Sunday 8 November 2015

वनपर्व---क्षत्रिय राजाओं का महत्व---सुहोत्र, शिबि और ययाति की प्रशंसा

क्षत्रिय राजाओं का महत्व---सुहोत्र, शिबि और ययाति की प्रशंसा
तदनन्तर पाण्डवों ने मार्कण्डेयजी से कहा, 'मुनिवर ! अब हम क्षत्रिय के महत्व के विषय में आपसे सुनना चाहते हैं।' मार्कण्डेयजी ने कहा---अच्छा सुनो, अब मैं क्षत्रियों का महत्व सुनाता हूँ। कुरुवंशियों में एक सुहोत्र नामके राजा हुए थे। एक दिन वे महर्षियों का सत्संग करने गये। जब रास्ते में लौटे तो सामने की ओर से उन्होंने उशीरपुत्र राजा शिबि को रथ पर आते देखा। निकट आने पर उन दोनों ने अवस्था के अनुसार एक दूसरे का सम्मान किया; परन्तु गुण में अपने को बराबर समझकर एक ने दूसरे के लिये राह नहीं दी। इतने में ही वहाँ नारदजी आ पहुँचे। उन्होंने पूछा---'क्या बात है ? तुम दोनो एक-दूसरे का मार्ग रोककर क्यों खड़े हो ?' वे बोले---मार्ग अपने से बड़े को दिया जाता है। हम दोनो तो समान हैं, अतः कौन किसको मार्ग दे ? यह सुनकर नारदजी ने तीन श्लोक पढ़े जिसका सारांश यह है---'कौरव ! अपने साथ कोमलता का वर्ताव करने वाले के लिये क्रूर मनुष्य भी कोमल बन जाता है। क्रूरता तो वह क्रूरों के प्रति ही दिखाता है। परन्तु साधु पुरुष दुष्टों के साथ भी साधुता का ही वर्ताव करता है; फिर वह सज्जनों के साथ साधुता का वर्ताव कैसे नहीं करेगा ? अपने ऊपर एक बार किये हुए उपकार का बदला मनुष्य भी सौगुना करके चुका सकता है। देवताओं में ही यह उपकार का भाव होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस उशीनरकुमार राजा शिबि का व्यवहार तुमसे अधिक अच्छा है। नीच प्रकृतिवाले मनुष्य को दान देकर वश में करें, झूठे को सत्यभाषण से जीतें, क्रूर को क्षमा से और दुष्ट को अच्छे व्यवहार से वश में करें। अतः तुम दोनो ही उदार हो; अब तुममें से एक जो अधिक उदार हो मार्ग छोड़ दे।'ऐसा कहकर नारदजी मौन हो गये। यह सुनकर कुरुवंशी राजा सुहोत्र शिबि को अपनी दायीं ओर करके उनकी प्रशंसा करते हुए चले गये। इस प्रकार नारदजी ने राजा शिबि का महत्व अपने मुख से कहा है। अब एक दूसरे राजा का महत्व सुनो। नहुष के पुत्र राजा ययाति जब राजसिंहासन पर विराजमान थे, उन्हीं दिनों एक ब्राह्मण गुरुदक्षिणा देने के लिये भिक्षा माँगने की इच्छा से उनके पास आकर बोला---'राजन् ! मैं गुरु को दक्षिणा देने के लिये प्रतिज्ञा करके आया हूँ, भिक्षा चाहता हूँ। संसार में अधिकांश मनुष्य माँगनेवालों से द्वेष करते हैं। अतः तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम मेरी अभिष्ट वस्तु दे सकोगे ? राजा बोले---मैं दान देकर उसका बखान नहीं करता; जो वस्तु देने योग्य है, उसको देकर अपना मुख उज्जवल करता हूँ। ऐसा कहकर राजा ने उन्होंने एक हजार गौएँ दीं और उन्होंने वह दान स्वीकार किया।

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