Thursday 26 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन और भीष्म का युद्ध तथा भीष्म का मूर्छित होना

अर्जुन और भीष्म का युद्ध तथा भीष्म का मूर्छित होना
कर्ण पर विजय पाने के अनन्तर अर्जुन ने उत्तर से कहा---'जहाँ रथ की ध्वजा में सुवर्णमय ताड़का चिह्न दिखायी दे रहा है, उसी सेना के पास मुझे ले चलो। वहाँ मेरे पितामह भीष्मजी, जो देखने में देवता के समान जजान पड़ते हैं, रथ में विराजमान हैं और मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं।' उत्तर का शरीर बाणों से बहुत घायल हो चुका था। अतः उसने अर्जुन से कहा---''वीरवर ! अब मैं आपके घोड़ों को काबू में नहीं रख सकता। मेरे प्राण संतप्त हैं, मन घबरा रहा है। आज तक किसी भी युद्ध में मैने इतने शूरवीरों का समागम नहीं देखा था।आपके साथ जब इनलोगों का युद्ध देखता हूँ, तो मेरा मन डवाँडोल हो जाता है। गदाओं के टकराने का शब्द, शंखों की ऊँची ध्वनि, वीरों का सिंहनाद, हाथियों की चिघ्घाड़ तथा बिजली की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव की टंकार सुनते-सुनते मेरे कान बहरे हो रहे हैं, स्मरणशक्ति क्षीण हो गयी है। अब मुझमें चाबुक और बागडोर संभालने की शक्ति नहीं रह गयी है।' अर्जुन ने कहा---'नरश्रेष्ठ ! डरो मत, धैर्य रखो; तुमने भी युद्ध में बड़े अद्भुत् पराक्रम दिखाये हैं। तुम राजा के पुत्र हो।शत्रुओं का दमन करनेवाले मत्स्यनरेश के विख्यात वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसलिये इस अवसर पर तुम्हे उत्साहहीन नहीं होना चाहिये। राजपुत्र ! भली-भाँति धीरज रखकर रथ पर बैठो और युद्ध के समय घोड़ों पर नियंत्रण करो। अच्छा, अब तुम मुझे भीष्मजी की सेना के सामने ले चलो और देखो कि मैं किस प्रकार दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करता हूँ। आज सारी सेना को तुम चक्र की भाँति घूमते हुए देखोगे। इस मय मैं तुम्हे बाण चलाने की तथा अन्य शस्त्रों के संचालन की भी अपनी योग्यता दिखाऊँगा। मैने मुट्ठी को दृढ़ रखना इन्द्र से, हाथों की फुर्ती ब्रह्माजी से तथा संकट के अवसर पर विचित्र प्रकार से युद्ध करने की कला प्रजापति से सीखी है। इसी प्रकार रुद्र से रौद्रास्त्र की, वरुण से वरुणास्त्र की, अग्नि से आग्नेयास्त्र की और वायु से वायव्यास्त्र की शिक्षा प्राप्त की है। अतः तुम भय मत करो, मैं अकेले ही कौरवरूपी वन को उजाड़ डालूँगा। इस प्रकार अर्जुन ने जब धीरज बँधाया, तब उत्तर उसके रथ को भीष्मजी के द्वारा सुरक्षित रथसेना के पास ले गया। कौरवों पर विजय पाने की इच्छा से अर्जुन को अपनी ओर आते देख निष्ठुर पराक्रम दिखानेवाले गंगानंदन भीष्म ने धीरतापूर्वक उसकी गति रोक दी। तब अर्जुन ने बाण मारकर भीष्मजी के रथ की ध्वजा जड़ से काटकर गिरा दी। इसी समय महाबली दुःशासन, विकर्ण, दुःशह और विविंशति---इन चार वीरों ने आकर धनंजय को चारों तरफ से घेर लिया। दुःशासन ने एक बाण से विराटनंदन उत्तर को बींधा और दूसरे से अर्जुन की छाती में चोट पहुँचायी। अर्जुन ने भी तीखी धारवाले बाण से दुःशासन का सुवर्णजटित धनुष काट दिया और उसकी छाती में पाँच बाण मारे।  