Monday 23 November 2015

वनपर्व---धर्म की सूक्ष्मगति और फलभोग में जीव की परतंत्रता

धर्म की सूक्ष्मगति और फलभोग में जीव की परतंत्रता
मार्कण्डेयजी कहते हैं---धर्मव्याध ने कौशिक ब्राह्मण से कहा---"वृद्ध पुरुषों का कहना है कि धर्म के विषय में केवल वेद प्रमाण है। यह बात बिलकुल ठीक है; तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। उसके अनेकों भेद अनेकों शाखाएँ हैं। वेद में सत्य को धर्म और असत्य को अधर्म बताया गया है ; परन्तु यदि किसी के प्राणों का संकट उपस्थित हो और वहाँ असत्यभाषण से उसके प्राण बच जाते हों तो इस अवसर पर असत्य बोलना धर्म हो जाता है। वहाँ असत्य से ही सत्य का काम निकलता है। ऐसे समय में सत्य बोलने से असत्य का ही फल होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिससे परिणाम में प्राणियों का अत्यंत हित होता हो, वह ऊपर से असत्य दीखने पर भी वास्तव में सत्य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो, दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्य होने पर भी वास्तव में असत्य एवं अधर्म है। इस प्रकार विचार करके देखो, धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म दिखायी पड़ती है। मनुष्य जो भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। यदि उसे बुरे कर्मों के फलस्वरूप प्रतिकूल दशा प्राप्त होती है, दुःख आ पड़ते हैं तो वह देवताओं की निंदा करता है, ईश्वर को कोसता है; परन्तु अज्ञानवश अपने कर्मों के परिणाम पर उसका ध्यान नहीं जाता। मूर्ख कपटी और चंचल चित्तवाला मनुष्य सदा ही सुख-दुःख के चक्कर में पड़ा रहता है। उसकी बुद्धि, सुन्दरता, शिक्षा और पुरुषार्थ---कोई भी उसे उस चक्कर से बचा नहीं सकते। बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान मनुष्य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं; तो भी उन्हें इच्छानुसार फल नहीं मिलता। तथा दूसरा मनुष्य, जो जीवों की हिंसा करता है और सदा लोगों को ठगता रहता है, मौज से जिंदगी बिता रहा है। कोई बिना उद्योग के अपार सम्पत्ति का स्वामी हो जाता है और किसी को दिनभर का काम करने पर भी मजदूरी नसीब नहीं होती। इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्यों को जो रोग होते हैं, वे उनके कर्मों के ही फल हैं। जिनके पास भोजन का भण्डार पड़ा होता है, वे उसे खा नहीं पाते, दूसरी ओर जो स्वस्थ और शक्तिशाली हैं उन्हें बड़ी कठिनाई से अन्न मिलता है। इस प्रकार यह संसार असहाय और मोह शोक में डूबा हुआ है। कर्मों के अत्यन्त प्रबल प्रवाह में बहकर निरन्तर उसकी आधि-व्याधि रूपि प्रचण्ड तरंगों के थपेड़े सह रहा है। यदि जीव फल भोगने में स्वतंत्र होता, तो न कोई मरता और न बूढ़ा होता। सभी मनचाही कामनाएँ प्राप्त कर लेते। देखा जा रहा है कि जगत् में सभी लोग सबसे ऊँचा होना चाहते हैं और इसके लिये यथाशक्ति प्रयत्न भी करते हैं, किन्तु वैसा होता नहीं। बहुत से मनुष्य एक ही नक्षत्र और लग्न में उत्पन्न होते हैं, परन्तु पृथक्-पृथक् कर्मों का संग्रह होने के कारण फल की प्राप्ति में महान् अन्तर हो जाता है। शरीर पर आघात करने से शरीर का नाश हो जाता है, किन्तु अविनाशी जीव नहीं मरता; वह कर्मबन्धन में बँधा हुआ फिर दूसरे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। 

No comments:

Post a Comment