Tuesday 13 October 2015

वनपर्व---अर्जुन द्वारा निवातकवचों के साथ अपने युद्ध का वर्णन

अर्जुन द्वारा निवातकवचों के साथ अपने युद्ध का वर्णन
अर्जुन ने कहा---राजन् ! मार्ग में जाते हुए भी जगह-जगह महर्षिगण मेरी स्तुति करते थे। अन्त में मैने अथाह और भयावह समुद्र के पास पहुँचकर देखा कि उसमें फेन से मिली हुई पहाड़ों के समान ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं। वे कभी इधर-उधर फैल जाती थी और कभी आपस में टकरा जाती थीं। सब ओर रत्नों से भरी हुईं हजारों नावें चल रही थीं तथा बड़े-बड़े मत्स्य, कछुए, तिमि, तिमिंगल और मकर पहाड़ में डूबे से जान पड़ते थे। इस प्रकार उस अत्यंत वेगशाली महासागर को देखकर उसके पास ही मैने दानवों से भरा हुआ उनका नगर देखा। वहाँ पहुँचकर मातलि ने अपना रथ उस नगर की ओर दौड़ाया। रथ की घरघराहट से दानवों के हृदय दहल गये। इसी समय मैंने भी बड़े आनन्द से धीरे-धीरे अपना देवदत्त नामक शंख बजाना आरम्भ कर दिया। उस शब्द ने आकाश से टकराकर प्रतिध्वनि पैदा कर दी। उसे सुनकर बहुत से बड़े-बड़े जीव भी भयभीत होकर इधर-उधर छिप गये। फिर अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित सहस्त्रों निवातकवच दैत्य नगर से बाहर आये। उस शब्द ने आकाश से टकराकर प्रतिध्वनि पैदा कर दी। फिर अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित सहस्त्रों निवातकवच दैत्य नगर से बाहर आये। उन्होंने हजारों प्रकार के भीषण स्वर और आकारवाले बाजे बजाने प्रारम्भ किये। इस प्रकार निवातकवचों के साथ मेरा भीषण संग्राम छिड़ गया। उसे देखने के लिये वहाँ अनेकों देवर्षि, दानवर्षि, महर्षि और सिद्धलोग आ गये। और मेरी ही विजय की आशा से मधुरवाणी द्वारा मेरी स्तुति करने लगे। दानवों ने मेरे ऊपर गदा, शक्ति और शूलों की अनवरत वर्षा आरम्भ कर दी और वे तड़ातड़ मेरे रथ के ऊपर गिरने लगे। तब मैने बहुतों को तो प्रत्येक के दस-दस वाण मारकर धराशायी कर दिया। इसी प्रकार अनेक छोटे- छोटे शस्त्रों से भी मैने सहस्त्रों असुरों को काट डाला। इधर घोड़ों के मार और रथ के प्रहार से भी अनेकों राक्षस कुचल गये और कितने ही मैदान छोड़कर भाग गये। कुछ निवातकवच स्पर्धा से वाणों की वर्षा करके मेरी गति को रोकने लगे। तब मैने ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित करके हजारों छोटे-छोटे वाण छोड़कर उनका सफाया कर दिया। उस समय दैत्यों के छिन्न-भिन्न शरीरों से उसी प्रकार रक्त का प्रवाह चलने लगा, जैसे वर्षा ऋतु में पर्वत की चोटियों से जल की धाराएँ बहने लगती हैं। राजन् ! फिर सब ओर पर्वत के समान बड़ी-बड़ी चट्टानों की वर्षा आरम्भ हुई। उसने तो मुझजे बहुत ही खिन्न कर दिया। तब मैने इन्द्रास्त्र के द्वारा अनेकों वज्र के-से वेग वाले वाण छोड़कर उन्हें चूर-चूर कर दिया। इस प्रकार पत्थरों की वर्षा बन्द हुईं तो मोटी-मोटी जल की धाराएँ गिरने लगीं। इन्द्र ने मुझे विशोषण नाम का एक दप्तिशाली दिव्य अस्त्र दिया था। उसे छोड़ने से वह सार जल सूख गया। इसके पश्चात् दानवों ने माया द्वारा अग्नि और वायु