कौशिक ब्राह्मण का मिथिला में जाकर धर्मव्याध से उपदेश लेना
उस पतिव्रता की बातें
सुनकर कौशिक ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने क्रोध का स्मरण करके वह अपराधी की भाँति
अपने को धिक्कारने लगा। फिर धर्म की सूक्ष्म गति पर विचार कर उसने मन-ही-मन यह निश्चय
किया कि 'मुझे उस सती के कहने पर श्रद्धा और विश्वास करना चाहिये, इसलिये मैं अवश्य
ही मिथिला जाऊँगा और उस महात्मा व्याध से मिलकर धर्म-संबंधी प्रश्न करूँगा।' इस प्रकार
विचार कर वह कौतूहलवश मिथिलापुरी को चल दिया। जाते-जाते वह राजा जनक से सुरक्षित मिथिलापुरी
पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर वह सब ओर घूमने और धर्मव्याध का पता लगाने लगा। एक स्थान पर
जाकर उसने पूछा तो लोगों ने उसे उसका स्थान बता दिया। वहाँ जाकर देखा कि धर्मव्याध
कसाईखाने में बैठकर माँस बेच रहा है। ब्राह्मण एकान्त में जाकर बैठ गया। व्याध को मालूम
हो गया कि कोई ब्राह्मण मुझसे मिलने आये हैं, अतः वह शीघ्र उनके समीप आया और बोला---'भगवन्
! मैं आपका स्वागत करता हूँ। मैं ही व्याध हूँ, जिसे ढ़ूँढ़ते हुए आपने यहाँ तक आने का
कष्ट किया है। आपका भला हो। आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ ? यह तो मैं जानता हूँ
कि आप यहाँ कैसे पधारे हैं। उस पतिव्रता स्त्री ने ही आपको मिथिला में भेजा है। व्याध
की बात सुनकर ब्राह्मण बड़े विस्मय में पड़ा और मन-ही-मन सोचने लगा---यह दूसरा आश्चर्य
देखने को मिला। व्याध ने कहा, 'यह स्थान आपके योग्य नहीं है; यदि स्वीकार करें, तो
हम दोनों घर पर चलें।' ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर कहा, 'ठीक है, ऐसा ही करो।' फिर आगे-आगे
ब्राह्मण चला और पीछे-पीछे व्याध। घर पर पहुँचकर धर्मव्याध ने ब्राह्मण को बैठने का
आसन दिया। उसपर बैठकर उसने व्याध से कहा, 'हे तात ! यह माँस बेचने का काम तुम्हारे
योग्य नहीं है। मुझे तो तुम्हारे इस घोर कर्म से बड़ा क्लेश हो रहा है। व्याध बोला---विप्रवर
! मैने यह काम अपनी इच्छा से नहीं उठाया है। यह धंधा मेरे कुल में दादों-परदादों के
समय से चला आ रहा है। स्वयं मैं ऐसा कोई काम नहीं करता, जो धर्म के विपरीत हो।सावधानी
के साथ बूढ़े माँ-बाप की सेवा करता हूँ। सत्य बोलता हूँ। यथाशक्ति दान देता हूँ और देवता,
अतिथि तथा सेवकों को भोजन देकर जो बचता है, उसी से अपनी जीविका चलाता हूँ। सदा सत्यभाषण, तपस्या, वेदाध्ययन---ये
सब जिनमें हैं वही ब्राह्मण हैं। राजा का यह कर्तव्य है कि वह अपने-अपने धर्मों के
पालन में लगी हुई प्रजा का धर्मपूर्वक शासन करे तथा जो लोग धर्म से गिर गये हों, उन्हें
पुनः धर्मपालन में लगावे। ये राजा जनक दुराचारी को---धर्म के विरुद्ध चलनेवालों को,
वह अपना पुत्र ही क्यों न हो, कठोर दण्ड देते हैं। ( अतः आप मुझमें या किसी मिथिलावासी
में अधर्म की आशंका न करें। मैं स्वयं किसी जीव की हत्या नहीं करता। दूसरों के मारे
हुए सूअर और भैंसों का माँस बेचता हूँ। फिर भी मैं स्वयं माँस कभी नहीं खाता। दिन में
सदा ही उपवास और रात्रि में भोजन करता हूँ। कुछ लोग मेरी प्रशंसा करते हैं और कुछ लोग
निंदा; परन्तु मैं उन सबको सद्व्यवहार से प्रसन्न रखता हूँ। द्वन्दों को सहन करना,
धर्म में दृढ़ रहना, सब प्राणियों का योग्यता के अनुसार सम्मान करना---ये मानवोचित गुण
मनुष्य में त्याग के बिना नहीं आते। व्यर्थ का विवाद छोड़कर बिना कहे दूसरों का भला
करना चाहिये। किसी कामना से, क्रोध से या द्वेषवश धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये।
प्रिय वस्तु की प्राप्ति होने पर हर्ष से फूल न उठें, अपने मन के विपरीत कोई बात हो
जाय तो दुःख न माने; आर्थिक संकट आ पड़ने पर घबराये नहीं और किसी भी अवस्था में अपना
धर्म न छोड़े। यदि एक बार भूल से धर्म के विपरीत कोई काम हो जाय, तो पुनः दुबारा वह
काम न करे। जो विचार करने पर अपने और दूसरो के लिये कल्याणकारी प्रतीत हो, उसी काम
में अपने को लगाना चाहिये। बुराई करनेवाले के प्रति बदले में भी बुराई न करें, अपनी
साधुता कभी न छोड़ें।जो दूसरों की बुराई करना चाहता है, वह पापी अपने आप नष्ट हो जाता
है। जो पवित्र भाव से रहनेवाले धर्मात्मा पुरुषों के कर्म को अधर्म बताकर उनकी हँसी
उड़ाते हैं, वे श्रद्धाहीन मनुष्य नाश को प्राप्त होते हैं। पापी मनुष धोंकनी के समान
व्यर्थ फूले रहते हैं। वास्तवमें उनमें पुरुषार्थ बिलकुल नहीं होता।जो मनुष्य पापकर्म
बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा 'फिर ऐसा
कर्म कभी नहीं करूँगा' ऐसा दृढ़ संकल्प कर लेने पर वह भविष्य में होनेवाले दूसरे पाप
से बच जाता हैं। लोभ ही पाप का घर है, लोभी मनुष्य ही पाप करने का विचार करते हैं।
जैसे तिनके से ढ़का हुआ कुआँ हो, वैसे ही इनके धर्म की आड़ में पाप रहता है। इनमें इन्द्रियसंयम,
बाहरी पवित्रता और धर्म-संबंधी बातचीत---ये सब तो होते हैं, किन्तु धर्मात्मा पुरुषों
का-सा शिष्टाचार नहीं होता।
No comments:
Post a Comment