Tuesday 13 October 2015

वनपर्व---अर्जुन के द्वारा कालिकेय और पौलोमों के साथ युद्ध और स्वर्ग से विदाई का वर्णन

अर्जुन के द्वारा कालिकेय और पौलोमों के साथ युद्ध और स्वर्ग से विदाई का वर्णन        अर्जुन कहते हैं---लौटते समय मार्ग में मुझे एक दूसरा दिव्य नगर दिखाई दिया। वह बहुत ही विस्तृत और अग्नि एवं सूर्य के समान कान्तिवाला था। उसे इच्छानुसार चाहे जहाँ ले जाया जा सकता था। उसमें भी दैत्यलोग ही रहते थे। उस विचित्र नगर को देखकर मैने मातलि से पूछा, 'यह अद्भुत् स्थान क्या है ?' मातलि ने कहा, 'पुलोमा और कालिका नाम की दो दानवियाँ थीं। उन्होंने सहस्त्र दिव्य वर्ष तक बड़ी कठोर तपस्या की। तप के अन्त में जब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा तब उन्होंने माँगा कि हमारे पुत्रों को  थोड़ा सा भी कष्ट न हो, देवता राक्षस या नाग---कोई भी उन्हें मार न सके तथा उनके रहने के लिये अत्यन्त रमणीय, प्रकाशपूर्ण तथा आकाशचारी नगर हो। तब ब्रह्माजी ने कालिका के पुत्रों के लिये सब प्रकार के रत्नों से सुसज्जित, देवताओं के लिये भी अजेय , सब प्रकार के अभीष्ट भोगों से पूर्ण तथा रोग-शोक से रहित यह नगर तैयार किया। इसे महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर या राक्षस--- कोई भी नहीं जीत सकते। यह नगर आकाश में भी उड़ता रहता है। इसमें कालिका और पुलोमा के पुत्र ही रहते हैं। ये लोग सब प्रकार के उद्वेग और चिन्ता से दूर रहकर बड़े आनन्द से इसमें निवास करते हैं। कोई भी देवता इन्हें जीत नहीं सकता। ब्रह्माजी ने इनकी मृत्यु मनुष्य के हाथ रखी है, अतः तुम वज्र द्वारा इन दुर्जय और महाबली दैत्यों का अन्त कर दो।' तब मैने प्रसन्न होकर मातलि से कहा, 'अच्छा, तुम अभी मुझे इस नगर में ले चलो। जो दुष्ट देवराज से द्रोह करते हैं, उन्हें मैं अभी तहस-नहस कर डालूँगा।' मातलि तुरंत ही मुझे सुवर्णमय नगर के पास ले गया। मुझे देखकर वे दैत्य कवच धारणकर, रथों में सवार हो बड़े वेग से मेरे ऊपर टूट पड़े और अत्यन्त क्रोध में बैठकर मेरे ऊपर नालीक, नाराच, भाले, शक्ति, ऋष्टि और तोमरों से वार करने लगे। तब मैने अपनी अस्त्रविद्या के बल से भीषण वाणवर्षा कर उनकी शस्त्रवृष्टि को रोक दिया और उन सब को मोहित कर दिया, जिससे वे आपस में ही एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। उनकी इस मुग्धावस्था में ही मैने अनेकों चमचमाते हए वाण छोड़कर सैकड़ों के सिर काट डाले। जब उनका इस प्रकार नाश होने लगा तो वे अपने नगर में ही घुस गये और माया द्वारा उस पुरी के सहित आकाश में उड़ गये। तब दिव्यास्त्रों के द्वारा छोड़े हुए शरसमूह से मैने दैत्यों के सहित उस नगर को घेर लिया। मेरे छोड़े हुए लोहे के वाण सीधे पार निकल जाने वाले थे। उनसे टूट-टूटकर वह दैत्यों का नगर पृथ्वी पर गिर गया। फिर तो मुझसे युद्ध करने के लिये उनमें से साठ हजार रथी क्रोधित होकर मरे ऊपर चढ़ आये और मुझे चारों ओर से घेर लिया। किन्तु मैने पैने-पैने वाण छोड़कर उन सभी को नष्ट कर दिया। थोड़ी ही देर में समुद्र की लहरों के समान एक दूसरा दल चढ़ आया।तब मैने यह सोचकर कि मानवी युद्ध से इनपर विजय पाना कठिन है, धीरे-धीरे दिव्य अस्त्रों का प्रयोग आरम्भ कर दिया। किन्तु वे दैत्य रथी बड़े ही विचित्र योद्धा थे। वे मेरे दिव्य अस्त्रों को भी काटने लगे। तब मैने देवाधिदेव महादेवजी की शरण ली और उनका सुप्रसिद्ध पाशुपतास्त्र गाण्डीव धनुष पर चढ़ाया। फिर भगवान् त्रिनयन को मन-ही-मन प्रणाम कर उन दैत्यों का नाश करने के लिये उसे छोड़ दिया। उसकी प्रचण्ड मार से दैत्य बात-की-बात में नष्ट हो गये। राजन् ! इस प्रकार एक मुहूर्त में ही मैने उन दानवों का अन्त कर डाला।