भीम का सर्प के चंगुल में फँसना और युधिष्ठिर के द्वारा सर्प के प्रश्नों के उत्तर
महाबली भीम जो दस हजार हाथियों से भी अधिक बलशाली थे फिर भी एक सर्प से डर गये इसकी भी कहानी है। भीम आश्रम से निकलकर धीरे-धीरे जा रहे थे, इतने में उनकी दृष्टि विशाल अजगर पर पड़ी, जो एक पर्वत की कन्दरा में पड़ा हुआ था। उसके पर्वत के समान विशाल शरीर से सारी गुफा रुकी हुई थी। उसे देखते ही भय के मारे शरीर के रोएँ खड़े हो जाते थे। उसके शरीर की कान्ति हल्दी के समान पीले रंग की थी, मुँह पर्वत की गुफा के समान था, उसमें चार चमकीली डाढ़ें थीं। उसकी लाल-लाल आँखें मानो आग उगल रहीं थीं। वह जीभ से बारम्बार अपने जबड़े चाट रहा था। वह अजगर काल के समान विकराल और समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला था। उसके साँस लेने से जो फूत्कार शब्द होता था, उससे मानो वह सब जीवों का तिरस्कार कर रहा था। भीमसेन को सहसा निकट पाकर वह महासर्प अत्यन्त क्रोध में भर गया और उसने बलपूर्वक दोनो भुजाओं सहित उनके शरीर को लपेट लिया। अजगर को मिले हुए वर के प्रभाव से उसका स्पर्श होते ही भीमसेन की चेतना लुप्त हो गयी। यद्यपि उनकी भुजाओं में दस हजार हाथियों का बल था, तो भी वह सर्प के चंगुल में फँसकर बेकाबू हो गये और धीरे-धीरे छूटने के लिये तड़फड़ाने लगे; मगर उसने ऐसा बाँध लिया कि वे हिल भी न सके। भीमसेन के पूछने पर उस अजगर ने अपने पूर्वजन्म का परिचय दिया तथा शाप और वरदान की कथा भी सुनायी। भीमसेन ने उससे बहुत अनुनय-विनय की,फिर भी वे सर्प के बन्धन से छुटकारा न पा सके। इधर राजा युधिष्ठिर बड़े भयंकर अनिष्टकारी उत्पात देखकर घबरा उठे। उनके आश्रम के दक्षिण वन में भयानक आग लगी और उससे डरी हुई गीदड़ी अमंगलसूचक स्वर में दारुण चित्कार करने लगी। हवा प्रचंड वेग से बहने
लगी, रेत और कंकड़ों की वर्षा शुरु हो गयी। साथ ही युधिष्ठिर का बायाँ हाथ भी फरकने लगा। ये सब अपशगुन देखकर
बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर समझ गये कि हमलोगों पर कोई महान् भय उपस्थित हुआ है। उन्होंने
द्रौपदी से कहा, 'भीमसेन कहाँ हैं ?' द्रौपदी बोली---'उन्हें तो वन में गये बहुत देर
हुई।' यह सुनकर वे स्वयं तो धौम्य मुनि को साथ लेकर भीम की खोज में चले, अर्जुन को
द्रौपदी की रक्षा का कार्य सौंपा और नकुल-सहदेव को विद्वानों की सेवा में नियुक्त किया।
भीम के पैरों का चिह्न देखते हुए वे उस वन में भीम की खोज करने लगे। ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते
पर्वत के दुर्गम प्रदेश में जाकर उन्होंने देखा कि एक महान् अजगर ने उन्हें जकड़ लिया
है और वे निश्चेष्ट हो गये हैं। उनको इस अवस्था में देखकर धर्मराज ने पूछा, 'भीम !
