अर्जुन की प्रवासकथा---किरात का प्रसंग और लोकपालों से अस्त्र प्राप्त करना
महावीर अर्जुन इन्द्र के रथ में बैठे हुए अकस्मात् उस पर्वत पर उतरे। उन्होंने रथ से उतरकर
पहले मुनिवर धौम्य के और फिर महाराज युधिष्ठिर के और भीमसेन के चरणों में प्रणाम किया।
इसके पश्चात् नकुल और सहदेव ने उनका अभिवादन किया। फिर कृष्णा से मिलकर और उसे धीरज
बँधाकर वे विनयपूर्वक बड़े भाई युधिष्ठिर के पास आकर खड़े हो गये। अतुलित प्रभवशाली अर्जुन
से मिलकर पाण्डवों को बड़ा हर्ष हुआ। तथा अर्जुन को भी उन्हें देखकर अपार आनन्द हुआ।
पाण्डवोंने इन्द्र के रथ के पास जाकर उसकी परिक्रमा की और इन्द्र के सारथी मातलि का
इन्द्र के समान ही सत्कार किया और उससे सब प्रकार देवताओं का कुशल-क्षेम पूछा। मातलि
ने भी, पिता जैसे पुत्र को उपदेश करता है उसी प्रकार,पाण्डवों को उपदेश करके उनका अभिवादन
किया और फिर उस अमित प्रभावशाली रथ में बैठकर देवराज इन्द्र के पास चला गया। मातलि
के चले जाने पर अर्जुन ने देवराज के दिए हुए अत्यंत सुन्दर और बहुमूल्य आभूषण द्रौपदी
को दे दिए। फिर सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी पाण्डव और विद्वानों के बीच में बैठकर
वे यथावत् सब बातें सुनाने लगे। अर्जुन ने संक्षेप में अपने स्वर्ग के प्रवासकाल की
बहुत सी बातें सुनायीं। फिर उस रात को उन्होंने आनन्दपूर्वक नकुल और सहदेव के साथ शयन
किया। रात्रि बीत जाने पर प्रातःकाल के समय वे भाइयों के सहित धर्मराज के पास गये और
उन्हें प्रणाम किया। इसी समय देवराज इन्द्र अपने सुवर्णजटित रथ से आकर उस पर्वत पर
उतरे। जब पाण्डवों ने उन्हें उतरते देखा तो वे उनके पास आये और उनका विधिवत् पूजन किया।
परम तेजस्वी अर्जुन ने भी देवराज को प्रणाम किया और सेवक के समान उनके पास खड़े हो गये।
इस समय उदारचित्त धर्मराज का हृदय हर्ष से उमड़ रहा था। उनसे देवरज इन्द्र ने कहा,
'पाण्डुपुत्र ! तुम प्रसन्न रहो, तुम ही इस पृथ्वी का शासन करोगे। तुम काम्यक वन को
लौट जाओ। अर्जुन ने बड़ी सावधानी से मुझसे सब शस्त्र प्राप्त कर लिये हैं। अब इसे त्रिलोकी
भी नहीं जीत सकती। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से ऐसा कह वे फिर स्वर्ग को लौट गये।इन्द्र के चले जाने पर धर्मराज ने गद्गद् कण्ठ होकर अर्जुन से पूछा---"भैया ! तुम्हें इन्द्र के दर्शन किस प्रकार हुए ? भगवान् शंकर से तुम्हारा कैसे समागम हुआ ? तुमने किस प्रकार सारी शस्त्रविद्या प्राप्त की ? और कैसे श्रीमहादेवीजी की अराधना की ? भगवान् इन्द्र कहते थे कि 'अर्जुन ने मेरा प्रिय किया है।' सो तुमने उनका क्या काम किया था ? ये सबबातें मैं विस्तार से सुनना चाहता हूँ।" यह सुनकर अर्जुन ने कहा--- महाराज ! जिस प्रकार मुझे इन्द्र और भगवान् शंकर के दर्शन हुए वह सुनिये। आपने मुझे जिस विद्या का उपदेश दिया था, उसे सीखकर आपकी आज्ञा से मैं तप करने के लिये वन में गया। काम्यक वन से चलकर मैं भृगुतुंग पर्वत पर जाकर तप करना आरंभ
