Wednesday 28 October 2015

वनपर्व----काम्यक वन में पाण्डवों के पास श्रीकृष्ण और मार्कण्डेय मुनि का आना

काम्यक वन में पाण्डवों के पास श्रीकृष्ण और मार्कण्डेय मुनि का आना
जिन दिनों पाण्डवलोग सरस्वती के तट पर निवास करते थे, उसी समय वहाँ कार्तिक की पूर्णिमा का पर्व लगा। उस अवसर पर पाण्डवों ने बड़े-बड़े तपस्वियों के साथ सरस्वती तीर्थ पर पर्व के अनुसार पुण्यकर्म किये और कृष्णपक्ष का आरंभ होते हीवे धौम्य मुनि के साथ सारथि और आगे चलनेवाले सेवकों सहित काम्यक वन को चल दिये। वहाँ पहुँचने पर मुनियों ने उनका अतिथि सत्कार किया और वे द्रौपदी के सहित वहीं रहने लगे। एक दिन एक ब्राह्मण जो अर्जुन का प्रिय मित्र था, वह संदेश लेकर आया कि 'महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ जल्द ही पधारनेवाले हैं। भगवान् को यह मालूम हो चुका है कि आपलोग इस वन में आ गये है। वे सदा ही आपलोगों से मिलने को उत्सुक रहते हैं और आपके कल्याण की बातें सोचा करते हैं। दूसरा शुभ समाचार यह है कि स्वध्याय और तपस्या में लगे रहनेवाले महात्मा मार्कण्डेयजी भी शीघ्र आपलोगों से मिलेंगे। यह बातें हो ही रही थी कि देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामा के साथ रथ पर बैठकर वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने रथ से नीचे उतरकर बड़े हर्ष से धर्मराज युधिष्ठिर और महाबली भीम के चरणों में प्रणाम करके फिर धौम्य मुनि का पूजन किया। फिर नकुल और सहदेव ने उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद भगवान् अर्जुन को हृदय से लगाकर मिलेऔर द्रौपदी को अपनी मीठी बातों से शान्त्वना दी। इसी प्रकार श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा भी द्रौपदी से गले लगकर मिलीं। इस प्रकार शिष्टाचार समाप्त होने पर सभी पाण्डवों ने अपनी पत्नी द्रौपदी और पुरोहित धौम्य मुनि के साथ श्रीकृष्ण का सत्कार किया और उन्हें सब ओर से घेरकर बैठ गये। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा---पाण्डवश्रेष्ठ ! धर्म का पालन राज्य की प्राप्ति से बढ़कर बताया गया है, धर्म की हीप्राप्ति के लिये शास्त्र तप का उपदेश देते हैं। तुमने सत्यभाषण और सरल व्यवहार के द्वारा अपने धर्म का पालन करते हुए इहलोक और परलोक दोनो पर विजय प्राप्त कर ली है। तुम किसी कामना के लिये नहीं, नष्काम भाव से शुभ कर्मों का आचरण करते हो। धन के लोभ से भी स्वधर्म का त्याग नहीं करते। इसके ही प्रभाव से तुम धर्मराज कहलाते हो। तुममें दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि, क्षमा और धैर्य सबकुछ है। राज्य, धन और भोगों को पाकर भी तुमने इन सद्गुणों से सदा ही प्रेम रखा है। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी। तत्पश्चात् भगवान् द्रौपदी से बोले---'याज्ञसेनि ! तुम्हारे पुत्र बड़े ही सुशील हैं, धनुर्वेद सीखने में उनका बड़ा ही अनुराग है। वे अपने मित्रों के साथ रहकर सदा ही सत्पुरुषों के आचार का पालन करते हैं। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न जिस प्रकार अनिरुद्ध और अभिमन्यु को अस्त्रशिक्षा देता है, वैसे ही तुम्हारे प्रतिविन्ध्य आदि पुत्रों को भी सिखलाता है। इस प्रकार द्रौपदी को उनके पुत्रों का कुशल समाचार सुनाकर श्रीकृष्ण ने पुनः धर्मराज से कहा---'राजन् ! दशार्ह, कुकुर और अंधक वंशों के वीर सदा आपकी आज्ञा का पालन करेंगे और आप उन्हें जहाँ चाहेंगे, वहीं खड़े रहेंगे। आपकी प्रतिज्ञा का समय पूरा होते ही दशार्हवंशी योद्धा आपके शत्रुओं की सेना का संहार कर डालेंगे। फिर आप सदा के लिये शोकरहित हो अपना राज्य प्राप्त कर हस्तिनापुरमें प्रवेश करेंगे।युधिष्ठिर ने पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के विचार अपने अनुकूल जानकर उनकी प्रशंसा की और उनकी ओर एकटक दृष्टि से देखते हुए हाथ जोड़कर कहा---'केशव ! इसमें तनिक भी सदेह नहीं कि पाण्डवों के केवल आप ही सहारे हैं, कुन्ती के पुत्र आपकी ही शरण में हैं। हमें विश्वास है, समय आने पर आप हमारे लिये, जो कुछ कह रहे हैं उससे भी बढ़कर कार्य करेंगे।हमलोगों ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार प्रायः बारह वर्षों का समय निर्जन वन में घूम-फिरकर व्यतीत कर दिया है। अब विधिपूर्वक अज्ञातवास की अवधि पूरी करके ये पाण्डव आपकी ही शरण लेंगे। इस प्रकार श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर जब बात कर रहे थे उसी समय हजारों वर्षों की आयुवाले तपोवृद्ध महात्मा मार्कण्डेयजी वहाँ दर्शन दिया।   मार्कण्डेयजी अजर-अमर हैं, वे रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त हैं। वे देखने में ऐसे जान पड़ते हैं जैसे पच्चीस वर्ष का तरुण हो।