वीरमाता कुन्ती के पुत्र होकर तुम इस आपत्ति में कैसे फँस गये ? यह पर्वताकार अजगर
कौन है ?'बड़े भाई धर्मराज को देखकर भीम ने अपना सब समाचार कह सुनाया कि किस प्रकार सर्प के चंगुल में फँसकर वे चेष्टाहीन हो गये हैंऔर अन्त में कहा--'भैया ! यह महाबली सर्प मुझे खा जाने के लिये पकड़े हुए है।' युधिष्ठिर ने सर्प से कहा---आयुष्मान् ! तुम मेरे इस अनन्त पराक्रमी भाई को छोड़ दो। तुम्हारी भूख मिटाने के लिए मैं तुम्हे दूसरा आहार दूँगा। सर्प बोला---यह राजकुमार मेरे मुख के पास स्वयं आकर मुझे आहाररूप में प्राप्त हुआ है। तुम यहाँ से चले जाओ, यहाँ रुकने में कल्याण नहीं है। अगर रुके रहोगे तो कल तुम भी मेरे आहार बन जाओगे। युधिष्ठिर ने कहा---सर्प ! तुम कोई देवता हो या दैत्य अथवा
वास्तव में सर्प ही हो ? सच बताओ, तुमसे युधिष्ठिर प्रश्न कर रहा है ! भुजंगम् ! बोलो
तो सही, है कोई ऐसी वस्तु जिसे पाकर अथवा जानकर तुम्हे प्रसन्नता हो ? तुम भीमसेन को
कैसे छोड़ सकते हो ? सर्प बोला---राजन् ! मैं पहले जन्म में तुम्हारा पूर्वज नहुष नाम
का राजा था। चन्द्रमा से पाँचवीं पीढ़ी में जो आयु नामक राजा हुए थे, उन्हीं का मैं
पुत्र हूँ। मैने अनेकों यज्ञ किये, तपस्या की, स्वाध्याय किया तथा अपने मन और इन्द्रियों
पर विजय प्राप्त की। इन सब सत्कर्मों तथा अपने पराक्रम से भी मुझे तीनों लोकों का एश्वर्य
प्राप्त हुआ था। उस एश्वर्यको पाकर मेरा अहंकार बढ़ गया। मैने मदोन्मत्त होकर सभी का
अपमान किया, उससे कुपित हो महर्षि अगस्त्य ने मुझे इस अवस्था तक पहुँचा दिया। महाराज
अगस्त्य की कृपा से ही आजतक मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई है। ऋषि के शाप
के अनुसार दिन के छठे भाग में तुम्हारा यह भाई मुझे भोजन के रूप में प्राप्त हुआ है;
अतः न तो इसे छोड़ूँगा और न इसके बदले कोई दूसरा आहार लूँगा। किन्तु एक बात है; यदि
तुम मेरे पूछे हुए कुछ प्रश्नों का उत्तर अभी दे दोगे तो उसके बाद तुम्हारे भाई भीमसेन
को मैं अवश्य छोड़ दूँगा। युधिष्ठिर ने कहा---सर्प ! तुम इच्छानुसार प्रश्न करो। यदि
मुझसे हो सकेगा तो तुम्हारी प्रसन्नता के लिये अवश्य सब प्रश्नों का उत्तर दूँगा। सर्प ने पूछा---राजा युधिष्ठिर ! बताओ, ब्राह्मण कौन है ? और जानने योग्य तत्व क्या है ? युधिष्ठिर बोले---नागराज ! सुनो। जिसमें सत्य, दान, क्षमा, सुशीलता, क्रूरता का अभाव, तपस्या, दया---ये सब सद्गुण दिखाई दें, वही ब्राह्मण है; ऐसा स्मृतियों का सिद्धान्त है। और जानने योग्य तत्व तो वह परम-ब्रह्म ही है, जो सुख-दुःख से परे है और जहाँ पहुँचकर या जिसे जानकर मनुष्य शोक के पार हो जाता है। सर्प बोला---युधिष्ठिर
! ब्रह्म और सत्य तो चारों वर्णों के लिये हितकर तथा प्रमाणभूत हैं तथा वेद में बताये
हुए सत्य, दान, क्रोध का अभाव, क्रूरता का न होना, अहिसा और दया आदि सद्गुण तो शूद्रों
वर्गों में भी पाये जाते हैं; अतः तुम्हारी मान्यता के अनुसार तो वे भी ब्राह्मण कहे
जा सकते हैं। इसके सिवा,जो तुमने दुःख और सुख रहित जानने योग्य पद्य बतलाया है, उसमें
भी मुझे आपत्ति है। मेरे विचार में तो यह आता है कि सुख और दुःख दोनो से रहित कोई दूसरा
पद है ही नहीं। युधिष्ठिरने कहा---यदि शूद्र में सत्य आदि उपर्युक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण
में नहीं है तो वह शूद्र शूद्र नहीं है और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। हे सर्प
! जिसमें ये सत्य आदि लक्षण हों, उन्हें ब्राह्मण समझना चाहिये। तथा यह जो तुमने कहा
कि सुख दुःख से रहित कोई दूसरा पद है ही नहीं, सो तुम्हारा यह मत ठीक है। वास्तव में
जो अप्राप्त है और कर्मों से ही प्राप्त होनेवाला है, ऐसा पद कोई भी क्यों न हो, सुख-दुःख
से शून्य नहीं है। किंतु जिस परकार शीतल जल में उष्णता नहीं रहती तथा उष्ण स्वभाववाले
अग्नि में जल की शीतलता नहीं होती, क्योंकि इसमें परस्पर विरोध है, इसी प्रकार जो वेदय
पद है, जिसे केवल अज्ञान का आवरण दूर करके अपने से अभिन्न समझना है, उसका कभी और कहीं
भी वास्तविक सुख-दुःख से सम्पर्क नहीं होता। सर्प बोला---राजन् ! यदि तुम आचार से ही
ब्राह्मण की परीक्षा करते हो तब तो जबतक उसके अनुसार कर्म न हो जाति व्यर्थ ही है।
युधिष्ठिर ने कहा---मेरे विचार से तो मनुष्यों में जाति की परीक्षा करना बहुत ही कठिन
है। बोल-चाल तथा जन्म-मरण ---ये सब मनुष्यों में एक से देखे जाते हैं। जिसमें संस्कार
के साथ शील और सदाचार का विकास हो, उसे ब्राह्मण बताया जाता है। सर्प बोला---युधिष्ठिर
! तुम जानने योग्य सभी कुछ जानते हो; तुमने तो मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया, उसे मैने
भली-भाँति सुन लिया। अब मैं तुम्हारे भाई भीमसेन को कैसे खा सकता हूँ ?
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