Monday 23 November 2015

वनपर्व---पतिव्रता स्त्री और कौशिक ब्राह्मण का संवाद

पतिव्रता स्त्री और कौशिक ब्राह्मण का संवाद
धन्धुमार की कथा सुनने के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा---भगवन् ! अब मैं आपसे पतिव्रता स्त्रियों के सूक्ष्म धर्म और उनके महात्म्य की कथा सुनना चाहता हूँ। माता-पिता और गुरुजनों की सेवा करनेवाले बालक और पातिव्रत्य करनेवाली स्त्रियाँ---ये सबके लिये आदरणीय हैं। स्त्रियाँ सदाचार की रक्षा करती हुई जिस आदरभाव से उनकी सेवा करती हैं, यह कोई आसान काम नहीं है। उनका धर्म बड़ा ही कठिन है, उससे कठिन मुझे कोई और धर्म दिखाई नहीं देता। इसलिे मुनिवर ! आज आप मुझे पतिव्रताओं के माहात्म्य की कथा सुनाइये। मार्कण्डेयजी बोले--- राजन् ! सती स्त्रियाँ पति की सेवा से स्वर्गलोक पर विजय पाती हैं तथा माता पिता की सेवा करके उन्हें प्रसन्न करनेवाला पुत्र इस संसार में सुयश और सनातन धर्म का विस्तार कर अन्त में उत्तम लोकों को प्राप्त होता है। अब मैं पहले पतिव्रता के महत्व और धर्म का वर्णन करता हूँ। पू्र्वकाल में कौशिक नाम का एक ब्राह्मण था। वह बड़ा ही धर्मात्मा और तपस्वी था। उसने वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया था। एक दिन की बात है, वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर वेदपाठ कर रहा था। उसी समय उस वृक्ष के ऊपर एक बगुली बैठी हुई थी, उसने कौशिक के ऊपर बीट कर दी। वह क्रोध से तमतमा उठा और बगुली का अनिष्ट चिंतन करते हुए उसकी ओर देखने लगा।बेचारी चिड़िया पेड़ से गिर पड़ी और उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। बगुली को देख ब्राह्मण के हृदय में दया का संचार और उसे अपने इस कुकृत्य पर बड़ा पश्चाताप होने लगा। उसके मुँह से निकल पड़ा--'ओह ! आज मैने क्रोध के वशीभूत होकर कैसा अनुचित कार्य कर डाला।' इस प्रकार बारम्बार पछताकर वह गाँव में भिक्षा के लिये गया। उस गाँव में जो लोग शुद्ध और पवित्र आचरणवाले थे, उन्हीं के घरों पर भिक्षा माँगता हुआ वह एक ऐसे घर पहुँचा, जहाँ पहले भी कभी भिक्षा प्राप्त कर चुका था। द्वार पर जाकर बोला, 'भिक्षा देना, माई ! भीतर से एक स्त्री ने कहा, 'ठहरो, बाबा ! अभी लाती हूँ।' वह स्त्री अपने घर के जूठे बर्तन साफ कर रही थी। ज्योंही वह उस काम से निवृत हुई, उसके पति घर पर आ गये। वे बहुत भूखे थे। पति को आया देख स्त्री को बाहर खड़े हुए ब्राह्मण की याद न रही। वह अपने पति की सेवा में जुट गयी। वह उनका पैर धोकर एक पात्र में सुन्दर स्वादिष्ट भोजन परोसकर लायी और सामने रख दिया। युधिष्ठिर ! वह स्त्री प्रतिदिन पति को भोजन कराकर उसके उच्छिष्ट को प्रसाद समझकर बड़े प्रेम से भोजन करती थी, और पति को ही अपना देवता मानती थी और स्वामी के विचार के अनुकूल ही आचरण करती थी।वह कभी मन से भी परपुरुष का चिन्तन नहीं करती थी। सदाचार का पालन उसके जीवन का अंग था, उसका शरीर भी शुद्ध था और हृदय भी। वह घर के काम-काज में कुशल थी, कुटुम्ब में रहनेवाले प्रत्येक स्त्री पुरुष का हित चाहती थी और पति के हितसाधना का ही उसे ध्यान रहता था। देवता की पूजा, अतिथि का सत्कार, सेवकों का भरण-पोषण और सास-ससुर की सेवा---इनमें वह कभी असावधानी नहीं करती थी। अपने मन और इन्द्रियों पर उसका पूरा अधिकार था। पति की सेवा करते-करते उसे भिक्षा के लिये खड़े हुए ब्राह्मण की याद आ गयी। पति की सेवा का तात्कालिक कार्य पूर्ण हो ही चुका था। वह भिक्षा लेकर बड़े संकोच से ब्राह्मण के निकट गयी। ब्राह्मण जला-भुना खड़ा था, देखते ही बोला---"देवी ! जब तुम्हे देर ही करनी थी 'ठहरो बाबा !' कहकर मुझे रोका क्यों ? मुझे जाने क्यों नहीं दिया ? ब्राह्मण को क्रोध से जलते देख उस सती ने बड़ी शान्ति से कहा---'पण्डित बाबा ! क्षमा करो; मेरे सबसे महान् देवता मेरे पति हैं। वे भूखे-प्यासे, थके-माँदे घर पर आये थे; उनको छोड़कर कैसे आती ? उनकी ही सेवा-टहल में लग गयी।' ब्राह्मण बोला---क्या कहा ? ब्राह्मण बड़े नहीं हैं, पति ही सबसे बड़ा है ! गृहस्थ धर्म में रहते हुए भी तुम ब्राह्मणों का अपमान कर रही हो। अरी ! ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे चाहें तो इस पृथ्वी को भी जलाकर खाक कर सकते हैं। सती स्त्री ने कहा---तपस्वी बाबा ! क्रोध न कीजिये, मैं वह बगुली चिड़िया नहीं हूँ। मेरी ओर यों लाल-लाल आँखें करके क्यों देखते हैं ? आप कुपित होकर मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ? मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती। इस समय मुझसे जो आपकी उपेक्षा हुई है, उसके लिये आप क्षमा करें। मुझे तो पति की सेवा से जिस धर्म का पालन होता है, वही अधिक पसंद है। देवताओं में भी मेरे लिये पति ही सबसे बड़े देवता हैं। मैं तो सामान्य रूप से इस पतिव्रत्य धर्म का ही पालन करती हूँ। इस पतिसेवा का फल आप प्रत्यक्ष देख लीजिये। आपने कुपित होकर बगुली पक्षी को दग्ध किया था, यह बात मुझे मालूम हो गयी। बाबा ! मनुष्यों का एक बहुत बड़ा शत्रु है जो उनके शरीर में ही रहता है; उसका नाम है---क्रोध। जो क्रोध और मोह को जीत ले और जो सदा सत्यभाषण करे, गुरुजनों को सेवा से प्रसन्न रखे, इन्द्रियों को जीतकर पवित्र भाव से धर्म में लगा रहे, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मणों के लिये जो कल्याणकारी धर्म है, उसी का उनके समक्ष वर्णन करना उचित है। इसलिये मैं आपके सामने यह बात कर रही हूँ।ब्राह्मण सत्यवादी होते हैं, उनका मन कभी असत्य में नहीं लगता। मेरा विचार है कि अभी आपको धर्म का यथार्थ तत्व ज्ञात नहीं हुआ है। यदि 'आप परम धर्म क्या है ?' इसका मतलब जानना चाहते हैं तो मिथिलापुरी में जाकर माता-पिता के भक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय धर्मव्याध से पूछिये। वह आपको धर्म का तत्व समझा देगा।

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