Sunday 18 October 2015

वनपर्व---युधिष्ठिर और सर्प के प्रश्नोत्तर, नहुष के सर्पयोनि में आने का इतिहास, भीम की रक्षा एवं नहुष का स्वर्गगमन

युधिष्ठिर और सर्प के प्रश्नोत्तर, नहुष के सर्पयोनि में आने का इतिहास, भीम की रक्षा एवं नहुष का 

सर्प के प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् युधिष्ठिर ने स्वयं उससे इस प्रकार प्रश्न किया---सर्पराज ! तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांगों के ज्ञाता हो; बताओ, किन कर्मों के आचरण से सर्वोत्तम गति प्राप्त होती है ? सर्प ने कहा---भारत ! इस विषय में मेरा विचार तो यह है कि सत्पात्र को दान देने से, सत्य और प्रिय वचन बोलने से तथा अहिंसा धर्म में तत्पर रहने से मनुष्य को उत्तम गति प्राप्त होती है। युधिष्ठिर बोले---दान और सत्य में कौन बड़ा है ? अहिंसा और प्रियभाषण---इनमें किसका महत्व अधिक है और किसका कम ? सर्प ने कहा---राजन् ! दान, सत्य, अहिंसा और प्रियभाषण इनका गौरव लाघव कार्य की महत्ता के अनुसार देखा जाता है। किसी दान से तो सत्य का महत्व बढ़ जाता है और किसी सत्यभाषण से दान बढ़कर होता है। इसी प्रकार कहीं तो प्रिय बोलने की अपेक्षा अहिंसा का अधिक गौरव है और कहीं अहिंसा से बढ़कर प्रियभाषण का महत्व है। इस प्रकार इसके गौरव लाघव का विचार कार्य की अपेक्षा से ही है। युधिष्ठिर ने पूछा---मृत्युकाल में मनुष्य अपना शरीर तो यहीं त्याग देता है, फिर बिना देह के ही वह स्वर्ग कैसे जाता है और कर्मों के अवश्यम्भावी फल को कैसे भोगता है ? सर्प ने कहा---राजन् ! अपने-अपने कर्मों के अनुसार जीवों की तीन प्रकार की गति देखी गयी है---स्वर्गलोक की प्राप्ति, मनुष्य योनि में जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि योनियों में उत्पन्न होना। बस यही तीन योनियाँ (उर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति) हैं। इनमें से जो जीव मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है, वह यदि आलस्य और प्रमाद का त्याग करके अहिंसा का पालन करते हुए दान आदि शुभकर्म करता है तो उसे पुण्य की अधिकता के कारण स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत कारण उपस्थित होने पर मनष्य योनि था पशु-पक्षी आदि योनि में जन्म लेना पड़ता है। युधिष्ठिर ने कहा--हे सर्प ! मुझे मन और बुद्धि का ठीक-ठीक लक्षण बताओ। सर्प बोला---राजन् ! बुद्धि को आत्मा के आश्रित समझना चाहिये। इसीलिये वह अपने अधिष्ठानभूत आत्मा की इच्छा कती रहती है; अन्यथा वह आधार के बिना टिक नहीं सकती। विषय और इन्द्रियों के संयोग से बुद्धि उत्पन्न होती है और मन तो पहले से ही उत्पन्न है। बुद्धि स्वयं वासनावाली नहीं है, वासनावाला तो मन ही माना गया है। तुम तो इस विषय के ज्ञाता हो। तुम्हारा इसमें क्या मत है ? युधिष्ठिर बोले---बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ! तुम्हारी बुद्धि बड़ी उत्तम है। तुम जो जानना है जान चुके हो; फिर मुझसे क्यों पूछते हो ? तुम्हारी इस दुर्गति के विषय में मुझे बड़ा संदेह हो रहा है। तुमने बड़े-बड़े अद्भुत कर्म किये, स्वर्ग का निवास पाया और सर्वज्ञ तो तुम थे ही; भला तुम्हे कैसे मोह हुआ, जो विद्वानों का अपमान कर बैठे ? सर्प ने कहा---राजन् ! यह धन और सम्पत्ति बड़े-बड़े बुद्धिमान और शूरवीर मनुष्यों को भी मोह में डाल देते हैं। मेरा तो यह अनुभव है कि सुख और विलास का जीवन व्यतीत करनेवाले सभी मनुष्य मोहित हो जाते हैं। यही कारण है कि मैं भी ऐश्वर्य के मोह से मदोन्त्त हो गया था। इस मोह के कारण जब मेरा अधःपतन हो गया, तब चेत हुआ है; अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ। महाराज ! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया, इस समय तुमसे वार्तालाप करने के कारण मेरा यह कष्टदायक शाप निवृत हो गया।  अब मैं अपने पतन का इतिहास तुम्हे बता रहा हूँ। पूर्वकाल में जब मैं स्वर्ग का राजा था, दिव्य विमान पर चढ़कर आकाश में विचरता रहता था। उस समय अहंकार के कारण मैं किसी को कुछ नहीं समझता था। ब्रह्मर्षि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग आदि जो भी इस त्रिलोकी में निवास करते थे, सभी मुझे कर दिया करते थे। राजन् ! उस समय मेरी दृष्टि में इतनी शक्ति थी कि जिसकी ओर आँख उठाकर देखता, उसी का तेज छीन लेता था। मेरा अन्याय यहाँ तक बढ़ गया कि एक हजार ब्रह्मर्षियों को मेरी पालकी ढ़ोनी पड़ती थी। इसी अत्याचार ने मुझे राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट कर दिया। मुनिवर अगस्त्य जब पालकी ढ़ो रहे थे, मैने उन्हें लात लगायी। तब वे क्रोध में भरकर बोले, 'अरे ओ सर्प ! तू नीचे गिर !' उनके इतना कहते ही मेरे सारे राजचिह्न लुप्त हो गये, मैं उस उत्तम विमान से नीचे गिरा। उस समय मुझे मालूम हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुँह कये गिर रहा हूँ। तब मैने अगस्त्य मुनि से यह याचना की, 'भगवन् ! मैं प्रमादवश विवेकशून्य हो गया था, इसलिये यह घोर अपराध हुआ है, आप क्षमा करके ऐसी कृपा करें, जिससे इस शाप का अन्त हो जाय।' मुझे नीचे गिरते देख उनका हृदय दयाद्र हो गया और वे बोले---'राजन् ! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शाप से मु्क्त करेंगे। जब तुम्हारे पास अहंकार और घोर पाप का फल क्षीण हो जायगा, उस समय तुम्हें  फिर तुम्हारे पुण्यों का फल प्राप्त होगा।' तब मुझे उनकी तपस्या का महान् बल देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। महाराज ! लो, यह है तुम्हारा भाई महाबली भीमसेन। मैने इसकी हिंसा नहीं की। तुम्हारा कल्याण हो, अब मुझे विदा दो; मैं पुनः स्वर्गलोक को जाऊँगा। यह कहकर राजा नहुष ने अजगर का शरीर त्याग दिया और दिव्य देह धारण कर पुनः स्वर्ग में चले गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर भी अपने भाई भीम और धौम्य मुनि को साथ ले आश्रम पर लौट आये।


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