राजा शिबि का चरित्र
मार्कण्डेयजी कहते हैं---युधिष्ठिर
! एक समय देवताओं ने आपस में सलाह की कि पृथ्वी पर चलकर उशीनर के पुत्र राजा शिबि की
साधुता की परीक्षा करें। तब अग्नि कबूतर का रूप बनाकर चला और इन्द्र ने बाज पक्षी होकर
उसका पीछा किया। राजा शिबि अपने दिव्य सिंहासन पर बैठे हुए थे, कबूतर उनकी गोद में
जा गिरा। यह देखकर राजा के पुरोहित ने कहा---'राजन् ! यह कबूतर बाज क डर से अपने प्राण
बचाने के लिये आपकी शरण में आया है।' कबूतर ने भी कहा---महाराज ! बाज मेरा पीछा कर
रहा है, उससे डरकर प्राणरक्षा के लिये आपकी शरण में आया हूँ। वास्तव में मैं कबूतर
नहीं, ऋषि हूँ; मैने एक शरीर से दूसरा शरीर बदल लिया था। अब प्राणरक्षक होने के कारण
आप ही मेरे प्राण हैं; मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे बचाइये। अब बाज बोला---राजन् ! आप
इस कबूतर को लेकर मेरे काम में विघ्न न डालें। राजा कहने लगे---ये बाज और कबूतर जितनी
शुद्ध संस्कृत वाणी बोलते हैं, वैसी क्या कभी किसी ने पक्षी के मुख से सुनी है ? मैं
किस प्रकार इन दोनो का स्वरूप जानकर उचित न्याय करूँ ? जो मनुष्य अपनी
शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसके देश में समय
पर वर्षा नहीं होती, उसके बोये हुए बीज नहीं जमते और कभी संकट के समय जब अपनी रक्षा
चाहता है तो उसे कोई रक्षक नहीं मिलता। उसकी संतान बचपन में ही मर जाती है। वह स्वर्ग
जाने पर भी वहाँ से नीचे ढ़केल दिया जाता है, इन्द्र आदि देवता उसके ऊपर वज्र का प्रहार
करते हैं। इसलिये मैं प्राणत्याग कर दूँगा, पर कबूतर नहीं दूँगा। बाज ! अब तुम व्यर्थ
कष्ट मत उठाओ। कबूतर को तो मैं किसी तरह नहीं दे सकता। इस कबूतर को
देने के सिवा और जो भी तुम्हारा प्रिय कार्य हो वह बताओ; उसे मैं पूर्ण करूँगा। बाज बोला---राजन्
! अपनी दायीं जाँघ से माँस काटकर इस कबूतर के बराबर तोलो और जितना माँस चढ़े, वही मुझे
अर्पण करो। ऐसा करने पर कबूतर की रक्षा हो सकती है। तब राजा ने अपनी दायीं जंघा
से माँस काटकर उसे तराजू पर रखा, किन्तु वह कबूतर के बराबर नहीं हुआ। फिर दूसरी
बर रखा तो भी कबूतर का ही पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार क्रमशः उन्होंने अपने सभी अंगों
का माँस काट-काटकर तराजू पर चढ़ाया, फिर भी कबूतर ही भारी रहा। तब राजा स्वयं ही तराजू
पर चढ़ गये। ऐसा करते समय उनके मन में तनिक भी क्लेश न हुआ। यह देखकर बाज बोल उठा---
'हो गई कबूतर की रक्षा !' और वहीं अन्तर्धान हो गया। अब राजा शिबि कबूतर से बोले---'कपोत
! यह बाज कौन था ?' कबूतर ने कहा, वह बाज साक्षात् इन्द्र थे और मैं अग्नि हूँ। राजन्
! हम दोनो तुम्हारी साधुता देखने के लये यहाँ आये थे। तुमने मेरे बदले में जो यह अपना
माँस तलवार से काटकर दिया है, इसके घाव को अभी मैं अच्छा कर देता हूँ। यहाँ की चमड़ी
का रंग सुन्दर और सुनहला हो जायगा तथा इससे बड़ी पवित्र और सुन्दर गंध निकलती रहेगी।
तुम्हारी जंघा के इस चिह्न के पास से एक यशस्वी पुत्र उत्पन्न होगा, जिसका नाम होगा
कपोतरोमा। ' यह कहकर अग्निदेव
चले गये। राजा शिबि से कोई कुछ भी माँगता, वे दिये बिना नहीं रहते थे। एक बार राजा
के मंत्रियों ने उनसे पूछा---'महाराज ! आप किस इच्छा से ऐसा साहस करते हैं ? अदेय वस्तु
का भी दान करने को उद्यत हो जाते हैं। क्या आप यश चाहते हैं ?' राजा बोले
---नहीं, मैं यश की कामना से अथवा ऐश्वर्य के लिये दान नहीं करता। भोगों की अभिलाषा
से भी नहीं। धर्मात्मा पुरुषों ने इस मार्ग का सेवन किया है, अतः मेरा भी यह कर्तव्य
है---ऐसा समझकर ही मैं यह सब कुछ करता हूँ। सत्पुरुष जिस मार्ग से चले हैं, वही उत्तम
है---यही सोचकर मेरी बुद्धि उत्तम पथ का ही आश्रय लेती है। मा्ण्डेयजी कहते हैं---इस
प्रकार महाराज शिबि के महत्व को मैं जानता हूँ, इसलिेये मैने तुमसे उसका यथावत् वर्णन
किया है।
No comments:
Post a Comment