इस प्रकार उन दैत्यों को रौद्रास्त्र के प्रभाव से नष्ट हुआ देख मातलि को बड़ा ही हर्ष हुआ और उसने अत्यन्त प्रसन्न होकर हाथ जोड़कर कहा, 'यह आकाशचारी नगर देवता, दैत्य सभी के लिये अजेय था। किन्तु अपने पराक्रम और तपोबल से तुमने इसे चूर-चूर कर दिया।' उस युद्ध में विजय पाकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ। फिर सारथि मातलि मुझे रणभूमि से तुरंत ही इन्द्र के राजभवन में ले गया। वहाँ पहुँचकर मातलि ने सारा वृतांत ज्यों-का-त्यों सुना दिया। यह सब समाचार सुनकर महाराज इन्द्र बड़े प्रसन्न  हुए। और उन्होंने ये मधुर वचन कहे, 'पार्थ ! तुमने संग्राम में देवता और असुरों से भी बढ़कर काम किया है। मेरे शत्रुओं का संहार करके तुमने अपनी गुरुदक्षिणा चुका दी है। अब देवता, दानव, यक्ष,राक्षस, असुर, गन्धर्व तथा पक्षी और नाग---सभी के लिये तुम युद्ध में अजेय हो गये हो। अतः तुम्हारे बहुबल से जीती  हुई पृथ्वी पर धर्मराज युधिष्ठिर निष्कण्टक राज्य करेंगे।' फिर राजा इन्द्र ने मुझे शरीर की रक्षा करनेवाला यह दिव्य अभेद्य कवच और यह सोने की माला प्रदान की। साथ ही उन्होंने यह देवदत्त नाम का शंख भी दिया, जिसकी आवाज बहुत ऊँची है, और यह दिव्य किरीट तो स्वयं अपने हाथ से मेरे मस्तक पर रखा। इसके बाद उनहोंने ये बहुत ही सुन्दर दिव्य वस्त्र और आभूषण भी मुझे प्रदान किये। इस प्रकार इन्द्र से सम्मानित होकर मैं वहाँ गन्धर्वकुमारों के साथ बड़े आनन्दपूर्वक रहा। वहाँ मेरे पाँच वर्ष बीते। एक दिन इन्द्र ने मुझसे कहा, 'अर्जुन ! अब तुम्हे यहाँ से जाना चाहिये। तुमहारे भाई तुम्हे याद कर रहे हैं।' इससे मैं यहाँ चला आया और आज इस गन्धमादन पर्वत के शिखर पर भाइयों सहित आपका दर्शन किया है। युधिष्ठिर बोले---यह हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया है। अर्जुन ! अब मैं उन दिव्य अस्त्रों को देखना चाहता हूँ ; जिससे तुमने वैसे बलवान् निवातकवचों का वध किया है। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन ने देवताओं के दिए हुए उन दिव्य अस्त्रों को दिखाने का विचार किया। पहले तो वे विधिपूर्वक स्नानकरके शुद्ध हुए, फिर अपने अंगों में परम कान्तिमान दिव्य कवच धारण कर लिया। एक हाथ में गाण्डीव धनुष और दूसरे हाथ में देवदत्त शंख ले लिया। इस प्रकार वीरोचित वेष से सुशोभित हो महाबाहु अर्जुन ने उन दिव्यास्त्रों को क्रमशः दिखाना आरम्भ किया। जिस समय उन अस्त्रों का प्रयग आरम्भ हुआ, पृथ्वी वृक्षों सहित काँप उठी, नदी और समुद्रों में उफान आ गया, पर्वत फटने लगे, वायु की गति रुक गयी, सूर्य की कान्ति फीकी पड़ गयी और जलती हुई आग भी बुझ गयी। तदनन्तर समस्त ब्रह्मर्षि, सिद्ध, महर्षि, संपूर्ण प्राणी, देवर्षि तथा स्वर्गवासी देवता---सब-के-सब वहाँ आकर उपस्थित हुए। लोकपितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकर भी अपने गणों सहित वहाँ पधारे। फिर सब देवताओं ने नारदजी को अर्जुन के पास भेजा। वे आकर अर्जुन से बोले---'अर्जुन ! अर्जुन ! ठहरो, इस समय इन दिव्यास्त्रों का प्रयोग न करो। बिना किसी लक्ष्य के दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं किया जाता। यदि कोई शत्रु लक्ष्य हो तो भी जबतक वह अपने ऊपर प्रहार करके कष्ट न पहुँचाये, तबतक उसपर भी दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। अन्यथा इनके व्यर्थ प्रयोग करने से महान् अनर्थ हो जाता है। यदि नियमानुसार तुम इनकी रक्षा करोगे तो ये शक्तिशाली और तुम्हे सुख देनेवाले होंगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। । यदि तुम व्यर्थ प्रयोग से इनकी रक्षा नहीं की तो ये त्रिलोकी का नाश कर डालेंगे। युधिष्ठिर ! तुम भी इसको इस समय देखने का लोभ छोड़ो; युद्ध में शत्रुओं का मर्दन करते समय जब अर्जुन इन दिव्यास्त्रों का प्रयोग करें, तब देख लेना।' इस प्रकार जब नारदजी ने अर्जुन को दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने से रोक दिया, तब सब देवता तथा अन्य प्राणी, जो जहाँ से आये थे, वहाँ चले गये और पाण्डव भी द्रौपदी के साथ उस वन में प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।
  

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