Monday 23 November 2015

वनपर्व---धुन्धु का वध

धुन्धु का वध

युधिष्ठिर ने पूछा---मुनिवर ! ऐसा महाबली दै्य तो मैने आज तक कभी नहीं सुना। वह दैत्य कौन था ? मार्कण्डेयजी बोले---महाराज ! धुन्धु मधु-कैटभ का पुत्र था। एक दिन उसने एक पैरपर खड़े होकर बहुत काल तक तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उससे वर माँगने को कहा। वह बोला 'मैं तो हीवर चाहता हूँ कि देवता, दानव, गन्धर्व, राक्षस और सर्प---इनमें से किसी के भी हाथ से मेरी मृत्यु न हो।' ब्रह्माजी ने कहा, 'अच्छा जा; ऐसा ही होगा।' उनकी स्वीकृति पाकर धुन्धु ने उनके चरणों का अपने मस्तक से स्पर्श किया और वहाँ से चला गया। तभी से वह उतंग के आश्रम के पास अपने श्वाससे आग की चिनगारियाँ छोड़ता हुआ रेती में रहने लगा। राजा वृहदश्व के वन चले जाने के बाद उनका पुत्र कुवलाश्र्व उतंग मुनि के साथ सेना और सवारी लेकर वहाँ आ पहुँचा। इक्कीस हजार तो केवल उसके पुत्रों की सेना थी। उतंग की अनुमति से भगवान विष्णु ने समस्त लोकों का कल्याण करने के लिये राजा कुवलाश्व में अपना तेज स्थापित कर दिया। कुवलाश्व ज्यों ही युद्ध के लिये आगे बढ़ा, आकाश में उच्च स्वर से यह आवाज गूँज उठी कि 'यह राजा कुवलाश्व स्वयं अवध्य रहकर धुन्धु को मारेगा और धुन्धुमार नाम से विख्यात होगा।' देवताओं ने चारों तरफ दिव्य पुष्पों की वर्षा की, बिना बजाये ही देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं, ठण्ढ़ी हवाएँ चलने लगीं और पृथ्वी की उड़ती हुई धूल शान्त करने के लिये इन्द्र धीरे-धीरे वर्षा करने लगे। भगवान् विष्णु के तेज से बढ़ा हुआ राजा शीघ्र ही समुद्र के किनारे पहुँचा और अपने पुत्रों से चारों ओर की रेती खुदवाने लगा। सात दिनों की खुदाई होने के बाद महा बलवान् दैत्य धुन्धु दिखाई पड़ा। बालू के भीतर उसका बहुत बड़ा विकराल शरीर छिपा हुआ था जो प्रकट होने पर अपने तेज से देदिप्यमान होने लगा, मानो सूर्य ही प्रकाशमान हो रहे थे। धुन्धु प्रलयकाल की अग्नि के समान पश्चिम दिशा को घेरकर सो रहा था। कुवलाश्व के पुत्रों ने उसे सब ओर से घेर लिया और तीखे वाण, गदा, मूसल, परिघ और तलवर आदि अस्त्र-शस्त्रों से उसपर प्रहार करने लगे। उनलोगों की मार खाकर वह महाबली दैत्य क्रोध में भरकर उठा और उनके चलाये हुए तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। इसके बाद वह मुँह से संवर्तक अग्नि के समान आग की लपटें उगलने लगा और अपने तेज से उन राजकुमारों को एक क्षण में ही इस तरह भष्म कर दिया, जैसे पूर्वकाल में राजा सगर के पुत्रों को महात्मा कपिल ने दग्ध किया था, यह एक अद्भुत सी बात हो गयी। जब सभी राजकुमार धुन्धु की क्रोधाग्नि में स्वाहा हो गये और वह महाकाय दैत्य दूसरे कुम्भकरण के समान जगकर सावधान हो गया तब महातेजस्वी राजा कुलवाश्व उसकी ओर बढ़ा। उसके शरीर से जल की वर्षा होने लगी, जिसने धुन्धु के मुँह से निकलती हुई आग को पी लिया। इसप्रकार योगी कुलाश्व ने योगबल से उस आग को बुझा दिया और स्वयं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके समस्त जगत् का भय दूर करने के लिये उस दैत्य को भष्म कर डाला। धुन्धु को मारने के कारण वह धुन्धुमार के नाम से 'प्रसिद्ध' हुआ। इस युद्ध में राजा कुवलाश्व के केवल तीन पुत्र बच गये थे---दृढाश्व, कपिलाश्व और चन्द्राश्व। इन तीनों से ही इक्ष्वाकुवंश की परंपरा आगे तक चली।

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