Friday 27 November 2015

वनपर्व---जीवात्मा की नित्यता और पुण्य-पाप कर्मों के शुभाशुभ परिणाम

जीवात्मा की नित्यता और पुण्य-पाप कर्मों के शुभाशुभ परिणाम
कौशिक ब्राह्मण ने प्रश्न किया-- हे कर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! जीव सनातन कैसे हैं, इस को मैं ठीक-ठीक समझना चाहता हूँ। धर्मव्याध ने कहा---देह का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता। मूर्ख मनुष्य जो कहते हैं कि जीव मरता है, सो उनका यह कथन मिथ्या है। जीव तो इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। इस जगत् में मनुष्य के किये हुए कर्मों को दूसरा कोई नहीं भोगता; उसने जो कुछ कर्म किया है, उसे वह स्वयं ही भोगेगा। किेये हुए कर्म का कभी नाश नहीं होता। पवित्रात्मा मनुष्य पुण्यकर्मों का आचरण करते हैं और नीच पुरुष पापकर्मों में प्रवृत होते हैं। वे कर्म मनुष्य का अनुसरण करते हैं और उनसे प्रभावित होकर वह दूसरा जन्म लेता है। जीव कर्मबीजों का संग्रह करके जिस प्रकार शुभ कर्मों के अनुसार उत्तम योनियों में और पापकर्मों के अनुसार अधम योनियों में जन्म ग्रहण करता है उसका मैं संक्षेप में वर्णन करता हूँ। केवल शुभकर्मों का संयोग होने से जीव को देवत्व की प्राप्ति होती है, शुभ और अशुभ, दोनो का मिश्रण होने पर वह मनुष्य योनि में जन्म लेता है। मोह में डालनेवाले तामस कर्मों के आचरण से पशु-पक्षी आदि योनि में जाना पड़ता है और पापी मनुष्य नरक में पड़ता है। वह जन्म-मरण और वृद्धावस्था के दुःखों से सदा पीड़ित होता रहता है। अपने ही पापों के कारण उसे बारंबार संसार के क्लेश भोगने पड़ते हैं। मृत्यु के पश्चात् पापकर्मों से दुःख प्राप्त होता है और उस दुःख का भोग करने के लिये ही वह जीव निम्न वर्ग में जन्म लेता है। वहाँ फिर नये-नये बहुत से पापकर्म कर बैठता है, जिसके कारण कुपथ्य खा लेने वाले रोगी के तरह उसे पुनः नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। जबतक बन्धन में डालनेवाले कर्मों का भोग पूरा नहीं होता और नये-नये कर्म बनते रहते हैं, तबतक अनेकों कष्टों को सहन करता हुआ वह चक्र की तरह इस संसार में चक्कर लगाता रहता है। जब बन्धनकारक कर्मों के भोग पूर्ण हो जाते हैं और सत्कर्मों के द्वारा उसमें शुद्धि आ जाती है, तब वह तप और योग का आरम्भ करता है। अतः पुण्यकर्मों के फलस्वरूप उसे उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर वह शोक में नहीं पड़ता। पाप करनेवाले मनुष्य को पाप की आदत पड़ जाती है, फिर उसके पाप का अन्त नहीं होता। इसलिये पुण्य करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। जो संस्कारसम्पन्न, जितेन्द्रिय तथा मन पर काबू रखनेवाला है, उस बुद्धिमान को दोनो ही लोकों में सुख की प्राप्ति होती है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह सत्पुरुषों के धर्म का पालन करे और शिष्टों के समान ही बर्ताव करे। संसार में जिससे किसी को कष्ट न पहुँचे, ऐसी वृत्ति से जीविका च जो संस्कारसम्पन्न, जितेन्द्रिय तथा मन पर काबू रखनेवाला है, उस बुद्धिमान को दोनो ही लोकों में सुख की प्राप्ति होती है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह सत्पुरुषों के धर्म का पालन करे और शिष्टों के समान ही बर्ताव करे। संसार में जिससे किसी को कष्ट न पहुँचे, ऐसी वृत्ति से जीविका चलावे। 

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