Friday 27 November 2015

वनपर्व--इन्द्रियों के असंयम से हानि और संयम से लाभ-

इन्द्रियों के असंयम से हानि और संयम से लाभ
धर्मव्याध ने आगे कहा---इन्द्रियों द्वारा किसी-किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सबसे पहले मनुष्यों का मन प्रवृत होता है। उसको जान लेने पर मन का उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है। जिसमें राग होता है उसके लिये मनुष्य प्रयत्न करता है, उसे पाने के लिये फिर बड़े-बड़े कार्यों का आरंभ करता है। और प्राप्त होने पर अपने अभीष्ट विषयों का बारम्बार सेवन करता है। अधिक सेवन से उसमें राग उत्पन्न होता है, उसके निमित्त से दूसरे के साथ द्वेष हो जाता है; फिर लोभ और मोह बढ़ते हैं। इस प्रकार लोभ से आक्रान्त और राग द्वेष से पीड़ित मनुष्य की बुद्धि धर्म में नहीं लगती। अगर वह धर्म करता भी है तो कोरा बहानामात्र होता है, उसकी ओट में स्वार्थ छिपा रहता है। ब्याज से धर्माचरण करनेवाला मनुष्य वास्तव में अर्थ चाहता है और धर्म के ब्याज से जब अर्थ की सिद्धि होने लगती है, तो वह उसी में रम जाता है; फिर उस धन से उसके हृदय में पाप करने की इच्छा जाग्रत् होती है। जब उसके मित्र और विद्वान् पुरुष उसे उस कर्म से रोकते हैं, तो उसके समर्थन में वह अशास्त्रीय उत्तर देते हुए वेदप्रतिपादित बताता है। रागरूपि दोष के कारण उसके द्वारा तीन प्रकार के अधर्म होने लगते हैं---1. वह मन से पाप का चिन्तन करता है। 2. वाणी से पाप की ही बात बोलता है। 3. क्रिया द्वारा भी पाप का ही आचरण करता है। अधर्म में लग जाने पर उसके अच्छे गुण नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे स्वभाववाले पापियों से उसकी मित्रता बढ़ती है। उस पाप से इस लोक में तो दुःख होता ही है, परलक में भी उसे बड़ी दुर्गति भोगनी पड़ती है। इस प्रकार मनुष्य कैसे पापात्मा होता है, यह बात बतायी गयी। अब धर्म की प्राप्ति कैसे होती है इसको सुनो। किसमें सुख है और किसमें दुःख---इसके विवेचन में जो कुशल है, वह अपनी तीक्ष्णबुद्धि से विषय संबंधी दोषों को पहले ही समझ लेता है। इससे वह सात्विक व्यक्तियों का संग करने लगता है। सतसंग से उसकी बुद्धि धर्म में प्रवृत हो जाती है। पंचभूतों से बना हुआ चराचर जगत् ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म से उत्कृष्ट कोई पद नहीं है। पाँच भूत ये हैं---आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध---ये क्रमशः इनके विशेष गुण हैं। पाँच भूतों के अतिरिक्त छठा तत्व है चेतना, इसी को मन कहते हैं। सातवाँ तत्व है बुद्धि और आठवाँ है अहंकार। इनके सिवा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, जीवात्मा और सत्व, रज, तम---सब मिलकर सत्तरह तत्वों का समूह अव्यक्त कहलाता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन और बुद्धि के जो व्यक्त और अव्यक्त विषय हैं, उनको सम्मिलित करने से यह समूह चौबीस तत्वों का माना जाता है। पृथ्वी के पाँच गुण हैं---शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इनमें गन्ध को छोड़कर शेष चार गुण जल के भी हैं। तेज के तीन गुण हैं---शब्द, स्पर्श और रूप। वायु के शब्द और स्पर्श---दो ही गुण हैं और आकाश का शब्द ही एक गुण है। ये पाँच भूत एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते, एकीभाव को प्राप्त होकर ही स्थूल-रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस समय चराचर प्राणी तीव्र संकल्प के द्वारा अन्य देह की भावना करते हैं, उस समय काल के अधीन हो दूसरे शरीर में प्रवेश करते हैं। पूर्व देह के विस्मरण को ही उनकी मृत्यु कहते हैं। इस प्रकार क्रमशः उनका अविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है। देह के प्रत्येक अंग में जो एक आदि धातु दिखाई देते हैं, ये पंचभूतों के ही परिणाम हैं। इनसे सारा चराचर जगत् व्याप्त है। बाह्य इन्द्रियों से जिसका संसर्ग होता है, वह व्यक्त है; किन्तु जो विषय इनद्रियग्राह्य नहीं है, उसे अव्यक्त समझना चाहिये। अपने-अपने विषयों का अतिक्रमण न करके शब्दादि विषयों को ग्रहण करनेवाली इन इन्द्रियों को जब आत्मा अपने वश में करता है, उस समय मानो वह तपस्या करता है---इन्द्रिय-निग्रह द्वारा आत्मतत्व के साक्षात्कार का प्रयत्न करता है। इससे आत्मदृष्टि प्राप्त हो जाने के कारण वह संपूर्ण लोकों में अपने को व्याप्त और अपने में संपूर्ण लोकों को स्थित देखता है। इस प्रकार परात्पर ब्रह्म को जाननेवाला ज्ञानी पुरुष जबतक प्रारब्ध शेष रहता है, तभी तक संपूर्ण भूतों को देखता है। सब अवस्थाओं में सब भूतों को आत्मरूप से देखनेवाले उस ब्रह्मभूत ज्ञानी का कभी भी अशुभकर्मों से संयोग नहीं होता। जो मायामय क्लेशों को लाँघ जाता है, उसको लोकवृति के प्रकाशक ज्ञानमार्ग के द्वारा परम पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। तप होता है,इन्द्रियों का संयम करने से। मन सहित इन्द्रियों का रोकना ही योग का अनुष्ठान है। यही संपूर्ण तपस्या का मूल है। इन्द्रियों को अधीन न रखना ही नरक का हेतु है।इन्द्रियों का साथ देने से सभी तरह के दोष संघटित होते हैं और उन्हीं को वश कर लेने से सिद्धि प्राप्ति होती है। अपने शरीर में विद्यमान मन सहित छहों इन्द्रियों पर जो अधिकार प्राप्त कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पापों मेही नहीं लगता, फिर अनर्थों से उसका संयोग नहीं होता। यह शरीर ही रथ है, आत्मा सारथि, इन्द्रिय घोड़े हैं। जैसे कुशल सारथी घोड़ों को अपने वश में रखकर यात्रा करता है, उसी प्रकार सावधान लोग घोड़ों को अपनेवश में रखकर सुखपूर्वक यात्रा करता है।

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