छोड़े। तब तुरन्त ही मैने जलास्त्र से अग्नि को शान्त किया और शैलास्त्र द्वारा वायु को रोक दिया। इतने में ही एक-एक करके वे सब दानव अदृश्य हो गये और इस अन्तर्धानी माया से कोई भी दानव मेरे नेत्रों के सामने न रहा। इस प्रकार अदृश्य रहकर ही वे मेरे ऊपर शस्त्र चलाने लगे तथा मैं भी अदृयास्त्र के द्वारा उनसे युद्ध करने लगा। इस युक्ति से गाण्डीव धनुष द्वारा छोड़े हुए वाण जहाँ-जहाँ वे दैत्य थे, वहीं जाकर उनके सिर काट डालते थे। जब मैं इस प्रकाार युद्ध-क्षेत्र में उनका संहार करने लगा तो वे अपनी माया को समेटकर नगर में घुस गये। वहाँ दैत्यों की इतनी लाशें पड़ी थीं कि घोड़ों के लिये एक के बाद दूसरा पैर रखना कठिन था। इसलिये घोड़े पृथ्वी से उठकर आकाश में स्थित हो गये। किन्तु निवातकवचों ने अदृश्य रूप से पत्थरों की वर्षा करते हुए आकाश को भी आच्छादित कर दिया। पत्थरों से ढ़क जाने और घोड़ों की गति रुक जाने से मैं बड़ा तंग आ गया। तब मातलि ने मुझे डरा हुआ देखकर कहा, 'अर्जुन ! 'अर्जुन ! डरो मत, वज्रास्त का प्रयोग करो।' राजन् ! मातलि का यह वचन सुन मैने देवराज का प्रिय अस्त्र वज्र छोड़ा और एक अविचल स्थान पर बैठकर गाण्डीव को अभिमन्त्रित कर  मैने लोहे के बने हुए वज्र के समान पैने वाण छोड़े। अब वज्रतुल्य वाणों के वेग से आहत होकर वे पर्वत के समान विशालकाय दैत्य एक-दूसरे से लिपट-लिपट कर पृथ्वी पर लुढ़कने लगे। सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात यह हुई कि इतना संग्राम होने पर भी रथ, मातलि या घोड़ों को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुँची। फिर मातलि ने हँसकर मुझसे कहा, 'अर्जुन ! तुममें जैसा पराक्रम देखा जाता है, वैसा तो देवताओं में भी नहीं है। इस प्रकार निवातकवचों का अंत हो गया और मैं मातलि के साथ उस नगर में गया। मेरे रथ का घोष सुनकर दैत्यों की स्त्रियाँ बहुत डरीं और भागने लगीं। वह नगर अमरावती से भी बढ़-चढ़कर था। ऐसा अद्भुत नगर देखकर मैने मातलि से पूछा, 'ऐसे सुन्दर नगर में देवतालग क्यों नहीं रहते ? मुझे तो यह इन्द्रपुरी से भी बढ़कर जान पड़ता है।' मातलि ने कहा, "पहले यह नगर हमारे देवराज इन्द्र का ही था; किन्तु फिर निवातकवचों ने देवताओं को यहाँ से भगा दिया। कहते हैं, पूर्वकाल में महान् तपस्या करके दानवों ने भगवान् ब्रह्मा को प्रसन्न किया और उनसे अपने रहने के लिये यह स्थान और युद्धमें देवताओं से अभय माँगा। तब इन्द्र ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की कि 'भगवन् ! हमारे हित के लिये आप ही इनका संहार कीजिये।' तब ब्रह्माजी ने कहा, 'इन्द्र ! इस विषय में विधाता का विधान ऐसा ही है कि दूसरे शरीर द्वारा तुम ही इनका नाश करोगे।' इसी से इनका वध करने के लिये इन्द्र ने तुम्हे अपने अस्त्र दिेए हैं। तुमने जिन असुरों का संहार किया है, उन्हे देवता नहीं मार सकते थे।" इस प्रकार उन दानवों का नाश करके उस नगरमें शान्ति स्थापित करके मैं मातलि के साथ फिर देवलोक में चला गया।

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