किया, किन्तु वहाँ केवल मैं एक रात ही रहा। इसके पश्चात् मैं हिमालय पर जाकर तप करने
लगा। मैने एक महीने तक केवल कंद और फल का आहार किया, दूसरा महीना जल पीकर बिताया और
तीसरे महीने निराहार रहा। यह सब होने पर भी विचित्र बात यह हुई कि मेरे प्राण नहीं
छूटे।पाँचवें महीने का एक दिन बीतने पर एक सूअर इधर-उधर घूमता हुआ मेरे सामने आकर खड़ा
हो गया। उसके पीछे-पीछे एक किरातवेषधारी पुरुष आया। वह धनुष-वाण और तलवार धारण किये
हुए था तथा उसके पीछे-पीछे कई स्त्रियाँ चल रही थीं। तब मैने धनुष लेकर उसपर वाण चढ़ाया
और इस रोमांचकारी सूअर को बिंध दिया।उसी समय उस भील ने अपना प्रबल धनुष खींचकर वाण
छोड़ा जिससे कि मेरा मन दहल सा गया। राजन् ! फिर उसने मुझसे कहा---'यह सूअर तो पहले मेरा
निशाना बन चुका था, फिर तुमने आखेट के नियम को छोड़कर उसपर वार क्यों किया ? अच्छा,तुम
सावधान हो जाओ; मैं अपने पैने वाणों से अभी
तुम्हारे गर्व को चूर किये देता हूँ।' ऐसा कहकर उस विशालकाय भील ने पर्वत के समान निश्छल
खड़े हुए मुझको वाणों से आच्छादित कर दिया तथा मैने भी भीषण वाणवर्षा करके उसे ढ़क दिया।
उस समय उसके सैकड़ों सहस्त्रों रूप प्रकट होने लगे और मैं उन सभी पर वाण-वर्षा करने
लगा। फिर वे सारे रूप मुझे एक हुए दिखायी दिये, तो मैने उसे भी बींध दिया।जब इतनी वाण-वर्षा
करने पर भी मैं उसे युद्ध में परास्त न कर सका तो मैने वायव्यास्त्र छोड़ा। किन्तु वह
भी उसका वध न कर सका। इस प्रकार वायव्यास्त्र को कुण्ठित हुआ देखकर मुझे बड़ा ही विस्मय
हुआ। फिर भी मैने बारी-बारी से उसपर स्थूणाकर्ण, वारुणास्त्र,शरवर्षास्त्र, शालभास्त्र
और अश्मवर्षास्त्र भी छोड़े। किन्तु वह भील उन सभी अस्त्रों को निगल गया। उससे निकलते
हुए प्रज्जवलित वाणों से वह सब ओर से ढ़क गया।
परन्तु उस महातेजस्वी भील ने उसे भी एक क्षण में ही शान्त कर दिया। उसके व्यर्थ हो जाने पर मुझे बड़ा ही भय हुआ। फिर मैने अपने धनुष और दोनो अक्षय तरकस लेकर उसपर प्रहार किया। किन्तु वह उन्हें भी निगल गया। इस प्रकार जब सभी अस्त्र नष्ट हो गये और मेरे सभी आयुधों को वह निगल गया तो मेरा और उसका बाहुयुद्ध होने लगा। मैं ममुक्का-मुक्की और हाथापाई
करने पर भी उस पुरुष की बराबरी न कर सका और अचेत होकर पृथ्वी पर गिर गया। फिर मेरे
देखते-देखते वह हँसकर उन स्त्रियों सहित वहाँ अन्तर्धान हो गया। इससे मैं भौचचक्का
सा रह गया। यह सब लीला करके वे देवाधिदेव महादेव उस किरातवेष को छोड़कर अपने दिव्यरूप
से प्रकट हुए। उनके कण्ठ में सर्प पड़े हुए थे, हाथ में पिनाक धनुष था और साथ में देवी
