Monday 2 November 2015

वनपर्व---मार्कण्डेय द्वारा बालमुकुन्द का दर्शन और उनकी महिमा का वर्णन

मार्कण्डेय द्वारा बालमुकुन्द का दर्शन और           उनकी महिमा का वर्णन

मार्कण्डेयजी कहते हैं---राजा युधिष्ठिर ! एक समय की बात है, जब मैं एकार्णव के जल में सावधानीपूर्वक बड़ी देर तक तैरता-तैरता बहुत दूर जाकर थक गया तो विश्राम देने लायक कोई भी सहारा न रहा। तब किसी समय उस अनन्त जलराशि में मैने बड़ा सुन्दर और विशाल वट का वृक्ष देखा। उसकी चौड़ी शाखा पर एक नयनाभिराम श्यामसुन्दर बालक बैठा था। उसका मुख कमल के समान कोमल और चन्द्रमा के समान नेत्रों को आनंद देनेवाला था तथा उसकी आँखें खिले हुए कमल के समान विशाल थीं। राजन् ! उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगा---सारा संसार तो नष्ट हो गया, फिर यह बालक यहाँ कैसे सो रहा है ? मैं भूत, भविष्य और वर्तमान---तीनों कालों को जानता हूँ, तो भी अपने तपबल से भली-भाँति ध्यान लगाने पर भी उस बालक को न जान सका। तब वह बालक बोला, मार्कण्डेय ! मैं जानता हूँ तुम बहुत थक गये हो और विश्राम लेने की इच्छा करते हो। अतः हे मुने ! तुमपर कृपा करके मै यह निवास दे रहा हूँ। ' उस बालक के ऐसा कहने पर मुझे दीर्घजीवन और मनुष्य शरीर पर बड़ा खेद हुआ। इतने में ही बालक ने अपना मुँह फैलाया और दैवयोग से मैं परवश की भाँति उसमें प्रवेश कर गया, सहसा उसके उदर में जा पड़ा। वहाँ मुझे समस्त राष्ट्रों और नगरों से भरी हुई ये पृथ्वी दिखाई दी। मैने उसमें गंगा, यमुना, चन्द्रभागा, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा और कावेरी आदि नदियों को भी देखा तथा रत्नों और जलजन्तुओं से भरा समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा से शोभायमान आसमान तथा पृथ्वी पर अनेकों वन-उपवन भी देखे। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी चराचर जगत् मेरे देखने में आया था, सब उसबालक के उदरमें मुझे दीख पड़ा। मैं प्रतिदिन फलाहार करता और घूमता रहता। इस प्रकार सौ वर्ष तक विचरता रहा, किन्तु कभी उसके शरीर का अन्त न मिला। अन्त में मैने मन वाणी से उस वरदायक दिव्य बालक की ही शरण ली। बस, सहसा उसने अपना मुख खोला और मैं वायु के समान वेग से अकस्मात् उसके मुख से बाहर आ गया। देखा तो वह अमित तेजस्वी बालक पहले ही की भाँति सारे विश्व को अपने उदर में रखकर उसी वटवृक्ष की शाखा पर विराजमान है। मुझे देखकर उस महाकान्तिवाले पीताम्बरधारी बालक ने प्रसन्न होकर कुछ मुस्कराते हुए कहा, 'मार्कण्डेय ! मैं पूछता हूँ, तुमने मेरे इस शरीर में अबविश्राम तो कर लिया न ? तुम थके से जान पड़ते हो।' उस अतुलित तेजस्वी बालक के असीम प्रभाव को देखकर ममैने उसके लाल-लाल तलुओं और कोमल अंगुलियों से सुशोभित दोनो सुन्दर चरणों को मस्तक से छुआकर प्रणाम किया। फिरविनय से हाथ जोड़े प्रयत्नपूर्वक उसके पास जाकर उस कमलनयन भगवान के दर्शन किये और उनसे कहने लगा,'भगवन् ! मैने आपके शरीर के भीतर प्रवेश करके वहाँ समस्त चराचर जगत् देखा है। प्रभो ! बताइये तो, आप इस विराट विश्व को उदर में धारण कर यहाँ बालक वेष में क्यों विराजजमान हैं ? कबतक आप इस रुप में यहाँ रहेंगे ?'