Wednesday 4 November 2015

वनपर्व---मार्कण्डयजी का युधिष्ठिर के लिये धर्मोपदेश

मार्कण्डयजी का युधिष्ठिर के लिये धर्मोपदेश
तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने पुनः मार्कण्डेयजी से पूछा, 'मुने ! प्रजा का पालन करते समय मुझे किस धर्म का आचरण करना चाहिये ? मार्कण्डेयजी बोले---राजन् ! तुम सब प्राणियों पर दया करो। सबका हित साधन करने में लगे रहो। सदा सत्य-भाषण करो। सबके प्रति विनीत और कोमल बने रहो। इन्द्रियों को वश में रखो। प्रजा की रक्षा में सदा तत्पर रहो। धर्म का आचरण और अधर्म का त्याग करो। देवताओं और पितरों की पूजा करो। यदि असावधानी के कारण किसी के मन के विपरीत कोई व्यवहार हो जाय तो उसे अच्छी प्रकार दान से संतुष्ट करके वश में करो। 'मैं सबका स्वामी हूँ, ऐसे अहंकार को कभी पास न आने दो, तुम अपने को सदा पराधीन समझते रहो।' तात युधिष्ठिर ! मैने तुम्हे जो यह धर्म बताया है, इसका भूतकाल में भी धर्मात्मा पुरुष पालन करते रहे हैं और भविष्य में भी इसका पालन आवश्यक है।तुम्हें तो सब मालुम ही है; क्योंकि इस पृथ्वी पर भूत या भविष्य ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम्हे ज्ञात हो। प्रसिद्ध कुुरुवंश में तुम्हारा जन्म हुआ है; अतः मैने तुम्हे जो कुछ बताया है उसका मन, वाणी और कर्म से पालन करो। युधिष्ठिर ने कहा---द्विजवर ! आपने जो उपदेश दिया है, वह मेरे कानों को मधुर और मन को बहुत प्रिय लगा है। मैं प्रयत्नपूर्वक आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। प्रभो !  धर्म का त्याग होता है लोभ और भय आदि से; मेरे मन में न लोभ है न भ्रम। इसी प्रकार किसी के प्रति डाह या जलन भी नहीं है। इसलिये आपने मेरे लिये जो कुछ भी आज्ञा की है, सबका पालन करूँगा। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के सहित समस्त पाण्डव तथा वहाँ आये हुए सभी ऋषि महर्षिगण बुद्धिमान मार्कण्डेयजी के मुख से धर्मोपदेश और कथाएँ सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

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