अर्जुन द्वारा स्वर्गलोक
में अपनी अस्त्रशिक्षा और युद्ध की तैयारी का कथन
अर्जुन
ने कहा---राजन् ! फिर दिव्य घोड़ों से जुते हुए इन्द्र के दिव्य और मायामय रथ को लेकर
मातलि मेरे पास आया और मुझसे बोला, 'देवराज इन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं।' यह सुनकर
मैने पर्वतराज हिमालय की प्रदक्षिणा की और उनकी आज्ञा लेकर उस श्रेष्ठ रथ में सवार
हुआ। तब अश्वविद्या में निष्णात मातलि ने उन मन और वायु के समान वेगवान् घोड़ों को हाँका।
तब मातलि ने देखा कि रथ के हिलने पर भी मैं स्थिर रहता हूँ तो उसने बड़े आश्चर्य में
पड़कर कहा, 'आज मुझे यह बड़ी विचित्र बात दिखायी दे रही है। रथ के घोड़े चलने पर मैने
देवराज को हिलते हुए देखा है किन्तु तुम बिलकुल स्थिर दिखायी देते हो। तुम्हारी यह
बात तो मुझे इन्द्र से भी बढ़कर जान पड़ती है।' ऐसा कहते-कहते मातली रथ को आकाश में ऊँचा
ले गया और मुझे देवताओं के भवन तथा विमान दिखाने लगा। कुछ और आगे बढ़ने पर उसने मुझे
देवताओं के नन्दनादि वन और उपवन दिखाये। उससे आगे इन्द्र की अमरावतीपुरी दिखायी दी।
उसमें सूर्य का तापनहीं होता और न शीत, उष्ण या श्रम ही होता है। वहाँ वृद्धावस्था
का भी कष्ट नहीं है और न कहीं शोक, दीनता या दुर्बलता ही दिखायी देते हैं। वहाँ के
बहुत से निवासी विमानों में बैठकर आकाश में विचर रहे थे। इस प्रकार देखता-देखता जब
मैं आगे बढ़ा तो मुझे वसु, रुद्र, साध्य,पवन, आदित्य और अश्विनीकुमारों के दर्शन हुए।
मैने उन सभी की पूजा की और उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया कि 'तुम्हे बल, वीर्य, यश,
तेज अस्त्र और युद्ध में विजय प्राप्त हो।' इसके पश्चात् मैने देवता और गन्धर्वों से
पूजित अमरावतीपुरी में प्रवेश किया और देवराज इन्द्र के पास पहुँचकर उन्हें हाथ जोड़कर
प्रणाम किया। तब दानियों में श्रेष्ठ इन्द्र ने मुझे बैठने के लिये मुझे अपना आधा सिंहासन
दिया। वहाँ मैं अस्त्रविद्या प्राप्त करता हुआ परम प्रवीण देवता और गन्धर्वों के साथ
रहने लगा। रहते-रहते विश्र्वावसु के पुत्र चित्रसेन से मेरी मित्रता हो गयी। उसने मुझे
संपूर्ण गान्धर्वशास्त्र की शिक्षा दी। वहाँ इन्द्रभवन में रहकर मैने तरह-तरह के गान
और वाद्य सुने तथा अप्सराओं को नृत्य करते देखा। किन्तु इन सब बातों का आसार समझकर
मैंने अस्त्रविद्या में ही विशेष मनोनिवेष किया। मेरी ऐसी प्रवृति देखकर देवराज भी
मुझपर प्रसन्न रहे और स्वर्ग में रहते हुए मेरा समय आनंद से बीतने लगा। मुझमें सभी
का बहुत विश्वास था तथा अस्त्रविद्या में भी मैं काफी निपुण हो गया था। एक दिन इन्द्र
ने मुझसे कहा, 'वत्स ! अब तुम्हें युद्ध में देवता भी परास्त नहीं कर सकते, फिर तो
मर्त्यलोक में रहनेवाले बेचारे मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? तुम युद्ध में अतुलित,
अजेय और अनुपम होगे। अस्त्रयुद्ध में तुम्हारा सामना कर सके, ऐसा कोई वीर नहीं होगा।
तुम सर्वदा सावधान रहते हो, व्यवहारकुशल हो, सत्यवादी हो, जितेन्द्रिय हो और शूरवीर
हो। तुमने पंद्रह अस्त्र प्राप्त किये हैं और तुम उसका प्रयोग, उपसंहार, आवृति, प्रायश्चित
और प्रतिघात--- इन पाँच विधियों को भी अच्छी तरह जानते हो। अतः शत्रुदमन ! अब गुरुदक्षिणा
देने का समय आ गया है। निवातकवच नाम के दानव मेरे शत्रु हैं। वे समुद्र के भीतर दुर्गम
स्थान में रहते हैं। वे तीन करोड़ बताये जाते हैं और उन सभी के रूप, बल और प्रभाव समान
ही हैं। तुम उन्हे मार डालो, बस तुम्हारी गुरुदक्षिणा पूरी हो जायगी।' ऐसा कहकर इन्द्र
ने मुझे अपना अत्यन्त प्रभापूर्ण दिव्य रथ दिया। उसे मातलि चलाता था और मेरे सिर पर
यह अत्यन्त प्रकाशमय मुकुट पहनाया। एक अभेद्य और सुन्दर कवच पहनाकर मरे गाण्डीव धनुष
पर एक अटूट प्रत्न्चा चढ़ा दी। इस प्रकार जब मुझे सब प्रकार की युद्ध सामग्री से सुसज्जित
कर दिया तो मैं उस रथ पर चढ़कर दैत्यों के साथ युद्ध करने के लिये चल दिया। तब उस रथ
की घरघराहट सुन मुझे देवराज समझ सब देवता चौकन्ने होकर मेरे पास आये। फिर वहाँ देखकर
उन्होंने मुझसे पूछा, 'अर्जुन ! तुम क्या करने की तैयारी में हो ?' तब मैने उन्हें
सब बात बताकर कहा ,'मैंनिवातकवचों का वध करने के लिये जा रहा हूँ; अतः आप मुझे ऐसा
आशीर्वाद दीजिये, जिससे मेरा मंगल हो।' तब उन्होंने प्रसन्न होकर मुझसे कहा, 'इस रथ
में बैठकर इन्द्र ने शम्बर, नमुचि, बल, वृत्र और नरक आदि हजारों दैत्यों को जीता है;
अतः कुन्तीनन्दन !इसके द्वारा तुम भी निवातकवचों को युद्ध में परास्त करोगे।'
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