मार्कण्डेय ! जिन धर्मों के आचरण से मनुष्य को कल्याण की प्राप्ति होती है, वे हैं---सत्य, दान, तप और अहिंसा। ज्ञानी स्वाध्याय करके शान्तचित्त एवं क्रोधशून्य होकर मुझे ही प्राप्त करते हैं। पापी, लोभी, कृपण, अनार्य और अजितेन्द्रिय मनुष्यों को मैं कभी नहीं मिल सकता। जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अवतार धारण करता हूँ। हिंसा में प्रेम रखनेवाले दैत्य और दारुण राक्षस जब इस संसार में उत्पन्न होकर अत्याचार करते हैं और देवता भी उनका वध नहीं कर पाते, उस समय मैं पुण्यवानोंके घर अवतार लेकर सब अत्याचारियों का संहार करता हूँ। देवता, मनुष्य, नाग, राक्षस आदि प्राणियों तथा स्थावर भूतों को मैं अपनी माया से ही रचता हूँ ओर माया से ही उनका संहार करता हूँ। मैं सृष्टि रचना के समय अचिन्त्य स्वरूप धारण करता हूँ और मर्यादा की स्थापना तथा रक्षा के लिये मानव शरीर से अवतार लेता हूँ। सत्ययुग में मेरा वर्ण श्वेत, त्रेता में पीला, द्वापर में लाल और कलियुग में कृष्ण होता है। कलि में धर्म का एक ही भाग शेष रह जाता है और अधर्म के तीन भाग रहते हैं। जब जगत् का विनाशकाल उपस्थित होता है, तब महादारुण कालरूप होकर मैं अकेला ही स्थावर-जंगम संपूर्ण त्रिलोकी को नष्ट कर देता हूँ। मैं स्वायम्भू, सर्वव्यापक, अनन्त, इन्द्रियों का स्वामी और महान् पराक्रमी हूँ। यह जो सब भूतों का संहार करनेवाला और सबको उद्योगशील बनानेवाला निराकार कालचक्र है, इसका संचालनमैं ही करता हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा मेरा स्वरूप है। मैं संपूर्ण प्राणियों के भीतर स्थित हूँ किन्तु मुझे कोई नहीं जानता। मैं शंख, चक्र, गदा धारण करनेवाला विश्वात्मा नारायण हूँ। सहस्त्रयुग के अन्त में जो प्रलय होता है, उसमें उतने ही समय तक सब प्राणियों को मोहित करके जल में शयन करता हूँ। यद्यपि मैं बालक नहीं हूँ, फिर भी जबतक ब्रह्मा नहीं जागता तबतक बालक रूप धारण करके यहाँ रहता हूँ। विप्रवर ! इस प्रकार मैने तुमसे अपने स्वरूप का उपदेश किया है, जिसको जानना देवता और असुरों के लिये भी कठिन है। जबतक भगवान् ब्रह्मा का
  जागरण न हो, तबतक तुम श्रद्धा और विश्वासपूर्वक सुख से विचरते रहो। ब्रह्मा के जागने पर मैं उनसे एकीभूत होकर आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी की तथा अन्य चराचर भूतों की भी सृष्टि करूँगा। युधिष्ठिर ! यह कहकर वे परम अदभुत भगवान् बालमुुन्द अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार मैने सहस्त्रयुगी के अन्त में के अनत में यह आश्चर्यजनक प्रलय-लीला देखी थी। उस समय जिन परमात्मा का मुझे दर्शन हुआ था, ये तुम्हारे सम्बनधी श्रीकृष्ण वे ही हैं। इन्हीं के वरदान से मेरी स्मरण-शक्ति कभी क्षीण नहीं होती, आयु लम्बी हो गयी है और मृत्यु मेरे वश में रहती है। ये गोविन्द ही प्रजापतियों के भी पति हैं। पाण्डवों ! येमाधवही सबके माता-पिता हैं; तुम इन्हीं की शरण में जाओ। ये ही सबको शरण देनेवाले हैं। मार्कण्डेय मुनि के इस प्रकार कहने पर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी---सबने उठकर भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और भगवान् ने भी उनका आदर करे हुए आश्वासन दिया।

     

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