Thursday 19 May 2016

विराटपर्व---आचार्य कृप और द्रोण की पराजय

आचार्य कृप और द्रोण की पराजय
विराटकुमार ने रथ बढ़ाकर कृपाचार्य की प्रदक्षिणा की और फिर उनके सामने उसे ले जाकर खड़ा कर दिया। तदनन्तर, अर्जुन ने अपना नाम बताकर परिचय दिया और देवदत्त नामक बड़े भारी शंख को जोर से बजाया।  उससे इतनी ऊँची आवाज हुई, मानो पर्वत फट रहा हो। वह शंखनाद आकाश में गूँज उठा और उससे जो प्रतिध्वनि हुई, वह वज्रपात के समान जान पड़ी। युद्धार्थी महारथी कृपाचार्य ने भी अर्जुन पर कुपित हो अपना शंख जोर से बजाया। उसका शब्द तीनों लोकों में व्याप्त हो गया। फिर उन्होंने अपना महान् धनुष हाथ में ले उसकी टंकार की और अर्जुन के ऊपर दस हजार बाणों की बर्षा करके विकट गर्जना की। तब अर्जुन ने भल्ल नामक तीखा बाण मारकर कृपाचार्य का धनुष और हस्तत्राण काट दिया और कवच के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। किन्तु उनके शरीर को तनिक भी क्लेश नहीं पहुँचाया। कृपाचार्य ने दूसरा धनुष उठाया, पर अर्जुन ने उसे भी काट दिया। इस प्रकार जब कृपाचार्य के कई धनुष काट डाले तो उन्होंने प्रज्जवलित वज्र के समान दमकती हुई एक शक्ति अर्जुन के ऊपर फेंकी। आकाश से उल्का के समान अपने ऊपर आती हुई उस शक्ति को अर्जुन ने दस बाण मारकर काट डाला। फिर एक बाण से कृपाचार्य के रथ का जुआ काट दिया, चार बाण से चारों घोड़े मार दिये और छठे बाण से सारथी का सिर धड़ से अलग कर दिया। धनुष, रथ, घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर कृपाचार्य हाथ में गदा लेकर कूद पड़े और उसे अर्जुन के ऊपर फेंका। यद्यपि कृपाचार्य ने उस गदा को बहुत संभालकर चलाया था, तो भी अर्जुन ने बाण मारकर उसे उलटे लौटा दिया। तब कृपाचार्य की सहायता करनेवाले योद्धा कुन्तीनन्दन को चारों ओर से घेरकर बाण बरसाने लगे। यह देख विराटकुमार उत्तर ने घोड़ों को वामावर्त घुमाया और 'यमक' नामक मण्डल बनाकर शत्रुओं की गति रोक दी। तब वे रथहीन कृपाचार्य को साथ ले अर्जुन के निकट से भाग गये। जब कृपाचार्य रणभूमि से हटा लिये गये तो लाल घोड़ोंवाले रथ पर बैठे हुए आचार्य द्रोण धनुष-बाण से सुसज्जित हो अर्जुन के ऊपर चढ़ गये। दोनो ही अस्त्रविद्या के पूर्ण ज्ञाता, धैर्यवान् और महान् बलवान् थे; दोनो ही युद्ध में पराजित होनेवाले नहीं थे। इन दोनो गुरु-शिष्यों की आपस में मुठभेड़ होते देख भरतवंशियों की वह विशाल सेना बारम्बार काँपने लगी। महारथी अर्जुन अपना रथ द्रोणाचार्य के पास ले गया और अत्यन्त हर्ष में भरकर मुस्कराते हुए अपने गुरु को प्रणाम करके कहा---'युद्ध में सदा ही विजय पानेवाले गुरुदेव ! हमलोग आजतक तो वन में भटकते रहे हैं, अब शत्रुओं से बदला लेना चाहते हैं; आपको हमलोगों पर क्रोध नहीं करना चाहिये। जबतक आप मुझपर प्रहार नहीं करेंगे, मैं भी आपपर अस्त्र नहीं छोड़ूँगा---ऐसा मैने निश्चय कर लिया है; इसलिये पहले आप मुझपर प्रहार करें।' तब आचार्य द्रोण ने अर्जुन को लक्ष्य करके इक्कीस बाण मारे; वे बाण अभी पहुँचने भी नहीं पाये थे कि अर्जुन ने बीच में ही काट डाले। इसके बाद उन्होंने अर्जुन के रथ पर हजार बाण की वर्षा करते हुए अपना अद्भुत हस्तलाघव दिखाया, तथा उनके श्वेतवर्णवाले घोड़ों को भी घायल किया। इस प्रकार दोनो-ही-दोनो पर समान भाव से बाण-बर्षा करने लगे। दोनो ही विख्यात पराक्रमी और अत्यन्त तेजस्वी थे। दोनो का वेग वायु के समान तीव्र था और दोनो ही दिव्यास्त्रों का प्रयोग जानते थे। अतः बाणों की झड़ी लगाते हुए वे वहाँ खड़े हुए राजाओं को मोहित करने लगे। युद्ध के मुहाने पर खड़े हुए वीर विस्मय के साथ कहते थे, 'भला अर्जुन के सिवा दूसरा कौन है जो युद्ध में द्रोणाचार्यका सामना कर सके। क्षत्रिय का धर्म भी कितना कठोर है, जिसके कारण अर्जुन को गुरु के साथ लड़ना पड़ रहा है।' द्रोणाचार्य ऐन्द्र, वायव्य और आग्नेय आदि जो-जो अस्त्र अर्जुन पर छोड़ते थे, उन सबको यह दिव्यास्त्रों के द्वारा नष्ट कर देता था। आकाशचारी देवता आचार्य द्रोण की प्रशंसा करते हुए कहते, 'सब देवताओं और दैत्यों पर विजय पानेवाले प्रबल प्रतापी अर्जुन के साथ जो द्रोणाचार्य ने युद्ध किया, वह बड़ा ही दुष्कर कार्य है।' अर्जुन को युद्ध कला की अच्छी शिक्षा मिली थी; वह निशाना मारने में भी चूकता नहीं था, उसके हाथों में बड़ी फुर्ती थी और वह दूरतक अपने बाण फेंकता था। यह सब देखकर आचार्य द्रोण को भी बड़ा विस्मय होता। गाण्डीव धनुष को ऊपर उठाकर अमर्ष में भरा हुआ अर्जुन जब दोनो हाथों से खींचता, उस समय टिड्डियों के समान बाणों की बर्षा से आकाश छा जाता और देखनेवाले आश्चर्य में पड़कर धन्य-धन्य कहकर उसकी सराहना करने लगते थे। जब आचार्य के रथ के पास लाखों बाणों की वर्षा होने लगी और वे रथ सहित ढ़क गये, तब उस सेना में बड़ा हाहाकार मच गया। द्रोणाचार्य के रथ की ध्वजा कट गयी थी, कवच के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे और उनका शरीर भी वाणों से क्षत-विक्षत हो रहा था; अतः वे जरा सा मौका मिलते ही अपने शीघ्रगामी घोड़ों को हाँककर तुरंत रणभूमि के बाहर हो गये।

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