यमलोक का मार्ग और वहाँ
इस लोक में किये हुए दान का उपयोग
यमराज
का नाम सुनकर भाइयों सहित युधिष्ठिर के मन में बड़ा कौतूहल हुआ तब मार्कण्डेयजी ने कहा---मनुष्यलोक
और यमलोक में छियासी लाख योजन का अन्तर है। उसके मार्ग में सुनसान आकाशमात्र है, वह
देखने में बड़ा भयानक और दुर्गम है। वहाँ न तो वृक्षों की छाया है,न पानी है और न कई
ऐसा स्थान ही है, जहाँ रासते का थका हुआ जीव क्षणभर भी विश्राम कर सके। यमराज की आज्ञा
से उनके दूत यहाँ आते हैं और पृथ्वी पर रहनेवाले सभी जीवों को बलपूर्वक पकड़कर ले जाते
हैं। जो लोग यहाँ नाना प्रकार के वाहन दान करते हैं वे उस मार्ग पर उन्हीं वाहनों से
जाते हैं। छत्रदान करनेवाले मनुष्यों को उस समय छत्र मिलता है, जिससे वे धूप से बचकर
चलते हैं। अन्नदान करनेवाले जीव वहाँ तृप्त होकर यात्रा करते हैं; जिन्होंने अन्नदान
नहीं किया है; वे भूख का कष्ट करते हुए चलते हैं। भूमि का दान करनेवाले सब कामनाओं
से तृप्त होकर बड़े आनन्द से यात्रा करते हैं। मकान बनाकर देनेवाले दिव्य विमान से बड़े
आराम के साथ यात्रा करते हैं। पानी दान करनेवालों को वहाँ प्यास का कष्ट नहीं होता।
दीप दान करनेवालों को अँधेरे में चलते समय प्रकाश का प्रबंध होता है। जिन्होंने एक
मास तक उपवास किया है, वे हँसों से जुते हुए विमानों पर यात्रा करते हैं। तीन रात तक
जो एक समय भोजन करते हैं, वे अक्षय लोकों को प्राप्त होते हैं। जल देने का प्रभाव तो
बहुत ही अलौकिक है, प्रेतलोक में जल बहुत सुख देनेवाला होता है। मरणोपान्त जिनके लिये
जल दिया जाता है, उन पुण्यात्माओं के लिये यमलोक के मार्ग में पुष्पोद नाम की नदी बनी
हुई है।वे उसका शीतल और सुधा के समान मधुर जल पीते हैं। जो पापी जीव हैं, उनके लिये
वो पीब-सी हो जाती है। इस प्रकार वह नदी सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है। हे राजन्
! जो अन्नदाता को पूछता हुआ भोजन की आशा से घर पर आ जाय, उस अतिथि का तुम सत्कार करो।
ऐसा अतिथि जब किसी के घर आ जाता है, तो उसके पीछे इन्द्र आदि समस्त देवता वहाँ तक जाते
हैं; यदि वहाँ उसा आदर होता है तो वे सब देवता प्रसन्न होते हैं और यदि उनका आदर नहीं
होता तो सब देवता भी निराश लौट जाते हैं। अतः राजन् ! तुम भी अतिथि का विधिवत् सत्कार
करे रहो। अब बताओ, और क्या सुनना चाहते हो ?
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