड़े हो गये। अपने अपराधी कर्ण को सामने पाकर अर्जुन क्रोध और उत्साह से भर गया और एक ही क्षण में उसने इतनी बाणवृष्टि की कि रथ, सारथि और घोड़ों सहित वह छिप गया। इसके बाद कौरवों के अन्यान्य योद्धाओं को भी रथ और हाथियों सहित बेध डाला। भीष्म आदि भी अपने रथ सहित अर्जुन के बाणों से ढ़क गये। इससे उनकी सेना में हाहाकार मच गया। इतने में कर्ण ने अर्जुन के तमाम बाणों को काट दिया और अमर्ष में भरकर उनके चारों घोड़ों तथा सारथि को बींध दिया।साथ ही रथ के ध्वजा को भी काट डाला। इसके बाद उसने अर्जुन को भी घायल किया। कर्ण के बाणों से आहत होकर अर्जुन सोते हुए सिंह के समान जाग उठा और उसके ऊपर पुनः बाणों की वर्षा करने लगा। अपने वज्र के समान तेजस्वी बाणों से उसने कर्ण के बाँह, जंघा, मस्तक, ललाट और कण्ठ आदि अंगों को बींध डाला। कर्ण का शरीर क्षत-विक्षत हो गया, उसे बड़ी पीड़ा होने लगी। फिर तो, जैसे एक हाथी से हारकर दूसरा हाथी भाग जाता है, उसी प्रकार वह युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ। कर्ण के भाग जाने पर दुर्योधन आदि वीर अपनी-अपनी सेना के साथ धीरे-धीरे अर्जुन की ओर बढ़ गये। तब अर्जुन ने हँसकर दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करते हुए कौरव सेना पर प्रत्याक्रमण किया। उस समय उस ेना के रथ, घोड़े, हाथी और कवच आदि में से कोई भी ऐसा नहीं बचा था जिसमे दो-दो अंगल पर अर्जुन के तीखे बाणों का घाव न हुआ हो। अर्जुन के दिव्यास्त्र का प्रयोग, घोड़ं की शिक्षा, उत्तर की रथ हाँकने की कला, पार्थ के अस्त्रसंचालन का क्रम और पराक्रम देखकर शत्रु भी बड़ाई करने लगे। अर्जुन प्रलयकालीन अग्नि के समान शत्रुओं को भष्म कर रहा था; उस समय उसके तेजस्वी स्वरूप की ओर शत्रु आँख उठाकर देख भी न सके। उसके दौड़ते हुए रथ को समीप आने पर एक ही बार कोई भी शत्रु पहचान पाता था, दुबारा उसे इसका अवसर नहीं मिलता; क्योंकि अ्जुन तुरत ही उस शत्रु को रथ से गिराकर परलोक भेज देता था। समस्त कौरव सैनिकों के शरीर उसके द्वारा छिन्न-भिन्न होकर कष्ट पा रहे थे; वह अर्जुन का ही काम था, दूसरे से उसकी तुलना नहीं हो सकती थी। उसने द्रोणाचार्य को तिहत्तर, दु्स्सह को दस, अश्त्थामा को आठ, दुःशासन को बारह, कृपाचार्य को तीन, भीष्म को साठ और दुर्योधन को सौ बाणों से घायल किया। फिर कर्णि नामक बाण मारकर कर्ण का कान बींध डाला; साथ ही उसके घोड़े, सारथी तथा रथ को भी नष्ट कर दिया।  यह देखकर सारी सेना तितर-बितर हो गयी। तब विराटकुमार उत्तर ने अर्जुन से कहा---'विजय ! अब आप किस सेना में चलना चाहते हैं ?  आज्ञा दीजिये, मैं वहीं रथ ले चलूँ।' अर्जुन ने कहा---'उत्तर ! जिस रथ के लाल-लाल घोड़े हैं, जिसपर नीली पताका फहरा रही है, उस रथ पर बैठे हुए जो अत्यन्त कल्याणकारी वेष में व्याघ्रचर्मधारी महापुरुष दिखायी पड़ते हैं, वे हैं कृपाचार्य और वही है उनकी सेना। तुम मुझे उसी सेना के निकट ले चलो। और देखो ! जिनकी ध्वजा में सुवर्णमय कमण्डलु का चिह्न है, वे ही ये संपूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण हैं। तुम मेरे रथ से इनकी प्रदक्षिणा करो। जब ये मुझपर प्रहार करेंगे, तभी मैं भी इनपर शस्त्र छोड़ूँगा; ऐसा करने से ये मुझपर क्रोध नहीं करेंगे। इनसे थोड़ी ही दूर पर, जिसके रथ की ध्वजा में 'धनुष' का चिह्न दिखायी देता है, वह आचार् द्रोण का पुत्र महारथी अश्त्थामा है। तथा जो रथों की सनाओं में तीसरी सेना के साथ खड़ा है, सुवर्ण का कवच पहने है, जिसकी ध्वजा के ऊपर सुवर्णमय हाथी का चिह्न बना है, वही यह धृतराष्ट्रपुत्र राजा सुयोधन है। जिसकी ध्वजा के अग्रभाग में हाथी की सुन्दर श्रृंखला का चिह्न दिखायी दे रहा है, यह कर्ण है; इसे तो तुम पहले ही जान चुके हो। तथा जिनके सुन्दर रथ सुवर्णमय पाँच मण्डलवाली नीले रंग की पताका फहराती है, जो हस्तत्राण पहने हुए है, जिनका धनुष बहुत बड़ा और पराक्रम महान् है, जिनके उत्तम रथ पर सूर्य और ताराओं के चिह्नवाली अनेकों ध्वजाएँ हैं, मस्तक पर सोने का टोप और उसके ऊपर श्वेत छत्र शोभा पा रहा है, जो मेरे मन में भी उद्वेग पैदा करते रहते हैं---ये हैं हम सब लोगों के पितामह शान्तनुनन्दन भीष्मजी। इनके पास सबसे पीछे चलना चाहिये; क्योंकि ये मेरे कार्य में विघ्न नहीं डालेंगे।' अर्जुन की बातें सुनकर उत्तर सावधान हो गया और जहाँ कृपाचार्य का रथ खड़ा था, वहीं अर्जुन का रथ भी ले गया।

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