Monday 9 May 2016

विराटपर्व---अर्जुन का शमीवृक्ष के पास जाकर अपने शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होना और उत्तर को अपना परिचय देकर कौरवसेना की ओर जाना

अर्जुन का शमीवृक्ष के पास जाकर अपने शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होना और उत्तर को अपना परिचय देकर कौरवसेना की ओर जाना
जब भीष्म, द्रोण आदि प्रधान-प्रधान कौरव महारथियों ने उस नपुंसकवेषधारी पुरुष को उत्तर को रथ में चढ़ाकर शमीवृक्ष की ओर जाते देखा तो वे अर्जुन की आशंका करके मन-ही-मन बहुत डरे। तब शस्त्रविद्याविशारद द्रोणाचार्यजी ने पितामह भीष्म से कहा, 'गंगापुत्र ! यह जो स्त्रीेषधारी दिखायी देता है, वह इन्द्र का पुत्र कपिध्वज अर्जुन जान पड़ता है। वह अवश्य ही हमें युद्ध में जीतकर गौएँ ले जायगा। इस सेना में मुझे तो इसका सामना करनेवाला कोई भी योद्धा दिखायी नहीं देता। सुनते हैं कि हिमालय पर तपस्या करते समय अर्जुन ने किरातवेषधारी भगवान् शंकर को भी युद्ध करके प्रसन्न कर लिया था।' इसपर कर्ण बोला, 'आचार्य ! आप सदा ही अर्जुन के गुण गाकर हमारी निन्दा किया करते हैं, किन्तु वह मेरे और दुर्योधन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।' दुर्योधन ने कहा, 'और कर्ण ! यदि यह अर्जुन है, तब तो मेरा काम ही बन गया; क्योंकि पहचान लिये जाने के कारण अब पाण्डवोंको फिर बारह वर्ष तक वन में विचरना पड़ेगा। और यदि कोई दूसरा पुरुष नपुंसक के रूप में आया है तो मैं इसे अपने पैने वाणों से धराशायी कर ही दूँगा।' इधर अर्जुन रथ को शमीवृक्ष के पास ले गये और उत्तर से बोले, 'राजकुमार ! मेरी आज्ञा मानकर तुम शीघ्र ही इस वृक्ष पर से धनुष उतारो, ये तुम्हारे धनुष मेे बाहुबल को सहन नहीं कर सकेंगे। इस वृक्ष पर पाण्डवों के धनुष रखे हुए हैं।' यह सुनकर राजकुमार उत्तर रथ से उतर पडा और उसे विवश होकर उस वृक्ष पर चढ़ना पड़ा। अर्जुन ने रथ पर बैठ-बैठे ही फिर आज्ञा दी, 'इन्हें झटपट उतार लाओ, देरी मत करो और जल्दी ही इनके ऊपर जो वस्त्रादि लिपटे हुए हैं, उन्हे खोल दो। उत्तर पाण्डवों के उस अत्युतत्म धनुषों को लेकर नीचे उतरा और उनपर लिपटे हुए पत्तों को हटाकर उन्हे अर्जुन के आगे रखा। उत्तर को गाण्डीव के सिवा वहाँ चार धनुष और दिखायी दिये। उन सूर्य के समान तेजस्वी धनुष के खोलते ही सब ओर उनकी दिव्य कान्ति फैल गयी। तब उत्तर ने उन प्रभावपूर्ण और विशाल धनुषों को हाथ से छूकर पूछा कि 'ये किसके हैं ?" अर्जुन ने कहा---राजकुमार ! इनमें यह तो अर्जुन का सुप्रसिद्ध गाण्डीव धनुष है। यह संग्रामभूमि से शत्रुओं सेना को क्षणभर में नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है, तीनों लोकों में इसकी सुप्रसिद्धि है और यह सभी शस्त्रों से बढ़ा-चढ़ा है। यह अकेला ह एक लाख शस्त्रों की बराबरी करनेवाला है। अर्जुन ने इसी के द्वारा संग्राम में देवता और मनुष्यों को परास्त किया था। देख, यह चित्र विचित्र रंगों से सुशोभित, लचकीला और गाँठ आदि से रहित है। आरम्भ में एक हजार वर्ष तक तो इसे ब्रह्माजी ने धारण किया था। फिर पाँच सौ तीन वर्ष तक यह प्रजापति के पास रहा। उसके बाद पचासी वर्ष तक इसे इन्द्र ने धारण किया और पाँच स वर्ष तक चन्द्रमा ने तथा सौ वर्ष तक वरुण ने अपने पास रखा। अब पैंसठ वर्षकाल अर्थात् साढ़े बत्तीस साल से यह परम दिव्य धनुष अर्जुन के पास है; उसे यह वरुण से ही प्राप्त हुआ है। दूसरा जो सोने से मँढ़ा हुआ देवता और मनुष्यों से पूजित सुन्दर पीठवाला धनुष है, वह भीमसेन का है। शत्रुदमन भीम ने इसी से सारी पूर्व दिशा जीती थी। तीसरा यह इन्द्रगोप के चिह्नोंवाला