पार्वती थीं। मैं पूर्ववत् ही युद्ध के लिये तैयार खड़ा था। ककिन्तु उन्होंने मेरे सम्मुख
आकर कहा कि 'मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।' यह कहकर उन्होंने ममेरे छीने हुए धनुष और अक्षय
बाणोंवाले दोनों तरकस लौटा दिये और कहा, 'हे वीर ! इन्हें धारण कर लो। मैं तुमपर प्रसन्न
हूँ; बताओ, तुम्हारा क्या काम करूँ ? तुम्हारे मन में जो बात हो, वह कह दो। अमरत्व
को छोड़कर तुम्हारी सब कामना मैं पूर्ण कर दूँगा।' मेरे मन में अस्त्र ही समाये हुए
थे, इसलिये मैने हाथ जोड़कर उन्हें मन से प्रणाम करते हुए कहा---'भगवन् ! यदि आप प्रसन्न
हैं तो मुझे तो देवताओं के दिव्य अस्त्र पाने और उनका प्रयोग जानने की ही इच्छा है---यही
मेरा अभीष्ट वर है। तब भगवान् त्रिलोचन ने कहा, 'अच्छा, मैं तुम्हे यह वर देता हूँ;
अब शीघ्र ही तुम्हें मेरा पाशुपतास्त्र प्राप्त होगा।' ऐसा कहकर उन्होंने अपना महान्
पाशुपतास्त्र मुझे दे दिया, और फिर कहा, ' तुम इस अस्त्र का मनुष्यों पर कभी प्रयोग
न करना क्योंकि यदि इसे अल्पवीर्य प्राणियों पर छोड़ा जायगा तो यह त्रिलोकी को भष्म
कर देगा। अतः जब तुम्हे अत्यंत पीड़ा हो, तभी इसका प्रयोग करना।' इस प्रकार भगवान शंकर के प्रसन्न होने से वह समस्त अस्त्रों को रोक देनेवाला और स्वयं किसी से न रुकनेवाला
दिव्य-अस्त्र मूर्तिमान होकर मेरे पास आ गया। फिर भगवान की आज्ञा होने से मैं वहाँ
बैठ गया और मेरे देखते-देखते वो अन्तर्धान हो गये। महाराज ! श्रीमहादेवजी की कृपा से
वह रात मैने आनन्दपूर्वक बितायी। दूसरे दिन जब दिन ढ़लने लगा तो उस हिमालय की तलैटी
में दिव्य, नवीन और सुगंधित पुष्पों की वर्षा होने लगी, सब ओर दिव्य वाद्यों की ध्वनि
होने लगी तथा देवराज इन्द्र की स्तुतियाँ सुनाई देने लगीं। थोड़ी देर में श्रेष्ठ घोड़ों
से जुते हुए एक अत्यंत सुसज्जित रथ में देवराज इन्द्र इन्द्राणी सहित वहाँ पधारे। उनके
साथ और भी सभी देवता आये थे। इतने में ही मुझे महान् ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकुबेेरजी
दिखायी दिये। फिर मेरी दृष्टि दक्षिण दिशा में विराजमान यमपर और पूर्व दिशा में स्थित
इन्द्र तथा पश्चिम में विराजमान महाराज वरुण पर पड़ी। उन सबने मुझे धैर्य बँधाकर कहा,
'सव्यसाचिन् ! देखो, हम सब लोकपाल यहाँ उपस्थित हैं। ततुम्हे देवताओं का कार्य सिद्ध
करने के लिये ही महादेवजी के दर्शन हुए थे। तुम हम सबसे अस्त्र ग्रहण करो।' जब मैं
अस्त्र ले चुका तो उन्होंने मुझे जाने की आज्ञा दी और वे स्वयं अपने-अपने लोकों को
चले गये। देवराज इन्द्र ने भी अपने तेजोमय रथ पर चढ़कर मुझसे कहा, 'अर्जुन ! तुम्हे
स्वर्ग में आना होगा। मेरी आज्ञा से मातलि तुम्हे स्वर्ग में पहुँचा देगा।
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