वहाँ पधारने पर समस्त पाण्डवों तथा भगवान् श्रीकृृष्ण ने उनका स्वागत किया। इसी समय देवर्षि नारद भी वहाँ आ पहुँचे। पाण्डवों ने उनका भी यथायोग्य स्वागत किया। इसे बाद कथा का प्रसंग उपस्थित करने के लिये धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से इस प्रकार प्रश्न किया--"मुने ! आप सबसे प्राचीन हैं, देवता, दैत्य, ऋषि, महात्मा और राजर्षि---सबका चरित्र आपको विदित है। इसलिये मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। धर्म का पालन करने पर भी जब मैं अपने को सुखों से वंचित पाता हूँ और सदा दुराचार में ही लगे रहनेवाले दुर्योधन आदि को सर्वथा ऐश्वर्यशाली होे देखता हूँ तो मरे मन में प्रायः यह प्रश्न उठा करता है कि पुरुष जिन शुभ अथवा अशुभ कर्मों का आचरण करता है उनका फल किस तरह भोगता है और ईश्वर कर्मों का नियन्ता किस प्रकार होता है ? मनुष्य को सुख अथवा दुःख मिलने में क्या कारण है ?" मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है वह बिलकुल ठीक है। मनुष्य इस लोक अथवा परलोक में कैसे-कैसे सुख का उपभोग करता है---इस विषय में मैं जो कुछ बताऊँ उसे ध्यान देकर सुनो। सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। उन्होंने जीवों के लिये निर्मल और विशुद्ध शरीर बनाये, साथ ही शुद्ध धर्म का ज्ञान कराने वाले उत्तम धर्मशास्त्रों को प्रकट किया। उस समय के सभी मनुष्य उत्तम धर्मों का पालन करनेवाले थे। उनका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं जाता था। वे सदा ही सत्यभाषण किया करते थे। सब-के-सब मनुष्य ब्रह्भूत, पुण्यात्मा और दीर्घायु होते थे। सभी स्वच्छन्दतापूर्वक आकाशमार्ग से उड़कर दवताओं से मिलने जाते और स्वच्छन्दचारी होने के कारण जब इच्छा हुई पुनः लौट आते थे। वे अपनी इच्छा होने पर भी मरते और इच्छा के अनुसार ही जीवित रहते थे। उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं सताती थी और न ही किसी परकार का भय ही होता था। वे उपद्रव से रहित, पूर्णकाम, सभी धर्मों को प्रत्यक्ष करनेवाले, जितेन्द्रिय और राग-द्वेष से रहित होते थे। उनकी आयु हजार वर्षों की होती थी और वे हजार-हजार संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखते थे। इसके बाद कालान्तर में मनुष्यों की आकाश-गति बन्द हो गयी। लोग पृथ्वी पर विचरने लगे, उनपर काम, क्रोध का अधिकार हो गया। वे छल-कपट से जीविका चलाने लगे और लोभ तथा मोह के वशीभूत हो गये। इसलिये इस शरीर पर उनका अधिकार न रहा। वे बार-बार जन्म-मरण का क्लेश भोगने लगे। उनकी कामनाएँ, उनके संकल्प और उनका ज्ञान--सभी निष्फल हो गये। सभी सबपर संदेह करके एक-दूसरे को क्लेश देने लगे। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत हुए पापियों की उनके कर्मानुसार आयु भी कम हो गयी। हे कुन्तीनन्दन ! इस संसार में मृत्यु के पश्चात् जीव की गति उसके कर्मों के अनुसार ही होती है। यमराज के नियत किये हुए पुण्य-पाप कर्मों के फल का उपभोग करनेवाला जीव प्राप्त हुए सुख-दुःख को दूर करने में समर्थ नहीं है। कोई प्राणी इस लोक में सुख पाता है और परलोक में दुःख। किसी को परलोक में सुख मिलता है और इस लोक में दुःख।किसी को दोनो ही लोकों में सुख मिलता है तो किसी को दोनो ही लोकों में दुःख उठाना पड़ता है। जिनके पास बहुत धन होता है, वे अपने शरीर को हर तरह से सजाकर नित्य आनन्द भोगते हैं। अपने देह के ही सुख में आसक्त हुए उन मनुष्यों को केवल इसी लोक में सुख मिलता है। परलोक में तो उनके लिये सुख का नाम भी नहीं है। जो पहले धर्म का आचरण करते हैं और धर्मपूर्वक ही धन का उपार्जन करके समय पर स्त्री से विवाह कर उसके साथ यज्ञ-यज्ञादि में उस धन का सदुपयोग करते हैं, उनके लिये यह लोक और परलोक दोनो ही सुख के स्थान हैं। परन्तु जो मूर्ख मनुष्य विद्या, तप और दान के लिये प्रयास न करके केवल विषय-सुख के लये ही प्रयत्न करते हैं उनके लिये न तो इस लोक में सुख है न परलोक में। राजा युधिष्ठिर ! तुुम सब लोग बड़े ही पराक्रमी और सत्यवादी हो। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये ही तुम भाइयों का प्रादुर्भाव हुआ है।तुम तपस्या, दम और सदाचार में सदा ही तत्पर रहनेवाले और शूरवीर हो। इस संसार में बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार् करके तुम देवता और ऋषियों को संतुष्ट करोगे और अन्त में उततम लोकों में जाओगे। अपने इस बर्तमान कष्ट को देखकर तुम मन में किसी भी प्रकार की शका न करो। यह दुःख तो तुम्हारे भावी सुख का ही कारण है।

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