मनोहर धनुष महाराज युधिष्ठिर का है। चौथा धनुष, जिसमें सोने के बने हुए सूर्य चमचमा रहे हैं, नकुल का है तथा जिसमें सुवर्ण के फतिंगे चित्रित हैं, वह पाँचवाँ धनुष माद्रीनन्दन सहदेव का है। उत्तर ने कहा---बृहनल्ले ! जिन शीघ्रपराक्रमी महात्माओं के ये सुनहले और सुन्दर आयुध इस प्रकार चमचमा रह हैं वे पृथापुत्र अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और भीमसेन कहाँ हैं ? वे तो सभी बड़े महानुभाव और शत्रुओं का संहार करनेवाले थे। जबसे उन्होंने जूए में अपना राज्य हारा है, तबसे उनके विषय में कुछ सुनने में नहीं आया। तथा स्त्रियों में रत्नस्वरूपा पांचालकुमारी द्रौपदी भी कहाँ है ? अर्जुन ने कहा---मैं ही पृथापुत्र अर्जुन हूँ, मुख्य सभासद् कंक युधिष्ठिर हैं, तुम्हारे पिता के रसोई पकानेवाले वल्लव भीमसेन हैं, अश्वशिक्षक ग्रंथिक नकुल हैं, गोपाल तंतिपाल सहदेव हैं और जिसके लिये कीचक मारा गया है, वह सैरन्ध्री द्रौपदी है। उत्तर बोला---मैने अर्जुन के दस नाम सुने हैं। यदि तुम मुझे उन नामों के कारण सुना दो तो मुझे तुम्हारी बात में विश्वास हो सकता है। अर्जुन ने कहा---मैं सारे देशों को जीतकर उनसे धन लाकर धन ही के बीच में स्थित था, इसलिये 'धनन्जय' हुआ। मैं जब संग्राम में जाता हूँ तो वहाँ से युद्धोन्मत्त शत्रुओं को जीते बिना कभी नहीं लौटता, इसलिये 'विजय' हूँ। संग्रामभूमि में युद्ध करते समय मेरे रथ में सुनहले साजवाले श्वेत अश्व जोते जाते हैं, इसलिये मैं 'श्वेतवाहन' हूँ। मैने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में दिन के समय हिमालय पर जन्म लिया था, इसलिये लोग मुझे 'फाल्गुण' कहने लगे। पहले बड़े-बड़े दानवों के साथ युद्ध करते समय इन्द्र ने मेरे सिर पर सूर्य के समान तेजस्वी किरीट पहनाया था, इसलिे मैं 'किरौटी' हूँ। मैं युद्ध करते समय कोई वीभत्स ( भयानक ) कर्म नहीं करता, इसी से देवता और मनुष्यों में 'वीभत्सु' नाम से प्रसिद्ध हूँ।गाण्डीव को खींचने में मेरे दोनो हाथ कुशल हैं, इसलिये देवता और मनुष्य मुझे 'सव्यसाची' नाम से पुकारते हैं। चारों समुद्रपर्यन्त पृथ्वी में मेरे जैसा शुद्ध-वर्ण दुर्लभ है, और मैं शुद्ध ही कर्म करता हूँ, इसलिये लोग मुझे 'अर्जुन' नाम से जानते हैं। मैं दुर्जय, दमन करनेवाला और इन्द्र का पुत्र हूँ; इसलिये देवता और मनुष्यों में 'विष्णु' नाम से विख्यात हूँ। मेरा दसवाँ नाम 'कृष्ण' पिताजी का रखा हुआ है, क्योंकि मैं उज्जवल कृष्णवर्ण तथा लाडला बालक होने के कारण चित्त को आकर्षित करनेवाला था। यह सुनकर विराटपुत्र ने अर्जुन को प्रणाम किया और कहा, 'मैं भूमिंजय नाम का राजकुमार हूँ और मेरा नाम उत्तर भी है। आज मेरा बड़ा सौभाग्य है जो मैं पृथापुत्र अर्जुन का दर्शन कर रहा हूँ। मैने आपको न पहचानने के कारण जो अनुचित शब्द कहे हैं, उनके लिये आप मुझे क्षमा करें। आप इस सुन्दर रथ में सवार होइये। मैं आपका सारथी बनूँगा और जिस सेना में आप चलने को कहेंगे, उसी में मैं आपको ले चलूँगा। अर्जुन ने कहा---पुरुषश्रेष्ठ ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ; तुम्हारे लिये कोई खटके की बात नहीं है, मैं संग्राम में तुम्हारे सब शत्रुओं के पैर उखाड़ दूँगा। तुम शान्त रहो और इस संग्राम में शत्रुओं के साथ लड़ते हुए मैं जो भीषण कर्म करूँ, वह देखते रहो। जिस समय मैं गाण्डीव धनुष लेकर रणभूमि में रथ पर सवार होऊँगा, उस समय शत्रुओं की सेना मुझे जीत नहीं सकेगी। अब तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। उत्तर ने कहा---अब मैं इनसे नहीं डरता; क्योंकि मैं अच्छी तह जानता हूँ कि आप