Thursday 29 October 2015

वनपर्व---वैवस्वत मनु का चरित्र---महामत्स्य का उपाख्यान

वैवस्वत मनु का चरित्र---महामत्स्य का उपाख्यान
इसके बाद पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा, 'अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र सुनाइये।' मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! विवस्वान् (सूर्य) के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान कान्तिमान् और महान् ऋषि था। उसने बदरीकाश्रम में जाकर एक पैर पर खड़े हो दोनो बाँहें ऊपर उठाकर दस हजार वर्ष तक बड़ा भारी तप किया। एक दिन की बात है, मनु चीरिणी नदी के तटपर तपस्या कर रहे थे।वहाँ उनके पास एक मत्स्य आकर बोला, महात्मन् ! मैं एक छोटी सी मछली हूँ; मुझे यहाँ अपने से बड़ी मछलियों से सदा भय बना रहता है, आप कृपा करके मेरी रक्षा करें।' वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आयी। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया और पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था, उनकी अधिक देखभाल के कारण वह उस मटके में बढ़ने और पुष्ट होने लगा। कुछ ही सय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। अतः मटके में उसका रहना कठिन हो गया।एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा, 'भगवन् ! अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिये।' तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी थी। वहाँ भी वह मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा और इतना बढ़ गया कि अब उसका विशाल शरीर उसमें भी नहीं अँट सका। एक दिन उसने फिर मनु से कहा---'भगवन् ! अब तो आप मुझे समुद्र की रानी गंगाजी के जल में डाल दें, वहाँ मैं आराम से रह सकूँगा; अथवा आप जहाँ ठीक समझें वहीं मुझे पहुँचा दें।मत्स्य के ऐसा कहने पर मनु ने उसे गंगाजी के जल में ले जाकर छोड़ दिया। कुछ काल तक वहाँ रहने के पश्चात् वह और भी बढ़ गया। फिर उसने मनु को देखकर कहा, 'भगवन् ! अब तो बहुत बड़ा हो जाने के कारण मैं गंगाजी में हिल-डुल नहीं सकता। आप मुझपर कृपा करके अब समुद्र में ले चलिये। तब मनु ने उसे गंगाजी के जलसे निकाला और समुद्र के जल में डाल दिया। समुद्र में डालने पर उस महामत्स्य ने मनु से हँसकर कहा, 'तुमने मेरी हर तरहसे रक्षा की है। अब इस अवसर पर जोकार्य उपस्थित है, उसे मैं बताता हूँ; सुनो।
थोड़े ही समय में इस चराचर जगत् का प्रलय होनेवाला है। समस्त विश्व के डूब जाने का समय आ गया है; अतः एक सुदृढ़ नाव तैयार कराओ, उसमें बटी हुई मजबूत रस्सी बाँध दो और सप्तर्षियों को साथ ले उसपर बैठ जाओ। सब प्रकार के अन्न और औषधियों के बीजों का अलग-अलग संग्रह करके उन्हें सुरक्षित रूप से नावपर रख लो और नाव पर बैठे-बैठे ही मेरी प्रतीक्षा करो। समय पर मैं सिंगवाले महामत्स्य के रूप में आऊँगा, इससे तुम मुझे पहचान लेना।अब मैं जा रहा हूँ।' उस मत्स्य के कथनानुसार मनु सब प्रकार के बीज लेकर नाव में बैठ गये और उुत्ताल तरंगों से लहराते हुए समुद्रमें तैरने लगे। उ्होंने उस महामत्स्य का स्मरण किया। उनको चिन्तित देखकर वह श्रृंगधारी मत्स्य नौका के पास आ गया। मनु ने उस रस्सी का फंदा उसके सिंग में डाल दिया। उससे बँधकर वह मत्स्य उस नाव को बड़े वेग से समुद्र में खींचने लगा और नाव के ऊपर बैठे लोगों को जल पर ही तैराता रहा। उस समय समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं, पानी के वेग से उसकी गर्जना हो रही थी, प्रलयकालीन वायु के झोंके से वह नाव डगमगा रही थी। उस समय न भूमि का पता चलता था न दिशाओं का। पृथ्वीलोक और आकाश---सब जलमय हो रहा था। केवल मनु, सप्तर्षि और मत्स्य---ये ही दिखाई पड़ते थे। इस प्रकार वहमहामत्स्य बहुत वर्षों तक महासागर में उस नाव को सावधानी से सब ओर खींचता रहा। इसके बाद वह उस नाव को खींचकर हिमालय की सबसे ऊँची चोटी पर ले गया और उसपर बैठे हुए ऋषियों से हँसकर बोला, 'हिमालय के इस शिखर में नाव को बाँध दो,देरी न करो।' आज भी हिमालय का वह शिखर 'नौकाबन्धन' क नाम से विख्यात है। इसके बाद महामत्स्य ने पुनः उनके हित की बात कही---'मैं भगवान् प्रजापति हूँ, मुझसे परे कोई दूसरी वस्तु उपलब्ध नहीं होती। मैन ही मत्स्यरूप धारण कर तुमलोगों को इस संकट से बचाया है। अब मनु को चाहिए कि देवता, असुर आदि समस्त प्रजा की, सब लोकों की और संपूर्ण चराचर की सृष्टि करें। इन्हें जगत् की सृष्टि करने की प्रतिभा तपस्या से प्राप्त होगी। और मेरी कृपा से प्रजा की सृष्टि करते समय इन्हें मोह नहीं होगा। यह कहकर महामत्स्य अनतर्धान हो गया। इसके बाद जब मनु को सृष्टि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद सृष्टि आरम्भ की। फिरतो वे पहले कल्प के समान ही परजा उत्पन्न करने लगे। युधिष्ठिर ! इस प्रकार तुमको यह मत्स्य का प्राचीन उपाख्यान सुनाया है।


No comments:

Post a Comment