Sunday 1 November 2015

वनपर्व---श्रीकृष्ण की महिमा और सहस्त्रयुग के अन्त में होनेवाले प्रलय का वर्णन

श्रीकृष्ण की महिमा और सहस्त्रयुग अन्त में होनेवाले प्रलय का वर्णन                       
                                                                                                                                           
                                                                                                                                                                                       
  1. युधिष्ठिर ने पुनः मुनिवर मार्कण्डेयजी से कहा, 'महामुने ! आपने हजार-हजार युगों के अन्तर से होनेवाले अनेकों महाप्रलय दखे हैं। मैं आपसे सारी सृष्टि के कारण से सम्बन्ध रखनेवाली कथा सुनना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! मैं स्वायम्भू ब्रह्मा को नमस्कार करके तुम्हे यह कथा सुनाता हूँ। ये जो हमलोगों के पास बैठे हुए पीताम्बरधारी जनार्दन ( श्रीकृष्ण ) हैं,ये ही इस संसार की सृष्टि और संहार करनेवाले हैं। ये ही भगवान् समस्त भूतों के अन्तर्यामी और उनके रचयिता हैं। ये अन्तर्यामी रूप से सबको जानते हैं, इन्हें वेद भी नहीं जानते। संपूर्ण जगत् का प्रलय हो जाने के पश्चात् इन आदिभूत परमेश्वर से ही यह संपूर्ण आशचर्यमय जगत् इन्द्रजाल के समान पुनः उत्पन्न हो जाता है। चार हजार दिव्य वर्षों का एक सतयुग बताया गया है, उतने ही (चार) सौ वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के होते हैं। इस प्रकार कुल अड़तालिस सौ दिव्य वर्ष सतयुग के हैं। तीन हजार दिव्य वर्षों का त्रेतायुग होता है, तथा तीन सौ दिव्य वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के होते हैं। इस प्रकार यह युग छत्तीस सौ दिव्य वर्षों का होता है। द्वापर का मान दो हजार दिव्य वर्ष है तथा उतने ही (दो) सौ दिव्य वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के हैं, अतः सब मिलकर चौबीस सौ दिव्य वर्ष द्वापर के हैं। कलियुग का मान है एक हजार दिव्य वर्ष। उसकी संध्या और संध्यांश के मान भी सौ-सौ दिव्य वर्ष हैं। इस प्रकार कलियुग बारह सौ दिव्य वर्षों का होता है। कलियुग के क्षीण हो जाने पर पुनः सतयुग का आरम्भ होता है। इस प्रकार बारह हजार दिवय वर्षों की एक चतुर्युगी होती है। एक हजार चतुर्युग बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है। यह सारा जगत् ब्रह्मा के दिनभर रहता है, दिन समाप्त होते ही नष्ट हो जाता है। इसी को इस विश्व का प्रलय कहते हैं। सहस्त्रयुग की समाप्ति में जब थोड़ा सा ही समय शेष रह जाता है, उस समय कलियुग के अन्तिंम भाग में प्रायः सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। सभी अपने धर्म को छोड़कर अपने विचार और व्यवहार से विपरीत हो जाते हैं तो प्रलय का पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है। पृथ्वी पर म्लेच्छों का राज हो जाता है। महान् पापी और असत्यवादी लोग राजा होते हैं। सभी अपन-अपने धर्म त्यागकर दूसरे वर्णों के कर्म करने लगते हैं। सबकी आयु, बल, वीर्य और पराक्रम घट जाता है। मनुष्य नाटे कद के होने लगते हैं; उनकी बातचीत में सत्य का अंश बहुत कम होता है। उस समय की स्त्रियाँ भी नाटे कदवाली होती हैं। उनमें शील और सदाचार नहीं रह जाता। गाँव-गाँव में अन्न बिकनें लगता है, गुरु विद्या बेचने लगते हैं, स्त्रियाँ वेश्यावृति करने लगती हैं, गौएँ बहुत कम दूध देती हैं। वृक्षों में फल-फूल बहुत कम लगते हैं। उनपर अच्छे पक्षियों के बदले अक्सर कौए ही बसेरा लेते हैं। ब्राह्मणलोग लोभवश सभी से दक्षिणा लेते हैं, भिक्षा माँगने के बहाने दसों दिशाओं में घूम-घूमकर चोरी करते हैं। गृहस्थ भी अपने ऊपर टैक्स का भार बढ़ जाने से इधर-उधर चोरी करते फिरते हैं। जिनसे शरीर में माँस औौर रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को ही करते हैं---दुर्बल होने के भय से व्रत और तपस्या का नाम तक नहीं लेते। उस समय न तो समयपर वर्षा होती है और न बोये हुए बीज ही ठीक से जमते हैं। लोक बनावटी नाप-तौल से व्यापार करते हैं तथा वयापारी बड़े कपटी होते हैं।  राजन् ! कोई  पुरुष विश्वास कर धरोहर की रीति से उनके यहाँं धन रखते हैं तो पापी निर्लज्ज उनकी धन को हड़प जाने का  प्रत्न करते हैं और उनसे कह देते हैं कि 'हमारे यहाँ तुम्हारा कुछ भी  नहीं है।'  स्त्रियाँ पति को धोखा देकर व्यभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियाँ भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आाश्रय लेती हैं।.इसी प्रकारजब सहस्त्र युग पूरे होने को आतते हैं तो बहुत वर्षों तक वृष्टि बन्द हो जाती है, इससे थोड़ी शकतिवाले प्राणी भूख से व्याकुल होकर मर जाते हैं।  इसके बाद सत सूर्यों का बहुत प्रचंड तेज बढ़ता है; वे सातों सूर्य नदी औरर समुद्र आदि में जो पानी होता है, उसे भी सोख लेते हैं। उस समय जो भी तृण ,काष्ठ अथवा सूखे-गीले पदार्थ होते हैं, वे सभी भष्मीभूत दिखायी देते है।  इसके बाद संवर्तक नाम की प्रलयकालीन अग्नि वायु के साथ संपूर्ण लोक में फैल जाती है। पृथ्वी का भेदन कर वह रसातल में पहुँच जाती है।  इससे देवता, दानव और यक्षों को महान् भय पैदा हो जाता है। वह नागलोक को जलाकर इस पृथ्वी के नीचे जो कुछ भी है, उस सब को क्षणभर में नष्ट कर देती है। इसके बाद अशुभकारी वायु और अग्नि देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, सर्प राक्षस आदि से युक्त समस्त विश्व को ही जलाकर भष्म कर डालते हैं। फिर आकाश  में मेघों की घनघोर घटा घिर जाती है, बिजली कौंधने लगती है और भयंकर गर्जना होती है। उस समय इतनी वर्षा होती है कि भयानक अग्नि शान्त हो जाती है। ये मेघ बारह वर्ष तक वर्षा करते रहते हैं। इससे समुद्र मर्यादा छोड़ देते हैं, पर्वत फट जाते हैं और पृथ्वी जल में डूब जाती है। तत्पश्चात् पवन के वेग से आपस में ही टकराकर ये मेघ नष्ट हो जाते हैं। इसके बाद ब्रह्माजी उस प्रचंड पवन को पीकर उस एकार्णव के जल में शयन करते हैं। उस समय देवता, असुर, यक्ष, राक्षस तथा अन्य चराचर जीवों का नाश हो जाता है। केवल मैं ही उस एकार्णव में उठती हुई लहरों के थपेड़े खाता हुआ इधर-उधर भटकता फिरता हूँ।
     

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