संग्रामभूमि भगवान् श्रीकृष्ण और साक्षात् इन्द्र के सामने भी डट सकते हैं। अब तो मुझे आपकी सहायता मिल गयी है, इसलिेये मैं युद्धक्षेत्र में देवताओं से भी मुकाबला कर सकता हूँ। मेरा सारा भय भाग चुका है; बताइये, मैं क्या करूँ ? पुरुषश्रेष्ठ ! मैने अपने पिताजी से सारथि का काम सीखा था। इसलिये मैं आपके रथ के घोड़ों को अच्छी तरह संभाल लूँगा। इसके बाद अर्जुन ने शुद्धतापूर्वक रथ पर पूर्वाभिमुख बैठकर एकाग्रचित्त से समस्त अस्त्रों का स्मरण किया। उन्होंने प्रकट होकर हाथ जोड़कर कहा, 'पाण्डुकुमार ! आपके दास हम सब उपस्थित हैं।' अर्जुन ने कहा, 'तुम सब मेरे मन में निवास करो।' इस प्रकार अस्त्रों को ग्रहण करके अर्जुन का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया और उन्होंने गाण्डीव धनुष परडरी चढ़ाकर उसकी टंकार की। तब उत्तर ने कहा, 'पाण्डवश्रेष्ठ ! आप तो अकेले ही हैं, इन शस्त्रास्त्र के पराक्रमी अनेकों महारथियों को संग्राम में कैसे जीत सकेंगे---यह सोचकर तो आपके सामने मैं भी बहुत भयभीत हो रहा हूँ।' यह सुनकर अर्जुन खिलखिलाकर हँसने लगे और कहने लगे, 'वीर ! डरो मत। बताओ, कौरवों की घोषयात्रा के समय जब मैने महाबली गन्धर्वों से युद्ध किया था उस मय मेरा सहायक कौन था ? देवराज के लिये निवातकवच और पौलोम दैत्यों के साथ युद्ध करते समय मेरा कौन साथी था ? द्रौपदी के स्वयंवर में जब मझे अनेकों राजाओं का सामना करना पड़ा था, उस समय किसने मेरी सहायता की थी ? मैं गुरुवर द्रोणाचार्य, इन्द्र, कुबेर, यमराज, वरुण, अग्निदेव, कृपाचार्य, लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण और भगवान् शंकर---इन सबका आश्रय पा चुका हूँ। फिर भला, इनसे युद्ध क्यों नहीं कर सकूँगा। तुम इन मानसिक भयों को छोड़कर जल्दी से रथ हाँको।' इस प्रकार उत्तर को अपना सारथि बनाकर अर्जुन ने शमीवृक्ष की परिक्रमा की और अपने सब अस्त्र-शस्त्र लेकर अग्निदेव के दिये हुए रथ का ध्यान किया। ध्यान करते ही आकाश से एक ध्वजा-पताका से सुशोभित दिव्य रथ उतरा। अर्जुन ने उसकी प्रदक्षिणा की और इस वानर की ध्वजावाले रथ में बैठकर धनुष-बाण धारण किये उत्तर की ओर प्रस्थान किया। फिर उन्होंने अपना महान् शंख बजाया, जिसका भीषण घोष सुनकर शत्रुओं के रोंगटे खड़े हो गये। राजकुमार उत्तर को भी बड़ा भय मालूम हुआ और वह रथ के भीतरी भाग में घुसकर बैठ गया। तब अर्जुन ने रासें खींचकर घोड़ों को खड़ा किया और उत्तर को हृदय से लगाकर आश्वासन देते हुए कहा, 'राजपुत्र ! डरो मत। आखिर, तुम क्षत्रिय ही हो; फिर शत्रुओं के बीच में आकर घबराते क्यों हो ?' उत्तर ने कहा---मैने शंख और भेरिों के शब्द तो बहुत सुने हैं तथा सेना की मोर्चेबन्दी से खड़े हुए हाथियों की चिग्घाड़ सुनने का भी मुझे कई बार अवसर मिला है; किन्तु ऐसा शंख का शब्द तो मैने पहले कभी नहीं सुना। इसी से इस शंख के शब्द, धनुष की टंकार, ध्वजा में रहनेवाले अमानुषी भूतों की हुंकार और रथ की घरघराहट से मेरा मन बहुत ही घबरा रहा है। इस प्रकार बात करते-करते एक मुहूर्त तक आगे चलते रहने पर अर्जुन ने उत्तर से कहा, 'अब तुम रथ पर अच्छी तरह से बैठकर अपनी टाँगों से बैठने के स्थान को जकड़ लो तथा रासों को सावधानी से संभाल लो, मैं फिर शंख बजाता हूँ।' तब अर्जुन ने ऐसे जोर से शंखध्वनि की, मानो वे पर्वत, गुफा, दिशा और चट्टानों को विदीर्ण कर देंगे। उससे भयभीत होकर उत्तर फिर रथ के भीतर घुसकर बैठ गया। उस शंखध्वनि, गाण्डीव की टंकार और रथ की घरघराहट से धरती दहल उठी। अर्जुन ने उत्तर को फिर धैर्य बँधाया।

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