Tuesday 13 October 2015

वनपर्व---पाण्डवों का गन्धमादन पर्वत से चलकर अन्यत्र भ्रमण करते हुए द्वैतवन में प्रवेश

पाण्डवों का गन्धमादन पर्वत से चलकर अन्यत्र भ्रमण करते हुए द्वैतवन में प्रवेश

अर्जुन अस्त्रविद्या सीखकर इन्द्र के समान महान पराक्रमी वीर हो गये थे। उनके साथ सभी पाण्डव गन्धमादन पर्वत पर विचरते थे। उस पर्वत पर बड़े ही सुन्दर भवन बने हुए थे तथा वहाँ नाना प्रकार वृक्षों के निकट अनेकों तरह के खेल होते रहते थे;उन सबको देखते हुए किरीटधारी अर्जुन वहाँ घूमते और हाथ में धनुष लेकर सर्वदा अस्त्रसंचालन का अभ्यास किया करते थे। पाण्डवगण कुबेर के अनुग्रह से वहाँ रहने के लिये उत्तम निवासस्थान  पाकर बड़े सुखी थे। अर्जुन के साथ वे वहाँ चार वर्ष तक रहे, परन्तु उनको वह समय एक रात के समान ही प्रतीत हुआ। पहले के छः वर्ष तथा यहाँ के चार वर्ष---इसप्रकार सब मिलकर पाण्डवों के वनवास के दस वर्ष सुखपूर्वक बीत गये। तदनन्तर एक दिन भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव एकान्त में राजा युधिष्ठिर के पास बैठकर अपने मीठे शब्दों से अपने हित की बात बोले, 'कुरुराज ! हम चाहते हैं कि आपकी प्रतीज्ञा सच्ची हो; तथा हम वही कार्य करना चाहते हैं जो आपको प्रिय लगे। हमलोगों के वनवास का यह ग्यारवाँ वर्ष चल रहा है। आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर, मान-अपमान का विचार छोड़कर हम निर्भयतापूर्वक वन में विचर रहे हैं। हमें विश्वास है, उस खोटी बुद्धिवाले दुर्योधन को चकमा देकर तेरहवें वर्ष का अज्ञातवास भी सुख से व्यतीत करेंगे। एक वर्ष तक गुप्त रीति से भ्रमण करके फिर उस नराधम का अनायास ही संहार कर डालेंगे। धर्म और अर्थ के तत्व को जाननेवाले धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने जब अपने भाइयों का विचार अच्छी तरह जान लिया, तब उन्होंने कुबेर की उस निवासस्थान की प्रदक्षिणा की और वहाँ के उत्तम भवन, नदी, सरोवर तथा समस्त यक्ष-राक्षसों से जाने के लिये आज्ञा माँगी। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर अपने सभी भाइयों को साथ लेकर जिस मार्ग से आये थे उसी से लौट पड़े। रास्ते में जहाँ कहीं भी अगम्य पर्वत और झरने आते, वहाँ घतोत्कच इन सबको एक ही साथ कन्धे पर उठाकर पार पहुँचा देता था। महर्षि लोमश ने जब पाण्डवों को प्रस्थान करते देखा तो उन्हें सुन्दर उपदेश दिया और स्वयं मन-ही-मन प्रसन्न होकर देवताओं के निवासस्थान को चले गये। इसी प्रकार राजर्षि अर्ष्टिषेण ने उन सबको उपदेश दिया। फिर कभी रमणीय वनों में, कभी नदियों के तट पर, कभी जलाशयों के किनारे और कभी पर्वतों की छोटी-बड़ी गुफा में रात को ठहरते जाते थे। इस प्रकार वे राजा वृषपर्वा के आश्रम में भी एक रात ठहरे और दूसरे दिन सवेरे बदरिकाश्रम तीर्थ---विशाला नगरी में आये। वहाँ भगवान् नर-नारायण के क्षेत्र में एक मास तक वे बड़े आनन्द से रहे। फिर जिस मार्ग से आये थे उसी मार्ग से लौटकर उन्होंने किरातराज सुबाहु के राज्य में प्रस्थान किया। चीन, तुषार, दरद और कुलिन्द देशों को जहाँ रत्नों और मणियों की खानें हैं, लाँघकर तथा हिमालय के दुर्गम प्रदेशों को पार करके उन्होंने राजा सुबाहु का नगर देखा। राजा सुबाहु ने जब सुना कि मेरे राज्य में पाण्डवगण पधारे हुए हैं, तो वह बहुत प्रसन्न हुआ और नगर के बाहर आकर इनकी आगवानी की। सुबाहु के यहाँ एक रात उन्होंने बड़े आनन्द से व्यतीत की।सवेरे घतोत्कच को उनके अनुचरोंसहित विदा कर दिया। और सुबाहु के दिये हुए बहुत से रथ और सारथी साथ लेकर उस पर्वत पर पहुचे, जो यमुना का उद्गम-स्थान है। उसपर झरने बह रहे थे, उससे हिमाच्छादित शिखर बालसूर्य की किरणें पड़ने से श्वेत और अरुण रंग के दिखायी पड़ते थे। वीरवर पाण्डवों ने उस पर्वत पर विशाखयूप नामक वन में निवास किया। वह महान् वन चैत्ररथ वन के समान शोभायमान था। वहाँ उन्होंने आनन्दपूर्वक एक वर्ष व्यतीत किया। वहाँ निवास करते समय एक दिन भीम पर्वत की कनदरा में एक महाबली अजगर के पास जा पहुँचे, जो मृत्यु के समान भयानक और भूख से पीड़ित था। उसे देखते ही भीम भयभीत हो गये, उनकी अन्तरात्मा विषाद और मोह से वयथित हो उठी। उस अजगर ने भीम के शरीर को लपेट लिया। वे भय के समुद्र में डूब रहे थे। उस समय महाराज युधिष्ठिर ही उन्हें शरण देनेवाले हुए। उन्होंने ही आकर उन्हें सर्प के चंगुल से छुड़ाया। उस समय पाण्डवों के वनवास का ग्यारहवाँ साल पूरा हो रहा था और बारहवाँ वर्ष समीप था। अतः वे किसी दूसरे वन में भ्रमण करने के लिये उस चैत्ररथ के समान सुन्दर वन से बाहर निकले और मरुभूमि के निकट सरस्वती नदी के तट पर जाकर द्वैतवन में पहुँचे। वहाँ द्वैत नामक सुन्दर सरोवर भी था।

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