Monday 23 November 2015

वनपर्व---उतंग मुनि का राजा बृहदश्रव् से धुन्धु को मारने के लिये अनुरोध

उतंग मुनि का राजा बृहदश्रव् से धुन्धु को मारने के लिये अनुरोध
मार्कण्डेयजी कहते हैं---सूर्यवंशी राजा इक्ष्वासु जब परलोकवासी हो गये तो उनका पुत्र शशाद इस पृथ्वी पर राज्य करने लगा। उसकी राजधानी अयोध्या थी। शशाद का पुत्र ककुत्स्थ का अनेना, अनेना का पृथु, पृथु का विश्र्वगश्र्व, उसका अद्रि, अद्रि का युवनाश्र्व और उसका पुत्र श्राव हुआ। श्राव के श्रावस्त, जिसने श्राव्ती नाम की पुरी बसायी। श्रावस्त के पुत्र का नाम वृहद्रथ हुआ, उसका पुत्र कुवलाश्र्व के नाम से विख्यात हुआ।कुवलाश्र्व के इक्कीस हजार पुत्र थे। ये सभी विद्याओं में पारंगत और महान् बलवान् थे। राजा कुवलाश्र्व भी गुणों में अपने पिता से बहुत बढ़-चढ़कर था। जब वह राज्य संभालने के योग्य हो गया तो  उसके पिता ने उसे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं तपस्या करने के लिये वन जाने को उद्यत हो गये। महर्षि उतंग ने जब यह सुना कि वृहदश्व वन में जानेवाले हैं तो वे उनकी राजधानी में आये और राजा को रोकते हुए कहने लगे---राजन् ! हमलोग आपकी प्रजा हैं, आपका कर्तव्य है---प्रजा की रक्षा करना। आप पहले इस प्रधान कर्तव्य का पालन कीजिये। आपकी ही कृपा से सारी प्रजा और इस पृथ्वी का उद्वेग दूर होगा। यहाँ रहकर प्रजा की रक्षा करने में तो बड़ा भारी पुण्य दिखाई देता है, वैसा धर्म वन में जाकर तपस्या करने में नहीं दीखता। अतः अभी आपको ऐसा विचार नहीं करना चाहिये। मरु देश में हमारे आश्रम के निकट ही रेत से भरा हुआ एक समुद्र है, उसका नाम है उज्जालक सागर। उसकी लम्बाई-चौड़ाई अनेकों योजन है। वहाँ एक बड़ा बलवान दानव रहता है, उसका नाम है---धुन्धु। वह मधु-कैटभ का पुत्र है। पृथ्वी के भीतर छिपकर रहा करता है। बालू के भीतर रहनेवाला वह महाक्रूर दैत्य वर्ष-भर में एक बार साँस लेता है। जब वह साँस छोड़ता है, उस समय पर्वत और वनों के सहित यह पृथ्वी डोलने लगती है। उसके श्वास के आँधी से रेत का इतना ऊँचा बवंडर उठता है, जिससे सूर्य भी ढ़क जाता है, सात दिनों तक भूचाल होता रहता है। अग्नि की लपटें, चिनगारियाँ और धुएँ उठते रहते हैं।महाराज ! इन सब उत्पातों के कारण हमारा आश्रम में रहना कठिन हो गया है। अतः हे राजन् ! मनुष्यों का कल्याण करने के लिये आप उस दैत्य का वध कीजिये। राजा बृहद्रथ ने हाथ जोड़कर कहा---ब्रह्मण् ! आप जिस उद्देश्य से यहाँ पधारे हैं, वह निष्फल नहीं होगा। मेरा पुत्र कुवलाश्र्व इस भूमंडल में अद्वितीय वीर है। आपका अभिष्ट कार्य वह अवश्य पूर्ण करेगा। फिर राजर्षि उतंग मुनि की आज्ञा पाकर उनके अभीष्ट कार्य को पूर्ण करने के लिये अपने पुत्र को आदेश दिया और स्वयं तपोवन में चले गये।

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