दान के लिये उत्तम पात्र
का विचार और दान की महिमा
महाराज युधिष्ठिर पूछते
हैं---मुनिवर ! मनुष्य किस अवस्था में दान देने से इन्द्रलोक में जाकर सुख भोगता है
? तथा दान आदि शुभकर्मों का भोग उसे किस प्रकार प्राप्त होता हे ? मार्कण्डेयजी
बोले---जो धार्मिक जीवन नहीं व्यतीत करते, जो सदा दूसरों की ही रसोई में भोजन किया
करते हैं, जो केवल अपने लिये ही भोजन बनाते हैं, देवता और अतिथि को अ्पण नहीं करते
तथा जो संतान से वंचित हैं---इन चार प्रकार
के मनुष्यों का जन्म व्यर्थ है। जो वाणप्रस्थ या सन्यास-आश्रम से पुनः गृहस्थ आश्रम में लौट आया हो, उसको दिया हुआ
दान तथा अन्याय से कमाये हुए धन का दान व्यर्थ है। इसी प्रकार पतित मनुष्य, चोर, मिथ्यावादी
गुरु, पापी, कृतघ्न, वेद का विक्रय करनेवाले आदि को दिया हुआ दान भी व्यर्थ है। इन
दानों का कोई फल नहीं होता। युधिष्ठिर बोले---'हे मुने ! कैसे व्यक्ति को दान देना
चाहिये ?' मार्कण्डेयजी बोले---जो संपूर्ण रूपसे विद्वान हो और अपने को तथा दाता को
तारने की शक्ति रखता हो, उसे दान देना चाहिये। अतिथियों को भोजन देने का भी बहुत बड़ा
महत्व है। उन्हें भोजन कराने से अग्निदेव जितने संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें
हविष्य हवन करने और फूल एवं चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होता। जो लोग दूर से आये हुए अतिथियों
को अन्न, जल, वस्त्र और आवास से संतुष्ट करते हैं उन्हें कभी यमराज के पास नहीं जाना
पड़ता। अन्नदान का महत्व सबसे बढ़कर है। यदि
कोई दीन-दुर्बल पथिक थका माँदा, भूखा-प्यासा, धूल भरे पैरों से आकर किसी से पूछे 'क्या
कहीं अन्न मिल सकता है ?' और कोई उसे अन्नदाता का पता बता दे तो उ मनष्य को भी अन्नदान
का ही पुण्य मिलता है, इसमें तनिक संदेह नहीं है। इसलिये युधिष्ठिर ! तुम अन्य प्रकार
के दानों की अपेक्षा अन्न दान पर विशेष ध्यान दिया करो। क्योंकि इस जगत् में अन्नदान
के समान अद्भुत पुण्य और किसी दान का नहीं है। जो लोग अधिक पानीवाले तालाब या पोखरे
खुदवाते हैं, बावली या कुएँ बनवाते हैं, दूसरों के रहने के लिये धर्मशालाएँ तैयार करवाते
हैं, अन्न का दान करते और मीठी वाणी बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी सुननी नहीं
पड़ती।
No comments:
Post a Comment