उन बाणों से उसको बड़ी पीड़ा हुई और वह युद्ध छोड़कर भाग गया। इसके बाद विकर्ण अपने तीखे बाणों से अर्जुन को घायल करने लगा। तब अर्जुन ने उसके ललाट में एक बाण मारा। उसके लगते ही घायल होकर वह रथ से गिर पड़ा। तदनन्तर दुःशह और विविंशति दोनो एक साथ आकर अपने भाई का बदला लेने के लिये अर्जुन पर बाणों की बर्षा करने लगे। अर्जुन तनिक भी विचलित नहीं हुआ, उसने दो तीखे बाण छोड़कर उन दोनो भाइयों को एक ही साथ बींध दिया और उनके घोड़ों को भी मार डाला। जब सेवकों ने देखा कि दोनो के घोड़े मर गये और शरीर घायल हकर लोहू-लुहान हो रहे हैं, तो वे इन्हें दूसरे रथ पर बिठाकर युद्धभूमि से हटा ले गये। और जिसका निशाना कभी खाली नहीं जाता था, वह महाबली अर्जुन रणभूमि के चारों ओर घूमने लगा। धनंजय के ऐसे पराक्रम देखकर दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, विविंशति, द्रोणाचार्य, अश्त्थामा तथा महारथी कृपाचार्य अमर्ष से भर गये और उसे मार डालने की इच्छा से अपने दृढ़ धनुषों की टंकार करते हुए पुनः बढ़ आये। वहाँ आकर सब एक साथ अर्जुन पर बाण बरसाने लगे। उनके दिव्यास्त्रों से सब ओर से आछन्न हो जाने के कारण उनके शरीर का दो अंगुल भाग भी ऐसा नहीं बचा था, जिसपर बाण न लगे हों। ऐसी अवस्था में अर्जुन ने तनिक हँसकर अपने गाण्डीव धनुष पर ऐन्द्र-अस्त्र का संधान किया और बाणों की झड़ी लगाकर समस्त कौरवों को ढ़क दिया। वर्षा होते समय जैसे बिजली आकाश में चमककर संपूर्ण दिशाओं और भू-मंडल को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार गाण्डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा दसों दिशाएँ आच्छन्न हो गयीं। रणभूमि में खड़े हुए हाथी-सवार और रथी सब मूर्छित हो गये। सबका उत्साह ठण्ढ़ा पड़ गया, किसी को होश न रहा। सारी सेना तितर-बितर हो गयी; सभी योद्धा जीवन से निराश होकर चारों ओर भागने लगे। यह देखकर शान्तनुनन्दन भीष्मजी सुवर्णजटित धनुष और मर्मभेदी बाण लेकर अर्जुन के ऊपर धावा किया। उन्होंने अर्जुन की ध्वजा पर फुफकारते हुए सर्पों के समान आठ बाण मारे। उससे ध्वजा पर स्थित वानर को बड़ी चोट पहुँची और उसके अग्रभाग में रहनेवाले भूत भी घायल हुए। तब अर्जुन ने एक बहुत बड़े भाले से भीष्मजी का छत्र काट डाला; कटते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। साथ ही उसने उनकी ध्वजा पर भी बाणों से आघात किया और शीघ्रतापूर्वक उनके घोड़ों को, पार्श्वरक्षक तथा सारथि को भी घायल कर दिया। भीष्मपितामह इस बात को सहन नहीं कर सके। वे अर्जुन पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। जवाब में अर्जुन ने भी दिव्यास्त्रों का प्रहार किया। इस समय उन दोनों वीरों बलि और इन्द्र के समान रोमांचकारी युद्ध होने लगा। कौरव प्रशंसा करते हुए कहने लगे---'भीष्मजी ने अर्जुन के पास जो युद्ध ठाना है, वह बड़ा ही दुष्कर कार्य है। अर्जुन बलवान् है, तरुण है, रणकुशल और फुर्ती करनेवाला है; भला युद्ध में भीष्म और द्रोण के सिवा दूसरा कौन इसके वेग को सह सकता है ? अर्जुन और भीष्म दोनो ही महापुरुष उस युद्धमें प्राजापत्य, ऐन्द्र, आग्नेय, रौद्र, वारुण, कौबेर, याम्य और वायव्य आदि दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हुए विचर रहे थे। अर्जुन और भीष्म सभी अस्त्रों के ज्ञाता थे। पहले तो इनमें दिव्यास्त्रों का युद्ध हुआ, इसके बाद बाणों का संग्राम छिड़ा। अर्जुन ने भीष्म का सुवर्णमय धनुष काट दिया। तब महारथी भीष्म ने एक ही क्षण में दूसरा धनुष लेकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी और क्रुद्ध होकर वे अर्जुन के ऊपर बाणों की बर्षा करने लगे। उन्होंने अपने बाणों से अर्जुन की बायीं पसली बींध डाली। तब उसने भी हँसकर तीखी धारवाला एक बाण मारा और भीष्म का धनुष काट दिया। उसके बाद दस बाणों से उसकी छाती बींध डाली। इससे भीष्मजी को बड़ी पीड़ा हुई और वे रथ का कूबर थामकर देरतक बैठे रह गये। भीष्मजी को अचेत जानकर सारथि को अपने कर्तव्य का स्मरण हुआ और वह उनकी रक्षा के लिये युद्धभूमि  बाहर ले गया।

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